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ईसाई मिशनरी और जाति-संस्था
सन् १८५७ के पूर्व का विशाल मिशनरी साहित्य एवं पत्र-व्यवहार धर्मांतरण के मार्ग में दो ही बाधाओं का उल्लेख करता है। एक, जाति-संस्था के कड़े बंधन, जिसके कारण धर्मांतरित व्यक्ति जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता था। दूसरा कारण था पूरे समाज में ब्राह्मणों के प्रति अपार श्रद्धा का भाव। ब्राह्मणों की नैतिक-बौद्धिक श्रेष्ठता को चुनौती दे पाने में मिशनरी स्वयं को असमर्थ पा रहे थे। अपने इस अनुभव के कारण ईसाई मिशनरियों ने जाति-संस्था को ब्राह्मणवाद की रचना मानकर उसे तोड़ना ही ईसाई धर्म का मुख्य लक्ष्य घोषित कर दिया।
जाति-संस्था के प्रति हमारी आज की दृष्टि को बनाने में ईसाई मिशनरियों का भारी योगदान रहा है। सन् १४९८ में पुर्तगालियों के भारत आगमन के समय से ही मिशनरियों का एकमात्र लक्ष्य स्थानीय निवासियों का धर्मांतरण रहा और इस लक्ष्य की प्राप्ति में उन्होंने सबसे बड़ी बाधा जाति-संस्था को पाया।
सन् १८५७ के पूर्व का विशाल मिशनरी साहित्य एवं पत्र-व्यवहार धर्मांतरण के मार्ग में दो ही बाधाओं का उल्लेख करता है। एक, जाति-संस्था के कड़े बंधन, जिसके कारण धर्मांतरित व्यक्ति जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता था। वह पैतृक संपत्ति एवं व्यवसाय आदि में हिस्सा पाने का अधिकारी नहीं रह जाता था, और इस प्रकार वह सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से निराश्रित हो जाता था। दूसरा कारण था पूरे समाज में ब्राह्मणों के प्रति अपार श्रद्धा का भाव। ब्राह्मणों की नैतिक-बौद्धिक श्रेष्ठता को चुनौती दे पाने में मिशनरी स्वयं को असमर्थ पा रहे थे। अपने इस अनुभव के कारण ईसाई मिशनरियों ने जाति-संस्था को ब्राह्मणवाद की रचना मानकर उसे तोड़ना ही ईसाई धर्म का मुख्य लक्ष्य घोषित कर दिया। जाति-प्रथा से छुटकारा दिलाने के नाम पर उन्होंने अपने सब प्रयास तथाकथित निचली और निर्धन जातियों पर ही केंद्रित कर दिए।
भारत में ईसाई मिशनरियों द्वारा धर्मांतरण के इन प्रयासों को मोटे तौर पर चार कालखंडों में बाँटा जा सकता है। पहला, सोलहवीं शताब्दी में पुर्तगालियों और जेसुइस्ट पादरियों का प्रयास। पुर्तगालियों ने भारत के पश्चिमी तटवर्ती समुद्र पर मुसलमानों के एकाधिकार को तोड़ा। इसलिए संभवत: उनका संरक्षण पाने के लोभ में पश्चिमी तट पर पुर्तगाली प्रभाव-क्षेत्र में मछुआरों का सामूहिक धर्मांतरण हो सका। समूचे जाति-समूह का धर्मांतरण होने के कारण जाति खोने का कोई भय नहीं था।
सन् १५४२ में सेट जेवियर के भारत आगमन के पश्चात् जब उच्च जातियों के लोगों के धर्मांतरण के लिए सत्ताबल का प्रयोग किया गया, तभी भारत में पुर्तगाली साम्राज्य के भाग्य पर ताला लग गया। प्रभावशाली वर्गों के लोगों को ईसाई धर्म में लाने के लिए सन् १६०६ में रॉबर्ट डी नोबिली भारत आया। उसने तिलक, जनेऊ और शिखा सहित ब्राह्मण वेशभूषा अपनाकर स्वयं को ‘ईशु ब्राह्मण’ घोषित कर दिया। नीची जातियों के धर्मांतरण की छाया को भी उसने अपने पास नहीं फटकने दिया। पर यह सब करने पर भी नोबिली को धर्मांतरण में कोई सफलता नहीं मिल पाई। एक शताब्दी पश्चात् सन् १७०६ में पूर्वी तट पर ट्रन्केबर में डेनमार्क के प्रोटेस्टेंट मिशनरियों के द्वारा एक मिशनरी केंद्र प्रारंभ किया गया। इस केंद्र के प्रमुख बार्थोलोमो जीगेनबाग ने पाया कि जाति-संस्था के साथ तनिक भी छेड़खानी की तो धर्मांतरण नहीं हो पाएगा। इसलिए उसने जाति-संस्था को ज्यों-का-त्यों बनाए रखकर जाति के सामूहिक धर्मांतरण की प्रारंभिक पुर्तगाली नीति का ही अनुसरण किया। जीगेनबाग स्वयं भी जाति-संस्था से बहुत प्रभावित हुआ, जिसके लिए उसे डेनमार्क के मुख्यालय से फटकार भी खानी पड़ी। आगे चलकर ट्रन्केबर मिशन के धर्मांतरण कार्य में फादर श्वार्त्ज का सर्वाधिक योगदान माना जाता है, किंतु उसने भी चर्च के भीतर भी जाति-संस्था को मान्यता दे दी।
इस प्रकार अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का उदय होने तक ईसाई मिशनरी प्रयास दक्षिण भारत तक सीमित थे। पूर्वी तट पर प्रोटेस्टेंट डेनिश मिशन था तो पश्चिमी तट पर रोमन कैथोलिक चर्च। बंगाल में अंग्रेजों के पैर पूरी तरह जम जाने पर चार्ल्स ग्रांट जैसे अधिकारियों के आग्रह पर सेलिसबरी के बिशप ने गवर्नर जनरल लार्ड कार्नवालिस को इस बारे में एक अनुरोधपूर्ण पत्र लिखा, जिसका कार्नवालिस ने २७ दिसंबर, १७८८ को उत्तर दिया कि ‘जाति खोने के भय से हिंदुओं का धर्मांतरण लगभग असंभव है और जहाँ तक मालाबार तट पर पुर्तगाली मिशनरियों को मिली थोड़ी-बहुत सफलता का प्रश्न है, वह हमारे लिए तनिक भी प्रेरणा और उत्साह का कारण नहीं है; क्योंकि उनके द्वारा धर्मांतरित लोग भारत के निर्धनतम और सर्वाधिक तिरस्कार योग्य निकृष्ट लोग हैं।‘
ईसाई धर्म स्वीकार करने के तीन शताब्दी बाद भी धर्मांतरितों को न तो जाति-प्रथा से छुटकारा मिला और न ही उनका नैतिक-बौद्धिक विकास हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी में उनकी दुःस्थिति का वर्णन करते हुए फादर काल्डवेल ने लिखा कि ‘बुद्धि, आदतों और नैतिकता में वे गैर-ईसाई मूर्तिपूजकों से तनिक भी भिन्न नहीं दिखाई देते।‘
जाति-संस्था के प्रति एक ही समय पर दो ईसाई मिशनरियों का दृष्टिकोण कितना भिन्न हो सकता है, इसका सर्वोत्तम उदाहरण है प्रोटेस्टेंट बाप्टिस्ट मिशनरी विलियम वार्ड और फ्रांसीसी रोमन कैथोलिक मिशनरी अब्बे दुबाय। संयोग से दोनों मिशनरी एक ही समय सन् १७९३ में भारत पहुँचे। दोनों ने ही सन् १८२३ तक लगभग इकतीस वर्ष भारत में व्यतीत किए। विलियम वार्ड का कार्यक्षेत्र बंगाल था तो अब्बे दुबाय का पूरा समय दक्षिण भारत के पांडिचेरी व मैसूर में बीता। किंतु समान अवधि तक भारतीय समाज का अध्ययन करने के पश्चात् भी दोनों ने जाति व्यवस्था के बारे में एक-दूसरे से सर्वथा उलटे निष्कर्ष निकाले। सन् १८१२ में प्रकाशित वार्ड की पुस्तक में जाति-संस्था की घोर निंदा की गई है। उसे हिंदू समाज के पतन का एकमात्र कारण बताया गया है और उसे मिटाना ईसाई धर्म का लक्ष्य घोषित किया गया है।
जबकि अब्बे दुबाय ने जाति-संस्था की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। दुबाय का मत था कि जाति-संस्था प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक एवं आर्थिक सुरक्षा प्रदान करती है और उसकी रुचि व प्रकृति के अनुरूप जीवन-यात्रा का अवसर प्रदान करती है। सन् १८१५ में अब्बे दुबाय ने भारत के अपने अनुभवों के बारे में जो लंबे-लंबे पत्र फ्रांस भेजे, उनमें स्पष्ट कहा कि नैतिक दृष्टि से भारतीय लोग हमारी अपेक्षा कहीं अधिक ऊँचे हैं और उनके धर्मांतरण की न आवश्यकता है और न संभावना। विलियम वार्ड के चार खंडों के ग्रंथ में हिंदू समाज का जो रूप प्रस्तुत किया गया वह बिलकुल उल्टा है। वार्ड का निष्कर्ष था कि हिंदुओं को नैतिक पतन के गड्ढे से बाहर निकालने के लिए उनका धर्मांतरण नितांत आवश्यक है।
वार्ड और दुबाय दोनों ने ही अपने निबंध सन् १८०५ में ईस्ट इंडिया कंपनी के विज्ञापन के कारण लिखे। पर कंपनी ने दुबाय के निबंध को लंबे समय तक दबाए रखा और वार्ड के निबंध को तुरंत प्रकाशित कर दिया। फलतः वार्ड की दृष्टि को ब्रिटिश सरकार के संरक्षण में धर्मांतरण में जुटे अधिकांश प्रोटेस्टेंट ईसाई मिशनरियों ने अपनाया। किंतु इससे उनके सामने एक प्रश्न खड़ा हो गया कि क्या जाति पर प्रहार करके हम धर्मांतरण कर पाएँगे? हमारा लक्ष्य क्या हो— जाति तोड़ना या धर्मांतरण? इन प्रश्नों पर उन्नीसवीं शताब्दी की दिलचस्प मिशनरी बहस क्या है?
[नवभारत टाइम्स, २६ अक्तूबर, १९९५]
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