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न्याय शास्त्र में संवाद के दोषो के परिहार की प्रविधि(मेथड)
जिसकी सहायता से किसी सिद्धान्त पर पहुँचा जा सके उसे न्याय कहते हैं-प्रमाणों के आधार पर किसी निर्णय पर पहुँचना ही न्याय है। यह मुख्य रूप से तर्कशास्त्र और ज्ञानमीमांसा है।
न्यायसूत्र, भारतीय दर्शन का प्राचीन ग्रन्थ है। इसके रचयिता अक्षपाद गौतम हैं। इसकी रचना का समय दूसरी शताब्दी ईसापूर्व है।न्याय दर्शन के कुल पांच अध्याय हैं; प्रत्येक अध्याय में दो आह्निक हैं।जिन साधनों से हमें ज्ञेय तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, उन्हीं साधनों को ‘न्याय’ की संज्ञा दी गई है। देवराज ने ‘न्याय’ को परिभाषित करते हुए कहा है-नीयते विवक्षितार्थः अनेन इति न्यायः (जिस साधन के द्वारा हम अपने विवक्षित (ज्ञेय) तत्त्व के पास पहुँच जाते हैं, उसे जान पाते हैं, वही साधन न्याय है।)
दूसरे शब्दों में, जिसकी सहायता से किसी सिद्धान्त पर पहुँचा जा सके, उसे न्याय कहते हैं। प्रमाणों के आधार पर किसी निर्णय पर पहुँचना ही न्याय है। यह मुख्य रूप से तर्कशास्त्र और ज्ञानमीमांसा है। इसे तर्कशास्त्र, प्रमाणशास्त्र, हेतुविद्या, वादविद्या तथा अन्वीक्षिकी भी कहा जाता है। न्याय दर्शन के 5 अध्याय तथा 10 आह्निक हैं, 84 प्रकरण एवं 528 सूत्रों में सोलह पदार्थों का विशद वर्णन किया गया है।इन 16 पदार्थो का वर्णन प्रथम सूत्र में ही मिलता है । सही और गलत के निर्धारण के लिए वाद –विवाद के प्रश्नों को हल करने में ये बड़े महत्वपूर्ण सिद्ध होते हैं । इसके अलावा तर्क दोषो का परिहार कर अपने वक्त्व को कैसे शंका रहित किया जाए । इसकी कला भी न्याय शास्त्र के सम्यक अभ्यास से प्राप्त होती हैं । न्याय शास्त्र की इस प्राविधि का उपयोग करके हम संवाद के दोषों का परिहार कर ठीक ज्ञान की दिशा के ओर अग्रसर हो सकते हैं ।
न्याय के 16 पदार्थ निम्न हैं –
“प्रमाण-प्रमेय-संशय-प्रयोजन-दृष्टान्त-सिद्धान्तावयव-तर्क-निर्णय-वाद-जल्प-वितण्डाहेत्वाभास-च्छल-जाति-निग्रह स्थान
प्रमाण – ये मुख्य चार हैं – प्रत्यक्ष , अनुमान , उपमान एवं शब्द।
प्रमेय – ये बारह हैं – आत्मा, शरीर, इन्द्रियाँ, अर्थ , बुद्धि / ज्ञान / उपलब्धि , मन, प्रवृत्ति , दोष, प्रेतभाव , फल, दुःख और उपवर्ग। हस्थानानाम्तत्त्वज्ञानात् निःश्रेयसाधिगमः”
१- वाद : जब दो समूहों के बीच किसी ग्रन्थ या विषय के पक्ष-विपक्ष पर विमर्श या विवाद हो तथा विमर्श का उद्देश्य सत्य का अन्वेषण हो तो यह वाद कहलाता है ।
२- प्रतिज्ञा : प्रतिज्ञा, वह कथन है जिसे स्थापित करना होता है । जैसे: आत्मा शाश्वत है
३- स्थापना : तार्किक प्रक्रिया द्वारा प्रतिज्ञा की स्थापना करना जिसमे कारण, उदाहरण, निष्कर्ष आदि आते हैं ।
४- प्रतिस्थापना : प्रति-स्थापना का तात्पर्य पूर्व में की गयी स्थापना के विपरीत कथन
५- हेतु : हेतु, ज्ञान का आधार है जैसे प्रत्यक्ष, अनुमान, ऐतिह्य औपम्य आदि
६- उपनय तथा निगमन : उदाहरण का उपयोग तथा अपने तर्क के आधार पर निष्कर्ष
७- उत्तर : प्रतिस्थापना में स्थापित प्रतिज्ञा को उत्तर कहते हैं I
८- दृष्टांत : दृष्टान्त ऐसा तथ्य है जिसमें एक साधारण मनुष्य तथा एक विशेषज्ञ समान राय रखते हों I जैसे अग्नि गर्म है, पृथ्वी स्थिर है इत्यादि
९- सिद्धांत : ऐसा सत्य जिसे विशेषज्ञों ने परीक्षित करके तथ्यों के साथ रखा हो, जो किसी न किसी समूह को स्वीकार्य हो I
१०- शब्द : अक्षरों का समूह शब्द कहलाता है
११- प्रत्यक्ष : ऐसा ज्ञान जिसे मनुष्य अपने इन्द्रियों तथा मन के समन्वय से सीधे प्राप्त करता है I
१२- अनुमान : ऐसा ज्ञान जो विभिन्न तर्कों को जोड़ते हुए तर्क पर आधरित है
१३- औपम्य या उपमान : ऐसा ज्ञान जो वस्तु और सूचना की सादृश्यता पर निर्भर हो
१४- ऐतिह्य : विश्वासप्रद स्रोत पर आधरित ज्ञान
१५- संशय : संशय का तात्पर्य अनिश्चितता तथा संदेह से है
१६- प्रयोजन : तर्क बिना किसी प्रयोजन के स्वीकार्य नहीं है I अर्थात सिर्फ तर्क के लिए तर्क करना गलत है तथा मान्य नहीं है
१७- सव्यभिचार : अपने सिद्धांत पथ हट जाना, गुमराह करना
१८- जिज्ञासा : यहाँ तात्पर्य तथ्य की परीक्षा से है I
१९- व्यवसाय : यह एक निश्चितता है जैसे: यह बीमारी पेट में हवा के परिवर्तन के कारण हुई है और यह उसकी दवा है
२०- अर्थ-प्राप्ति : किसी दूसरी बात की घोषणा से उत्पन्न ज्ञान अर्थ-प्राप्ति की कोटि में आता हैI
२१- संभव : ऐसा विषय जिससे किसी दूसरी वस्तु की उत्पत्ति होती है
२२- अनुयोज्य : ऐसा भाषण या कथन जो दोषों से भरा हुआ हो I
२३- अनानुयोज्य : यह अनुनोज्य के विपरीत कथन या भाषण है I
२४- अनुयोग : अनुयोग किसी विषय का उस विषय के विद्वान द्वारा अनुसन्धान है I
२५- प्रत्यानुयोग : किसी अनुसन्धान का पुनः अनुसंधान करना प्रत्यानुयोग है I
२६- वाक्-दोष : वाक्-दोष ऐसे कथनों को कहते हैं जिसमें:
(अ) अपर्याप्तता या बहुत कम बोलना जब विषय को उदाहरण के साथ कहना हो
(आ) अतिरेक करना या अत्यधिक बोलना जहाँ कम बोलने की आवश्यकता हो
(इ) निरर्थक शब्दों तथा अक्षरों का चयन
(ई) असंगत, शब्दों का ऐसा समूह जो कोई अर्थ प्रदान नहीं कर रहे हों
(उ) अंतर्विरोध- अपनी बातों और उदाहरण के बीच अंतर्विरोध
२७- वाक्य-प्रशंसा : जब कोई भाषण या कथन ऊपर उल्लेखित की गयी अशुद्धियों से मुक्त हो तो ऐसे कथन वाक्य-प्रशंसा की श्रेणी में आते हैं
२८- छल : ऐसे कथन जिसमें शब्दों के साथ खेलते हुए उनके अर्थ को बदल देना छल कहलाता है I अर्थात शब्द के आशय को बदल देना
२९- अहेतु : अहेतु तीन तरह के होते हैं:
(अ) प्रकरण सम- यह उधार के प्रश्न लेने की प्रक्रिया है अर्थात जिसे सिद्ध करना है जैसे आत्मा शाश्वत क्योंकि यह भौतिक शरीर से अलग है
(आ) समस्या सम- संदेह के आधार पर कोई धरना बनाना जैसे यह संदेहास्पद है कि कोई व्यक्ति जो औषधि विज्ञान पढ़ रह है वो चिकित्सक हो
(इ) वर्ण्य सम- जब प्रश्नचिह्न के मामले में उदाहरण, विषय से अलग न हो अर्थात वक्ता द्वारा विषय को संतुलित करने का कार्य किया जा रहा हो I
३०- अतीत-काल : यह दोष तब उत्पन्न होता है जब किसी बात को पहले बोलना हो तो बाद में बोला जाये तथा जिसे बाद में बोला जाये उसे पहले बोलना चाहिए I
३१- उपलंभ : तर्क दोष होने का अभियोग लगाना
३२- परिहार : जब दोष को दूर किया जाता है तो परिहार कहा जाता है
३३- प्रतिज्ञा-हानि : जब प्रतिवादी पर बौद्धिक प्रहार के कारण वह अपनी प्रतिज्ञा छोड़ देता है अर्थात जिस विषय को सिद्ध करना हो उसे छोड़ देता है
३४- अभ्यनुज्ञा : व्यक्ति द्वारा उसके प्रतिवादी ने जो कुछ कहा उसे स्वीकार कर लेना यद्यपि वह स्वीकार्य करने योग्य हो या न हो
३५- हेत्वांतर : हेत्वांतर का तात्पर्य है जब स्पष्ट और सुसंगत तर्क के स्थान पर दूसरे तर्क का प्रयोग
३६- अर्थान्तर : वाद के विषय को बदलने की कोशिश करना
३७- निग्रहस्थान : निग्रहस्थान वह स्थान है जहाँ प्रतिवादी की हार घोषित की जाती है I इसमें विषय बदलना, अपने ही स्थापना का खंडन, इत्यादि
अशुद्ध, अतार्किक संवाद या विमर्श : भारतीय परम्परा में न केवल शुद्ध तार्किक प्रक्रिया का वर्णन है अपितु ऐसे भी संवादों का जिक्र है जो अशुद्ध हैं किन्तु सामान्यतः हमे समझ में नहीं आता Iपरम्परा में इसका वर्गीकरण है जिसमें प्रमुख रूप से: जल्प, वितंडा, छल, हेत्वाभाष, जाति इत्यादि
जल्प: ऐसा संवाद या तर्क जिसमें तर्क करने वाला सिर्फ जीतने के उद्देश्य से तर्क करता है , इसमें इस बात का कोई ध्यान नहीं रखता है कि जो तर्क वह प्रस्तुत कर रहा है, वह उसकी बात को पूर्ण समर्थन दे रहा है या नहीं उसका उद्देश्य सिर्फ जीत हासिल करना है न कि सत्य का अन्वेषण करना
वितण्डा: वितण्डा ऐसी विधा है जिसमे वादी सिर्फ प्रतिवादी पर प्रहार करता है उसके तर्कों का खंडन करता है . इसमें वितंडी का कोई खुद का पक्ष नहीं होता है जिसे वह स्थापित करना चाहता है अपितु वह केवल खंडन करता है अपना कोई सिद्धांत नहीं रखता तत्व निर्णय के उद्देश्य से किए जानेवाले विचार को “वाद” एवं प्रतिद्वंदी पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से किए जानेवाले विचार को “जल्प” तथा “वितंडा” कहा जाता है। वादात्मक विचार में “छल” और “जाति” का प्रयोग तथा “अपसिद्धांत” “न्यून”, अधिक” और “हेत्वाभास” से अतिरिक्त निग्रह स्थानों का उद्भावन वज्र्य माना गया है।
छल:-छल का तात्पर्य है कि इसमें प्रतिवादी द्वारा दिए गए तर्कों के शब्दों का अर्थ बदल देना , वादी के पक्ष का खंडन करने के लिए उसके वचन में उसके अनभिमत अर्थ की कल्पना को “छल” कहा जाता है।
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