Indic Varta

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यह लेख सीता राम जी द्वारा दिए गए एक भाषण का तीसरा भाग है| इसमें श्री सीता राम जी कहते हैं कि सेकुलरवाद को भारत में केवल हिन्दू समाज पर थोपा जाता है| यह समझाते हुए वे कहते हैं कि सेकुलरवाद का जन्म इसाइयत की पृष्ठभूमि में हुआ और उसका भारत के समाज में और हिन्दू धर्म के बीच कोई औचित्य नहीं है| इस विचारधारा को यहाँ पर थोपा कैसे हमारी सामाजिक व्यवस्था को ठेस पहुंचाता है इसको जानने के लिए पढ़िए|

उदीयमान राष्ट्रदृष्टि – 3

सैक्युलरिज्म को ही ले लीजिए। हमने इस धारणा का आयात आधुनिक योरप से किया है। योरप में ईसाई चर्च ने बहुत रक्तपात किया था एक-सौ-वर्ष, दो-सौ-वर्ष व्यापी युद्ध लड़े थे। ईसाइयत का उदय होते ही योरप एक गहन अंधकार में डूब गया था। मानवीयता, बुद्धिप्रवणता तथा सर्वजन हिताय-भावना जिनको मानव-सुलभ आस्थाएँ माना जाता है, वे सब ईसाइयत की हठधर्मिता के नीचे दब गईं थीं। योराप के कुछ लोगों ने ईसाइयत के विषय में विचार करना शुरू किया, विशेषतया ईसाइयत के उस पक्ष का परीक्षण जिसके अनुसार चर्च ने राजतन्त्र को पाशबद्ध किया हुआ था। योरप का सम्पर्क भारत, चीन तथा कई-एक अन्य देशों की प्राचीन संस्कृतियों से हो चुका था। फलस्वरूप वहाँ मानववाद, बुद्धिवाद तथा विश्ववाद की एक नई लहर उठने लगी थी। वहाँ चर्च के विरूद्ध एक संघर्ष का सूत्रपात हुआ था और धीरे-धीरे राजतन्त्र को चर्च के चंगुल से छुड़ा लिया गया था। इस संघर्ष ने ही योरप में सैक्युलरिज्म की धारणा को जन्म दिया था। यह एक बहुत ही कल्याणकारी धारणा थी, विशेषतया उन देशों के लिए जो मतान्ध राजतन्त्रों द्वारा पीड़ित थे, जो ईसाइयत की अमानवीय तत्वमीमांसा द्वारा दलित थे। यह धारणा अब भी उन देशों के लिए कल्याणकारी है जो इस्लाम के चंगुल में फंसे हुए हैं।

किन्तु भारतवर्ष में इस धारणा का प्रचार उस हिन्दू समाज को लक्ष्य करके किया जा रहा है जिसमें धर्म को लेकर कभी कोई मारकाट नहीं मची, धर्म को लेकर कभी कोई तनाव नहीं खड़ा हुआ। अभी कुछ दिन पहले मैं पूर्व के कई –एक देशों की यात्रा कर रहा था। चीन के बौद्ध भिक्षुओं से बात करने का अवसर मुझे मिला मैंने उनसे पूछाः “चीन में बौद्धधर्म बाहर से आया था। चीन में कन्फ्यूसियस द्वारा प्रवर्तित धर्म पहले से विद्यमान था। ताओ द्वारा प्रवर्तित धर्म भी। क्या बौद्धधर्म तथा चीन के पुराने धर्मों के बीच कोई द्वन्द देखा गया?” उन्होंने उत्तर दिया; “नहीं, कभी नहीं।” द्वन्द का एक भी अवसर इसलिए नहीं आया कि कन्फ्यूसियस तथा ताओ के धर्म भी अध्यात्म की उसी गहन-गम्भीर भूमि से उद्भूत हुए थे जिससे कि सनातन धर्म की सरिता बह कर आई थी, जिससे कि बौद्धधर्म, जैनधर्म तथा वैष्णवधर्म का उद्गम हुआ था।

इन धर्मों में मानवजाति को दिए गए एक ही अध्यात्म-सन्देश के विविध पर्याय पाए जाते हैं। मैंने जापान में यह जानने की कोशिश की कि बाहर से आए हुए बौद्धधर्म के साथ वहाँ के प्राचीन शिन्तो धर्म का क्या कभी कोई संघर्ष हुआ। वहाँ भी मुझे यही उत्तर मिला कि ये दोनों धर्म कभी आपस में नहीं टकराए। आज भी वहाँ दोनों धर्म परस्पर सौहार्द के साथ रह रहे हैं। मेरी एक टैक्सी चालक के साथ चर्चा चली। वह एक प्रबुद्ध व्यक्ति था। उसने मुझसे कहा “मैं तो बौद्ध भी हूँ और शिन्तो भी।” प्राचीन ग्रीस, प्राचीन रोम तथा एशिया और योरप के अन्यान्य प्राचीन देशों की कहानी भी यही है। ईसाइयत के उदय से पहले धर्म को लेकर कभी कोई युद्ध नहीं हुआ था।

धर्म के नाम पर होने वाले युद्धों का सूत्रपात सर्वप्रथम ईसाइयत ने ही किया। इस्लाम का आविर्भाव होने पर ये युद्ध और भी रक्तरंजित हो उठे। किन्तु योरप में मानववाद, बुद्धिवाद तथा विश्ववाद की लहर उठने से राजतन्त्र पर से ईसाइयत का सिक्का समाप्त हो गया। और इस प्रकार सैक्युलरिज्म की धारणा ने जन्म लिया। जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूँ यह धारणा योरप के प्रसंग में बहुत कल्याणकारी सिद्ध हुई। परिणामस्वरूप योरप के समाज ने बहुत प्रगति की, योरप में विज्ञान का विकास हुआ, तकनीकी का विकास हुआ और योरप के देश सामाजिक कल्याण की दिशा में आगे बढ़े। यह सब सम्पदा योरप को सैक्युलरिज्म की धारणा से ही उपलब्ध हुई।

किन्तु हिन्दू समाज तो सदा ही और स्वभावतः ही एक सैक्यूलर समाज रहा है। हिन्दू समाज में धर्म को लेकर कभी कोई रक्तपात नहीं हुआ। हिन्दू समाज ने कभी किसी मतान्ध राजतन्त्र को जन्म नहीं दिया। किसी भी हिन्दू राजा का उदाहरण ले लीजिए। व्यक्तिगत निष्ठा के नाते वह चाहे बौद्ध रहा हो, चाहे जैन, चाहे वैष्णव, चाहे किसी अन्य सम्प्रदाय का अनुयायी। किन्तु उसके दरबार में, उसके राज्य में सभी धर्मों का समानरूप से सत्कार हुआ है, समानरूप से संरक्षण हुआ है। अथवा यह कहना अधिक समीचीन होगा कि इस देश में सन्त-महात्मा ही राजा के श्रद्धाभाजन रहे हैं, न कि राजा सन्त-महात्माओं का श्रद्धाभाजन। यहाँ के सन्त-महात्माओं को आर्चबिशप ऑफ कैन्टरबरी की नाईं राजा के दरबार में हाजिर नहीं होना पड़ा। इंग्लैंड का राजा वहाँ के धर्म का परित्राता कहलाता है।

भारत में किन्तु राजा को ऋषियों, मुनियों तथा सन्त-महात्माओं की शरण में जाकर उपदेश सुनना पड़ता था। इस प्रकार के इस देश में, इस प्रकार के इस समाज में योरप से सैक्युलरिज्म की धारणा का आयात किया गया है। यही नहीं सैक्युलरिज्म की धारणा का उपयोग हिन्दू समाज के विरुद्ध एक अस्त्र के रूप में किया जा रहा है। आप सब यह जानते हैं कि सैक्युलरिज्म का अर्थ इस देश में क्या है। इस शब्द को सुनते ही आपको इसमें भरी हिन्दू-विद्वेष की भावना का संकेत मिलता है। इस देश में आज सैक्युलरिज्म का एक ही काम है- हिन्दू समाज को कोसना, हिन्दू संस्कृति को कोसना, हिन्दू इतिहास को कोसना। जो कुछ हिन्दू कहा जाता है उस सबको कोसना ही सैक्युलरिज्म कहलाता है। हिन्दू शब्द ही एक कुशब्द बनकर रह गया है। सैक्युलरिज्म के शब्दकोष में मुसलमान एक अल्पसंख्यक समुदाय है, ईसाई भी एक अल्पसंख्यक समुदाय है। किन्तु हिन्दू समाज एक “वीभत्स” बहुमत है। सैक्युलरिज्म नाम का यह धर्म ही आज सनातन धर्म का स्थान लेता जा रहा है। यह एक नई दृष्टि है जिसने सनातन धर्म की दृष्टि का स्थान ग्रहण किया है। और सनातन धर्म की दृष्टि द्वारा पुष्ट समाज तथा संस्कृति तथा इतिहास तथा अन्य समस्त सम्पदा हेय होते जा रहा हैं।

सैक्यूलरिज्म के इस अनाचार को देखकर सैक्यूलरिज्म द्वारा प्रसारित इस हिन्दू-विद्वेष को देखकर, हिन्दू समाज को यह आभास होने लगा है कि कहीं न कहीं कोई बहुत बड़ा घोटाला है। सैक्युलरिज्म का प्रश्रय पाकर तथाकथित अल्पसंख्यक समाज उत्तरोत्तर उद्धत होते जा रहे हैं। ईसाई मिशनरियों को अरबों डालर पाश्चात्य राष्ट्रों के सैन्य-प्रतिष्ठानों से, गुप्तचर-संस्थानों से तथा अन्यान्य सरकारी विभागों से प्राप्त होते हैं। इस प्रचुर धनराशि को इस देश में लाकर ये लोग बड़े-बड़े मिशनों की स्थापना करते हैं, गिरजाघर बनाते हैं, हिन्दुओं को ईसाई बनाने में व्यय करते हैं। इस प्रकार इस देश में ईसाइयत का “प्रकाश” फैलाया जा रहा है। इस्लाम भी यही सब कर रहा है। जब से पेट्रोल के बदले में प्राप्त मुद्रा का भण्डार भरने लगा है, जब से अरब देश धनाढ्य होने लगे हैं, तब से इस्लाम का आत्मविश्वास इस देश में बहुत बढ़ गया है। देश के विभाजन के बाद इस्लाम का आत्मविश्वास कुछ-कुछ कुण्ठित हो गया था। किन्तु अब वह फिर से मुस्लिम लीग के दिनों की याद दिलाने लगा है। आप लोग मुस्लिम प्रतिष्ठानों द्वारा प्रकाशित पत्र-पत्रिकाएँ पढ़कर देखिए, विशेषतया उर्दू भाषा में छपी पत्र-पत्रिकाएँ। आप तुरन्त ही समझ जाएँगे कि इस्लाम का साम्राज्यवाद आज किस प्रकार फिर से आक्रामक रवैया अख्तियार करता जा रहा है।

इन सभी परिस्थितियों के परिणामस्वरूप, सैक्यूलरिज्म की इस मूढ मीमांसा को सुनकर, और कुछ काल तक सुषुप्त रहने वाली इन पुरानी साम्राज्यवादी शक्तियों के आक्रमण का नया रूप  देखकर, हिन्दू समाज में आज एक प्रकार के पुनर्जागरण और पुनरुत्थान की लहर उमड़ रही है। विश्व हिन्दू परिषद् इस जागरण को संगठित करने के लिए, इस उत्साह को एक दिशा देने के लिए, नेतृत्व की भूमिका निभा रहा है। किन्तु मेरा मन कहता है कि जब तक स्वदेशी आन्दोलन द्वारा प्रदत्त राष्ट्रदृष्टि का पुनर्जागरण, पुनरुत्थान, पुनरनुमोदन तथा नवीन परिस्थिति में पुनर्स्थापन नहीं होता, तब तक यह सारा प्रयास सफल नहीं हो पाएगा, सक्षम नहीं हो सकेगा। इस पुनर्स्थापन के प्रसंग में मैं जो कुछ समझ पाया हूँ, वही आज कुछ शब्दों में कहना चाहता हूँ।

राष्ट्रदृष्टि के पुनर्स्थापन के लिए सब से पहिला काम जो हमें करना होगा वह है सारे संसार के समक्ष यह घोषणा करना कि हम इस प्राचीन देश को, इस भारतवर्ष को एक अविभाज्य समष्टि मानते है और इसका जो विभाजन आज अफगानिस्तान, पाकिस्तान, हिन्दुस्तान तथा बांग्लादेश के रूप में हो गया है, वह हमें मान्य नहीं। यह घोषणा करने में हमें कोई संकोच अथवा संशय नहीं होना चाहिए। ऐसा कई-एक देशों के इतिहास में देखा गया है कि साम्राज्यवादी शक्तियों ने उन पर आक्रमण करके उनके कतिपय अंचलों को अपने अधिकार में कर लिया है। अतएव हमारे मन में अधुना यह धारणा स्पष्ट हो जानी चाहिए कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा बांग्लादेश कहलाने वाले भू-भाग हमारे स्वदेश के अंग हैं और उनको वापस लेने के लिए हम कृतसंकल्प हैं। हम को निःसंकोच यह कहना चाहिए कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांगलादेश इस्लाम के उस साम्राज्यवादी कुचक्र का परिणाम हैं जो एक सहस्र वर्ष तक इस देश पर चला था। हमें कहना चाहिए कि हम उस परिणाम को स्वीकार नहीं करते और देर से या सबेर से हम मातृभूमि के इस विभाजन को विफल करके रहेंगे तथा इस्लाम के साम्राज्यवाद ने हमारे जिन भाइयों को हम से विमुख किया है उन सबको हम फिर से अपने परिवार में मिलाएँगे।

हमारे कुछ भाई आज मुसलमान कहलाते हैं, कुछ ईसाई। ये सब हमारे अपने हैं। हमें इनके विरुद्ध कुछ नहीं कहना। किन्तु इस्लाम अथवा ईसाइयत के साम्राज्यवाद ने जो अवशेष इस देश में छोड़े हैं उनको हम सहन नहीं करेंगे। इस्लाम के साम्राज्यवाद की पराजय हो चुकी है, उसका पतन हो चुका है। अब इस देश में इस्लाम के लिए कोई स्थान नहीं। ईसाइयत के साम्राज्यवाद की भी पराजय हो चुकी है, उसका भी पतन हो चुका है। अब इस देश में ईसाइयत के लिए कोई स्थान नहीं। ये सब बातें हमें स्पष्ट शब्दों में कहनी होंगी।

दूसरी बात जो हमें स्पष्ट शब्दों में और बिना संकोच के कहनी होगी वह यह है कि भारतवर्ष का इतिहास हिन्दू समाज का इतिहास है, हिन्दू राष्ट्र का इतिहास है और हम उस इतिहास के किसी भी पर्व को मुस्लिम अथवा ब्रिटिश पर्व नहीं मानते, हम उस इतिहास के किसी भी काल को ममलूक अथवा खिलजी अथवा तुगलक अथवा लोधी अथवा मुगल वंश का काल कहकर नहीं पुकारेंगे। हम अपने इतिहास का वर्णन अपने वीरपुरुषों की गौरवगाथा के रूप में करेंगे – पृथ्वीराज चौहान का युग, महाराणा सांगा का युग, कृष्णदेव राय का युग, महाराणा प्रताप का युग, छत्रपति शिवाजी का युग और ऐसे ही अन्य अनेक युग। हम नहीं मानते कि इस देश में कभी कोई मुस्लिम साम्राज्य था। हम उस सारे काल खंड को एक ऐसे युग के रूप में देखते हैं जिसमें हमने इस्लाम के साम्राज्यवाद के साथ एक दीर्घकाल-व्यापी संघर्ष किया था। वह संघर्ष हमारे राष्ट्र का संरक्षण-संग्राम था, मुक्ति-संग्राम था। उस संघर्ष में हमने इस्लाम के साम्राज्यवाद को पराजित किया था। इसी प्रकार हम किसी अंग्रेज वायसराय अथवा गवर्नर जनरल को भारत के शासक के रूप में नहीं पहचानते। हम उन सबको साम्राज्यवादी घुसपैठिए ही मानते हैं। आजकल हमारे स्कूलों तथा कालिजों में भारतवर्ष के इतिहास का जो साम्राज्यवादी पाठ पढ़ाया जाता है, उसका हमें प्रत्याख्यान (rejection) करना होगा।

भारतवर्ष में तथाकथित मुस्लिम साम्राज्य की कहानी ही ले लीजिए। अपने नबी की मृत्यु के कुछ ही वर्ष उपरान्त इस्लाम ने एशिया तथा अफ्रिका के बड़े-बड़े भू-भाग जीत लिए थे। किन्तु उसी इस्लाम को भारत-भूमि पर प्रथम पदार्पण करने के लिए सत्तर वर्ष तक संघर्ष करना पड़ा था। दिल्ली तक पहुँचने के लिए इस्लाम को और भी पांच सौ वर्ष तक जूझना पड़ा था। तदन्तर कई-सौ वर्ष और इस्लाम को दक्षिण का द्वार खोलने में लगे थे। और अन्ततः हमारे राष्ट्रव्यापी मुक्ति-संग्राम के सामने इस्लाम को परास्त होकर लगातार पीछे हटना पड़ा था। शिवाजी के उत्थान के साथ-साथ उस साम्राज्यवाद के पाँव उखड़ गए थे। अतएव उस युग के हमारे इतिहास की सही वर्णन यही है कि हमने इस्लाम के साम्रज्यावाद के साथ एक दीर्घकालव्यापी संघर्ष किया। उस संघर्ष को भारत में इस्लाम की विजययात्रा के रूप में नहीं देखा जा सकता, संघर्ष के उस पर्व को भारतीय इतिहास का मुस्लिम पर्व नहीं कहा जा सकता।

To be continued…

Two more parts to come. Read the previous parts here: 1, 2.

[योगक्षेम, कलकत्ता, की मासिक सभा में 4 दिसंबर, 1983 को दिया गया श्री सीताराम गोयल का भाषण]