राष्ट्रीय शिक्षानीति: बाल पोषण से राष्ट्र पोषण का उन्नत विकल्प

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  • Published on: 2024-09-23 12:08 pm

राष्ट्रीय शिक्षानीति: बाल पोषण से राष्ट्र पोषण का उन्नत विकल्प

देश को वीर बालक भरत, राम, कृष्ण, अभिमन्यु, स्कंदगुप्त, जोरावर व फतेह सिंह, पृथ्वी सिंह, हकीकत राय, दुर्गादास राठौर जैसे होनहारों की आवश्यकता है और इसके लिए आवश्यकता है बाल पोषण की।

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    किसी राष्ट्र का निर्माण वहां के नागरिकों की समुन्नत विचार शक्ति और अपनी सांस्कृतिक पहचान के प्रति अटूट निष्ठा के आधार पर होता है। यह पहचान उसे अपने सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों, परंपराओं, प्रतीकों, धरोहरों और उनको संरक्षित तथा सुरक्षित रखने के लिए अपना सर्वस्व दाँव पर लगा देने वाले महापुरुषों के प्रति श्रद्धा भाव से सृजित होती है। यह एक- दो दशकों या शताब्दियों में न होकर निरन्तर लम्बी अवधि के सञ्चयी प्रयासपूर्ण चिंतन-मनन के द्वारा ही सम्भव है। राष्ट्र निर्माण के लिए तो बड़े-से-बड़े महापुरुष का जीवन भी छोटा पड़ जायेगा। इसके लिए तो महान पुरुषत्व की अखण्ड-सतत शृंखला की आवश्यकता है।

    राष्ट्र निर्माण एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है जिसका पोषण वहाँ के नागरिकों की चिंतन शीलता व दिशा में निष्ठापूर्ण क्रियाशीलता से ही सम्भव है। ऐसे नागरिकों का निर्माण भी राष्ट्र-निर्माण की सतत चलने वाली प्रक्रिया का ही एक अंग है। इस प्रकार राष्ट्र-निर्माण से तात्पर्य नागरिक-निर्माण से है। दूसरे शब्दों में राष्ट्र-निर्माण का सीधा संबंध नागरिक निर्माण से समझना चाहिए जिसका उद्गम स्थल बाल पोषण है। बाल पोषण का अर्थ है - स्वस्थ बचपन, समुन्नत चिंतन। जब हम बाल पोषण की बात करते हैं तो उसका सीधा सम्बन्ध बाल्यावस्था की सभी अनुकूल स्थितियों से होता है जिसमें मातृ कल्याण से लगायत बच्चे के स्वस्थ आहार-विहार, जीने के अधिकार सहित मानव के सभी मौलिक अधिकारों से है। आनंददायी वातावरण, खेलकूद के पर्याप्त अवसर, ज्ञान अर्जन के समान अवसर, प्रतियोगिताओं में सहभाग व प्रदर्शन आदि के उचित अवसरों से है।

हमको छोटे-छोटे ना जानो हम सरदार बनेंगे।

भारत की सेवा करके होनहार बनेंगे।

जब सीमा पर दुश्मन की सेना लड़ने आएगी।

हम भारत माँ की रक्षा में अलंबरदार बनेंगे।

    बचपन में सुनाई गई इस प्रकार की कविताएं बच्चों के मन-मस्तिष्क में अपने देश व समाज के प्रति श्रद्धा, सेवा व निष्ठा के भाव भरती हैं। इतिहास गवाह है, बचपन में रामायण-महाभारत की कथाएँ और भारत का गौरवशाली इतिहास पढ़-पढ़कर हमारे वीर स्वातंत्र्य सेनानियों और ऐतिहासिक महापुरुषों ने भारतमाता का गौरव बढ़ाने में अपना जीवन धन्य किया। नागरिकों में आत्मगौरव का भाव जगाने के लिए उनमें बचपन से ही राष्ट्र गौरव का बीजारोपण करना होगा। जहाँ बालक शिवबा को छत्रपति शिवाजी महाराज के रूप में माँ भारती के सच्चे सपूत की प्रतिष्ठा के लिए माता जीजाबाई सरीखी स्नेहमयी मममता की छाँव की दरकार होती है वहीं लोक कल्याणकारी हिंदवी साम्राज्य की स्थापना के लिए समर्थ गुरु रामदास के राज्य निर्देशन की भी आवश्यकता है। देश को वीर बालक भरत, राम, कृष्ण, अभिमन्यु, स्कंदगुप्त, जोरावर व फतेह सिंह, पृथ्वी सिंह, हकीकत राय, दुर्गादास राठौर जैसे होनहारों की आवश्यकता है और इसके लिए आवश्यकता है बाल पोषण की। कहा ही गया है कि 'पूत के पाँव पालने में ही दिखने चाहिए।' 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात।' भविष्य का निर्धारण वर्तमान की परिस्थितियों के आधार पर ही होता है। छायादार-फलदार वृक्ष पाने के लिए पौधे का पोषण करना होता है। उसे सुदृढ़ व स्वस्थ वृक्ष का आकार देने के लिये अनुकूल एवं उचित मात्रा में मिट्टी, पानी, धूप, हवा और खाद देना होता है। नुकसानदेय कीट-पतंगों से रक्षा करने के लिए इर्द-गिर्द कीटनाशकों का छिड़काव करना होता है। अनचाहे खर-पतवार नाशक दवाओं का प्रयोग करना होता है। आवश्यक पोषक तत्वों (माइक्रो न्यूट्रिएंट्स) से सींचना होता है। लम्बी देखभाल और पोषण के पश्चात ही उस पौधे से फल-छाया की अपेक्षा की जा सकती है। अनचाहे उग आये पौधों, झाड़ियों, लताओं आदि से भला अपेक्षा भी क्या की जा सकती है। जिस प्रकार पौधे का उद्देश्यपरक पोषण ही एक स्वस्थ व सुडौल वृक्ष का निर्माण करता है, उसी प्रकार उद्देश्यपरक बाल पोषण से ही स्वस्थ चिंतन वाले नागरिकों का निर्माण होता है। आज का बाल पोषण कल के राष्ट्र-निर्माण की नींव है। छात्र कल के भारत के भविष्य नहीं अपितु आज के राष्ट्र का नागरिक हैं।

    स्वतंत्रता पूर्व की बात क्या करनी; दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत में भी इस दिशा में कभी कोई गम्भीर प्रयास देखने को नहीं मिला। स्वस्थ बचपन, सुदृढ़ चिंतन, सकारात्मक राष्ट्रीय शिक्षा और उद्देश्यपूर्ण नागरिक निर्माण की स्पष्ट नीति का सर्वथा अभाव रहा। जहाँ सरकारों द्वारा इसकी घोर उपेक्षा की गई वहीं सामाजिक संगठनों ने भी निराश ही किया। स्वस्थ राष्ट्रीय चिंतन वाले नागरिकों के निर्माण की कोई नीति कभी अमल में नहीं आ सकी। स्वतंत्र भारत में भी यदि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को आधार बनाकर नागरिक निर्माण का प्रयास किया गया होता तो सम्भवतः आज का भारत विश्वगुरु की अपनी पुनर्प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुका होता। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद यदि स्वतंत्र भारत की शिक्षा नीति का आधार रहा होता और बुनियादी शिक्षा में भी इस पर जोर दिया गया होता तो आजादी के सत्तर सालों बाद आज भारत का प्रत्येक नागरिक राष्ट्रवाद से ओतप्रोत होता। भारत को टुकड़ों में बाँटने का दुःस्वप्न सँजोये अलगाववादी-आतंकवादी आसुरी शक्तियाँ सिर उठाने का दुस्साहस नहीं कर रही होतीं। 

    सत्तर सालों में भी राष्ट्रगौरव में आत्मगौरव का दर्शन करने वाले बचपन का पोषण नहीं हो पाया। परिणाम सम्मुख है- अपने महापुरुषों के वीरता, त्याग, शौर्य और वलिदान का गुणगान करने के बजाय मानवता को रौंदने वाली देशघाती विचारधारा को महान बताने में भी हम तनिक संकोच नहीं करते। हम ऐसे कबीलाई सभ्यता के क्रूर शासकों को भी महान बताने में तनिक संकोच नहीं करते जिनका इतिहास ही विश्वासघात से भरापूरा व रक्त रंजित रहा हो। आजाद देश के सरकारों की अदूरदर्शी एवं लक्ष्यहीन शिक्षा नीति से आजिज आकर ही संघ के कुछ स्वयंसेवकों ने 1952 में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में पहला सरस्वती शिशु मंदिर स्थापित कर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर आधारिक संस्कारयुक्त, मूल्यपरक शिक्षा प्रणाली विकसित करने का अपना संकल्प धरातल पर उतारा। देश के कोने-कोने में ऐसे हजारों विद्यालयों की एक शृंखला तैयार कर इसके माध्यम से प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में संस्कारवान-राष्ट्रवादी चिंतन वाले नागरिकों का निर्माण हो रहा है। वे पोषित-पालित बालक ही आज बड़े होकर देश-दुनिया के विविध क्षेत्रों में अपनी योग्यता-क्षमता का डंका बजा रहे हैं और भारत का मस्तक गर्व से ऊंचा उठा रहे हैं।

    1986 कि वृहद राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी बाल पोषण की कोई पुख्ता योजना नहीं प्रस्तुत कर सकी। कहा जा सकता है कि यह भी मैकाले की शिक्षा नीति का ही अनुसरण करती हुई रोजगार परक शिक्षा पर ही केंद्रित होकर रह गई। इसने भी राष्ट्रीयता और सांस्कृतिक पहचान से पर्याप्त दूरी बनाए रखी। प्राथमिक स्तर के बच्चों को ककहरा ज्ञान और सामान्य गणितीय ज्ञान तक ही सीमित रखा। उनमें राष्ट्रीयता की भावना भरने, अपने गौरवपूर्ण सांस्कृतिक इतिहास से परिचित कराने और देश की समृद्धि में अपने सक्रिय योगदान के नागरिक दायित्व का बोध कराने  की बजाय शिक्षा के जीविकोपार्जन व रोजगारपरक उद्देश्य पर ही अधिक बल दिया गया। 

    कहा जाता है कि 'बाल्यावस्था कोरे कागज के समान है जिस पर अंकित अक्षर स्पष्ट एवं अमिट होते हैं।' बाल्यावस्था में दिया गया ज्ञान अमिट व शाश्वत होता है। यदि इस अवस्था में बच्चे में राष्ट्रीय दायित्व की भावना भरी जाती है तो वह आजीवन अपने राष्ट्र के प्रति निष्ठावान रहकर राष्ट्र व समाज की उन्नति हेतु समर्पित रहता है। 'बच्चा गीली मिट्टी के समान होता है जिसे गढ़कर आकार देना होता है।' वह एक लोंदे के समान होता है, देश दुनिया से अनजान होता है। उसे संस्कारित करके इच्छानुरूप देवता अथवा दानव का आकार दिया जा सकता है। किन्तु इन सबसे ऊपर 'वह एक उपयोगी पौधा होता है जिसे सींचकर सर्वहितकारी वृक्ष का स्वरूप दिया जा सकता है।' दुर्भाग्य से ये सब बातें किताबी होकर रह गईं और 'राष्ट्र पोषण के लिये बाल पोषण का सिद्धांत' धरा-का-धरा रह गया।

लगभग 34 वर्षों बाद 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के आने से अब एक बार फिर 'बाल पोषण से राष्ट्र पोषण' के स्वप्न सिद्धांत के साकार होने की संभावनाएं प्रबल होने लगी हैं। सरकारों को अब स्वतंत्र भारत के जिम्मेदार नागरिकों के निर्माण का लक्ष्य सामने रखकर साहसी, न्यायी, त्यागपूर्ण व संस्कारयुक्त, समावेशी, समरस समाज की पक्षधर, राष्ट्रीय- सांस्कृतिक गौरव से ओतप्रोत बाल केंद्रित शिक्षा की योजना-रचना करनी होगी।

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