संघ, सीता राम गोएल और जय प्रकाश नारायण – PIPL 1

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संघ, सीता राम गोएल और जय प्रकाश नारायण – PIPL 1

यह लेख वरिष्ठ इतिहासकार सीता राम गोएल की पुस्तक ‘Perversion of India’s Political Parlance’ के अनुवाद का पहला भाग है| इस लेख में श्री सीता राम जी जे. पी. के संघ के साथ पहली भेंट का वर्णन कर रहे हैं| यह पूरी पुस्तक लेखों की एक श्रंखला में प्रस्तुत की जायेगी Indic Varta पर| पढ़ते रहें|

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बात १९५९ की गर्मियों की है| मैं उस समय एक ऐसी संस्था का सचिव था जिसमें श्री जयप्रकाश नारायण भी अध्यक्ष थे| एक दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कार्यकर्ता मेरे ऑफिस में आये| मैं उनसे बड़े समय से परिचित था| उस समय नयी दिल्ली में संघ का एक शिविर लग रहा था| उन्होंने मुझसे कहा कि मैं श्री जय प्रकाश जी से अनुरोध करूँ कि वे भी उस शिविर में पधारें| जे. पी. उस समय शहर में ही थे परन्तु मैं इस बात को लेकर थोडा द्विविधा में पड़ गया| मैं पिछले एक साल से भी अधिक से जे. पी. के साथ काम कर रहा था और मुझे पता था कि उन्हें क्या पसंद है और क्या नहीं| परन्तु उस समय मैंने हामी भर दी कि मैं जे. पी. को भी उस शिविर में आने के लिए कहूँगा|

अगले दिन कुछ ऐसा संयोग हुआ कि जे. पी. मुझे ऑफिस में अकेले मिल गए जो कि बहुत ही दुर्लभ बात थी| मैंने उनके सामने संघ के शिविर में जाने का प्रस्ताव रख दिया| जे. पी. का चेहरा उस समय देखने लायक था| ऐसा लग रहा था कि मानो मैंने उनसे कोई अश्लील बात कर दी हो| वे एक बहुत ही सौम्य पुरुष थे जो शायद ही कभी अपना संयम खोते थे पर तब तो ऐसा लग रहा था मानो क्रोध से फट ही पड़ेंगे| वातावरण में बहुत तनाव सा हो गया| कुछ समय तक हवा में गूंज रहे सन्नाटे को तोड़ने के लिए हम दोनों में से किसी के भी पास शब्द नहीं थे|

आखिरकार जे. पी. बोल ही पड़े: “क्या तुम जानते हो कि तुम क्या कह रहे हो और किससे कह रहे हो?” उनकी आवाज़ में क्रोध का स्वर था|

अब तक मैं स्थिति को थोडा भाँप चुका था| मैं बोला: “मैं जानता था कि आपके लिए यह थोडा आपत्तिजनक हो सकता है पर फिर भी कुछ सोच कर ही मैंने यह प्रस्ताव आपके सम्मुख रखा है|”

जे. पी. भी थोडा शांत हो गए और बोले: “तुम जानते हो कि देश में मेरा एक नाम है और जन सामान्य में मेरी एक पहचान है| तुम्हें मुझसे ऐसी आशा नहीं रखनी चाहिए कि मैं एक ऐसी संस्था से सम्बन्ध रखूं जो कि अपने साम्प्रदायिक, प्रतिक्रियावादी और और पुनरुत्थानवादी चरित्र के लिए जानी जाती हो|”

मैंने कहा: “मैंने आपकी सामाजिक प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए ही आपके सामने यह प्रस्ताव रखा है|”

जे. पी. बोले: “मैं कुछ समझा नहीं| थोडा और स्पष्ट रूप से बताओ|”

मैंने विस्तार से समझाया: “लोग आपके बारे में यह जानते हैं कि आप तथ्य पर आधारित बात करने वाले और नैतिक मूल्यों पर चलने वाले व्यक्ति हैं| मुझे पूरा विश्वास है कि इस प्रकरण में भी आप इन कसौटियों पर खरे उतरेंगे|”

वे बोले: “मैं अपनी समझ से जो हो सकता है वैसा व्यवहार करता हूँ| अगर मुझसे कोई गलती हुई हो तो बताओ|”

मुझे ऐसा लगा कि शायद जे. पी. मेरी बात सुनाने के इक्छुक हैं: “आप अपने ही कुछ लोगों के प्रति अस्प्रश्यता का व्यवहार कर रहे हैं| आप कभी भी संघ के कार्यकर्ताओं से आमने सामने नहीं मिले हैं| आपने उनका मत तो कभी सुना ही नहीं है| पर फिर भी आपने उनके बारे में एक बुरी अवधारणा बना ली है| यह मुझे तो कहीं से तर्कसंगत या फिर न्यायपूर्ण नहीं लगता|”

वे सोचने लगे और मैं बोलता गया: “आप कोई ऐसे नेता नहीं है जो कि केवल सत्ता हथियाने के लिए लोगों को आपस में लडवा दे| आप हमारे देश के लिए एक पिता समान हैं| आप हमारे देश का अन्तःकरण हैं| जहां कहीं भी अन्याय होता है आप उसके विरोध में अपनी आवाज़ उठाते हैं| इसीलिए सभी दलों एवं विचारधाराओं के नेता जैसे कि कांग्रेसी, समाजवादी, साम्यवादी, अकाली, नेशनल कांफ्रेंस आदि के नेता आपके पास आते हैं सलाह लेने के लिए, शिकायत करने के लिए और अपना पक्ष रखने के लिए| अब ऐसा नहीं है कि आप हमेशा उनसे अथवा उनकी बातों से सामंजस्य रखते हों पर फिर भी आप उनकी बात गंभीरता से सुनते हैं और उन्हें अपने अनुसार सलाह भी देते हैं| ऐसा भी नहीं कि वे आपकी बात हर बार मानते ही हों पर फिर भी आप सदैव उनके लिए उपलब्ध रहते हैं| अगर वे कभी आपको आमंत्रित करते हैं तो आप उनकी गोष्ठियों और कार्यक्रमों में आवश्य जाते हैं| केवल संघ के लोगों से ही आप इतनी दूरी बनाकर रखते हैं कि उनके किसी नेता को आपको सीधे आमंत्रित करने के बजाय मुझ जैसे व्यक्ति के द्वारा आना पड़ा| अब आप ही बताइये कि क्या यह अस्प्रश्यता नहीं है?”

मैं बोलता जा रहा था और जे. पी. आँखें बंद करे चिंतन कर रहे थे| ऐसा लग रहा था कि वे किसी अंतर्द्वंद में पड़े हों| मैं बोला: “मैं आपको संघ से कोई सम्बन्ध स्थापित करने को नहीं कह रहा हूँ| उनका भी लक्ष्य आपको किसी जाल में फंसाना नहीं है| आप जैसे व्यक्ति से वे बस इतना चाहते हैं कि आप उनके बारे में अपना मत अपने अनुभव पर आधारित बनाएं ना कि आरएसएस विरोधी और पक्षपाती मीडिया की उल-जलूल गप्पों के ऊपर| हो सकता है कि ऐसा करने से आपको पता लगे कि आप उनके बारे में गलत थे| यह भी हो सकता है कि उनको आपके दिये गए सुझावों से लाभ हो| पर यह तभी हो सकता है कि जब आप उनसे मिलें, उनकी बातें सुनें और खुले रूप में उन्हें बताएं कि आप उनके बारे में क्या सोचते हैं| इस प्रकार से आगे आने वाले समय में आपके और उनके बीच में बहुत रचनात्मक संवाद स्थापित हो सकता है| और अंततः अगर आप उनकी किसी गोष्ठी या शिविर में चले जायेंगे तो आसमान तो आकर टपक नहीं जाएगा| बस मेरे कहना का कुछ इतना ही मतलब था| बाकी निर्णय तो आपका ही है|”

उन्होंने धीरे से अपनी आखें खोलीं और हलकी सी दर्द भरी मुस्कान के साथ बोले: “तुमने तो मुझे बड़ी समस्या में डाल दिया| पर मैं तुम्हारी बात समझ गया और तुम्हारे तर्क को ऐसे ही नहीं टाला जा सकता| सच में मुझपर अस्प्रश्यता का अपराधी हूँ|”

थोड़े विचार के बाद वे बोले: “तुम जीते| मैं संघ के शिविर में आना चाहता हूँ| उनसे समय ले लो और मुझे बता दो| आशा करता हूँ कल उनसे भेंट हो जाए क्योंकि परसों में दिल्ली छोड़ यात्रा पर निकल रहा हूँ|”

[This is the first part of the translation of Sita Ram Goel’s iconic work ‘Perversion of India’s Political Parlance. The entire book is being translated and will be presented at Indic Varta serially.]

[Translated from English into Hindi by Pankaj Saxena.]

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