पूजनीय गुरुजी (श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर) : एक स्मरण

  • Visitor:13
  • Published on: 2025-06-05 08:01 pm

पूजनीय गुरुजी (श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर) : एक स्मरण

जिस प्रकार से आठवीं शताब्दी में आचार्य शंकर ने भारतीय ज्ञान और संस्कृति के उत्थान के लिए एकात्मता का मंत्र लेकर भारत-भ्रमण के दौरान विभिन्न दिशाओं में धर्म, ज्ञान और परंपरा की स्थापना कर भारत की आध्यात्मिक परंपरा को प्रतिफलित किया था उसी प्रकार बीसवीं शताब्दी में सदियों से मुगलों के आक्रमण और अंग्रेजों से त्रस्त सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवस्था एवं इसके आंदोलन की पृष्ठभूमि में भारत के प्रत्येक राज्य और उनके कोने-कोने तक पहुंचकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय संघ प्रमुख (सर संघचालक) पूजनीय श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उर्फ गुरुजी ने सुप्त हिन्दू समाज के जागरण में अपना अमूल्य योगदान दिया।

  • Share on:

“मैं नहीं तू ही तू यह जपकर, जिसने की माँ की परिचर्या।

उस माधव के अनुचर हम नित, काम करें अविराम चलें।।”

जिस प्रकार से आठवीं शताब्दी में आचार्य शंकर ने भारतीय ज्ञान और संस्कृति के उत्थान के लिए एकात्मता का मंत्र लेकर भारत-भ्रमण के दौरान विभिन्न दिशाओं में धर्म, ज्ञान और संस्कृति की स्थापना कर भारत की आध्यात्मिक परंपरा को प्रतिफलित किया था उसी प्रकार बीसवीं शताब्दी में सदियों से मुगलों के आक्रमण और अंग्रेजों से त्रस्त सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवस्था एवं इसके आंदोलन की पृष्ठभूमि में भारत के प्रत्येक राज्य और उनके कोने-कोने तक पहुंचकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय संघ प्रमुख (सरसंघचालक) पूजनीय श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर, जिन्हें प्यार से श्रीगुरुजी कहते हैं, ने सुप्त हिन्दू समाज के जागरण में अपना अमूल्य योगदान दिया।  

       राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 27 सितंबर, 1925 में महाराष्ट्र के नागपुर जिले में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवर (डॉ. साहब) के नेतृत्व में हुई। वह भी कुछ-एक बाल स्वयंसेवकों को एकत्रित कर उनके साथ खेलकूद और सामान्य परिचर्चा के साथ। उस समय उच्च शिक्षा प्राप्त डॉ. साहब और उनके गतिविधियों का जब समाज को आभास हुआ तो उनके हास्य-व्यंग्य की सीमा नहीं रही। जैसा कि देश व समाज के उत्थान हेतु किसी भी श्रेष्ठ कार्य को उपहास, विरोध और प्रशंसा से गुजरना होता है, संघ को भी इन विषम परिस्थितियों से गुजरना स्वाभाविक था। संघ स्थापना के पंद्रह वर्षों तक डॉ. साहब ने संघ का कुशल नेतृत्व किया और फिर गुरु जी का आगमन हुआ।

       श्रीगुरुजी का जन्म 19 फरवरी, 1906 को महाराष्ट्र के नागपुर के पास रामटेक में हुआ था। वे अपनी माता श्रीमती लक्ष्मीबाई और पिता श्री सदाशिव राव के नौ संतानों में जीवित एकलौते चौथे सुपुत्र थे। उनके घर का नाम माधव था और प्यार से लोग उन्हें मधु कहते थे। बालक मधु में कुशाग्र बुद्धि, ज्ञान की लालसा, असामान्य स्मरण शक्ति जैसे गुणों का समुच्चय बचपन से ही विद्यमान था। उन्हें खेलकुद, व्यायाम, संगीत, बाँसुरी, सितार वादन आदि में अच्छी प्रवीणता हासिल थी। उनकी अन्य कई भाषाओं के अलावा मराठी, हिन्दी व अंग्रेजी भाषा में बड़ी अच्छी पकड़ थी।

1924 में उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और वहाँ प्राणी विज्ञान के अध्ययन के साथ-साथ संस्कृत महाकाव्यों, पाश्चात्य दर्शनों, श्रीरामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद की ओजपूर्ण एवं प्रेरक ‘विचार संपदा’, विभिन्न उपासना पंथों के ग्रंथों का सुरुचिपूर्ण अध्ययन किया और अध्यात्म के प्रति अनन्य जुड़ाव महसूस किया। जब डॉ. साहब ने अपना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक कार्यक्रम बनारस में रखा था तो उनके विचार से श्रीगुरुजी बहुत प्रभावित हुए। 1929 में उन्हें अभाववश अपने शोधकार्य को छोड़कर नागपुर आना पड़ा। 1931 में गुरुजी पुनः बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी आए और कई प्रकार की जिम्मेदारियों के साथ वे अपने छात्रों व मित्रों को अंग्रेजी, अर्थशास्त्र, गणित और दर्शन पढ़ाने के लिए तत्पर रहते थे। दूसरों की सहायता के लिए सदैव उपस्थित रहने वाले श्रीगुरुजी के वेतन का अधिकांश भाग होनहार छात्रों व मित्रों के फीस भरने, उनकी पुस्तक खरीदने में व्यय हो जाते थे।   

यहाँ श्रीगुरुजी, डॉ. साहब के द्वारा नागपुर से भेजे गए स्वयंसेवक भैयाजी दाणी के संपर्क में आए और उनसे प्राप्त कुछ दायित्वों का निर्वहन भी किया। 1937 में वे नागपुर आए और डॉ. साहब का सान्निध्य प्राप्त हुआ। उन्हें डॉ. साहब में अत्यंत प्रेरणादायी राष्ट्र समर्पित व्यक्तित्व दिखाई दिया। इसे देखते हुए उन्होंने कहा ‘मेरा रुझान राष्ट्र के संगठन कार्य की ओर प्रारम्भ से है। यह कार्य संघ में रहकर अधिक प्रामाणिकता से मैं कर सकूँगा, ऐसा मेरा विश्वास है। इसलिए मैंने संघ-कार्य में ही स्वयं को समर्पित कर दिया। मुझे लगता है स्वामी विवेकानन्द के तत्वज्ञान और कार्यपद्धति से मेरा यह आचरण सर्वथा सुसंगत है।’ इस प्रकार आध्यात्मिक दृष्टिकोण व डॉ. साहब के व्यक्तित्व से प्रभावित गुरुजी ने सांसारिक मोह-माया से दूर आजीवन अपना सर्वस्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समर्पित कर दिया।

डॉ. साहब ने अपने गिरते स्वास्थ्य को देखते हुए 13 अगस्त, 1939 को रक्षाबंधन के अवसर पर श्रीगुरुजी को सरकार्यवाह के रूप में नियुक्त किया था। कुछ समय बाद जब डॉ. साहब का स्वास्थ्य कमजोर हो गया तो उन्होंने गुरुजी से कहा “इससे पहले की तुम मेरे शरीर को डॉक्टरों के हवाले करो, मैं तुमसे कहना चाहता हूँ कि अब से संगठन को चलाने की पूरी जिम्मेदारी तुम्हारी होगी।” और शोक के 13 दिनों बाद 3 जुलाई 1940 को हेडगेवर की इस इच्छा को सार्वजनिक रूप से घोषित कर दिया गया।  

संघ का सपूर्ण नेतृत्व गुरुजी के हाथ में आ गया। देश की परिस्थितियां गंभीर थी। 16 अगस्त 1946 को मो. आली जिन्नाह ने सीधी कार्यवाही के नाते हिन्दू हत्या का तांडव मचा दिया था। तुष्टीकरण के कारण कॉंग्रेस अखंड भारत का सपना छोड़ चुका था, परंतु श्रीगुरुजी ने अपने प्रत्येक भाषण में देश विभाजन के खिलाफ डटकर खड़े रहने का लोगों से लगातार आह्वान कर रहे। नेहरू ने विभाजन प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया था और 3 जून 1947 को इसकी घोषणा भी कर दी थी। ऐसे समय में संघ के स्वयंसेवकों ने पाकिस्तान वाले भाग से हिंदुओं को सुरक्षित भारत भेजना शुरू किया। संघ का निर्णय था कि जब तक आखिरी हिन्दू सुरक्षित तरीके से भारत न आ जाए तब तक इस कार्य में लगे रहना है। इस भीषण समय में स्वयंसेवकों का अतुलनीय पराक्रम, त्याग और बलिदान की गाथा भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से लिखने लायक है। श्री गुरूजी भी इस कठिन परिस्थितियों में भारत के उस भाग में घूमते रहे जिसे बाद में पाकिस्तान बना दिया गया।

देश विभाजन के बाद भारत के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने जम्मू-कश्मीर रियासत के दीवान मेहरचन्द महाजन से भारत के साथ विलय के लिए कश्मीर-नरेश श्री हरि सिंह को तैयार करने का आग्रह किया था। श्री मेहरचन्द ने श्रीगुरुजी को संदेश भेजा कि वे श्री हरी सिंह से मिलकर इस विषय पर बात करे। श्रीगुरुजी 17 अक्तूबर, 1947 को विमान से श्रीनगर पहुँचे। श्री हरी सिंह का कहना था कि मेरी रियासत पूरी तरह से पाकिस्तान पर निर्भर है। हमारे सभी रास्ते सियालकोट तथा रावलपिण्डी की ओर से है। फिर श्रीगुरुजी ने समझाया - आप एक हिन्दू राजा हैं। पाकिस्तान में विलय करने से आपकी हिन्दू प्रजा पर संकट छा जाएगी। यह ठीक है कि अभी भारत से रेल और हवाई मार्ग का कोई सम्पर्क नहीं है, किन्तु इन सबका प्रबन्ध शीघ्र हो सकता है। आपका और जम्मू-कश्मीर का हित इसी में है कि आप भारत के साथ मिल जाएं। श्री मेहरचन्द ने श्री हरी सिंह से कहा कि गुरुजी ठीक कह रहे हैं। आपको भारत के साथ मिल जाना चाहिए। इस प्रकार जम्मू-कश्मीर के विलय में श्रीगुरुजी का अमूल्य योगदान है।

इधर श्रीगुरुजी के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत के विभाजन और विलय की त्रासदी से बाहर आया ही था कि उनपर गांधी की हत्या का न केवल आरोप लगा, बल्कि स्वयंसेवकों की गिरफ़्तारी के साथ कठोर प्रतिबंध भी लगा दिया गया। गुरुजी भी को भी जेल हुई। जेल में रहते हुए उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से सरकार को मुंहतोड़ जवाब दिया। सरकार संघ पर आरोप सिद्ध नहीं कर सकी। गृहमंत्री पटेल जी ने 9 दिसम्बर, 1948 को नेहरू को भेजे अपने पत्र में कहा कि ‘गांधी हत्या-काण्ड में मैंने स्वयं अपना ध्यान लगाकर पूरी जानकारी प्राप्त की है। उस से जुड़े हुए सभी अपराधी लोग पकड़ में आ गए हैं, परंतु उनमें एक भी व्यक्ति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नहीं है।’ अंत में संघ को इस आरोप से मुक्त करते हुए लिखित संविधान का आदेश देकर प्रतिबंध हटा लिया गया।

       1962 में चीनी आक्रमण के दौरान भी गुरुजी ने अपनी दूरदर्शिता से देश को आगाह किया। 1963 के गणतंत्र दिवस के अवसर पर तमाम विरोधों के बावजूद पथसंचलन हेतु संघ के स्वयंसेवकों को आमंत्रित किया गया था। इस कार्यक्रम में तीन हजार से अधिक गणवेषधारी स्वयंसेवकों ने घोष और ताल के साथ अपना प्रदर्शन किया। श्रीगुरुजी के नेतृत्व में इन सम-विषम परिस्थितियों के सफल संचालन से देशभर में संघ की प्रतिष्ठा आसमान छूने लगी थी और गुरुजी द्वारा देशभर में प्रज्वलित दीपक दीप्तिमान हो उठा था।

       श्रीगुरु जी 1940 से 1973 तक संघ प्रमुख रहे। उनकी रूचि राजनीति में नहीं थी। उन्होंने संघ की सैद्धांतिकी को शाखा के माध्यम से घर-घर तक पहुंचाया। यह उनका ही नेतृत्व था जिसमें संघ ने अपना लिखित संविधान बनाया और अपनी शाखाओं को स्थानीय इकाइयों से बाहर विस्तार किया। उनके नेतृत्व में संघ के विभिन्न अनुसांगिक संगठनों का निर्माण व विकास हुआ। उदाहरण स्वरूप, राजनीति के लिए जन संघ, छात्रों के लिए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, हिंदू धर्म के लिए विश्व हिंदू परिषद और औद्योगिक मजदूरों के लिए भारतीय मजदूर संघ का गठन हुआ। उनके लेखों और भाषणों का संकलन ‘बंच ऑफ थॉट्स’ संघ की समादृत पुस्तक है। ‘वी ऑर ऑवर नेशनहुड डिफाइंड’ में उन्होंने अपने राष्ट्रीय चिंतन को विस्तार दिया है। उनके ‘बंच ऑफ थॉट्स’ का हिन्दी अनुवाद ‘विचार नवनीत’ नाम से किया गया है।

भारत के ओजस्वी कवि एवं भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी श्रीगुरुजी के साथ 1940 की पहली मुलाकात को याद करते हुए लिखते हैं, “गुरुजी ग्वालियर स्टेशन आए थे। हम लोग उनका स्वागत करने स्टेशन पहुंचे थे। जब मैं वहां पहुंचा तो उन्होंने मुझे ऐसे देखा जैसे वे मुझे पहचानते हों। सच तो यह है कि मुझे पहचानने का कोई कारण नहीं था क्योंकि वह हमारी पहली मुलाकात थी। लेकिन उस मीटिंग का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। उस दिन पहली बार मैंने निश्चय किया कि मुझे राष्ट्र के लिए काम करना है।”

वर्तमान में भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने 2008 में ‘ज्योतिपुंज’ नाम से एक पुस्तक लिखी जिसमें संघ के सोलह प्रमुख व्यक्तियों की जीवनियाँ है जिनका उनके जीवन पर विशेष प्रभाव रहा है। इस पुस्तक में मोदी जी ने गुरुजी की तुलना बुद्ध, मराठा योद्धा शिवाजी और स्वतंत्रा संग्राम के नेता बाल गंगाधर तिलक जैसों से की है। इस पुस्तक में वे गुरुजी को याद करते हुए लिखते हैं कि ‘हम लोग गुरुजी को समझने और उनका विश्लेषण करने में असक्षम हैं। ये पंक्तियां उनके जीवन के सुंदर क्षणों का स्मरण करने का एक विनम्र प्रयास मात्र हैं।’ 

       ऐसी आध्यात्मिक मान्यता है कि संतों के दर्शन मात्र से सांसारिक जीवों का उद्धार हो जाता है। एक सामान्य व्यक्ति भी विषय-वासनाओं से ऊपर उठकर समाज एवं राष्ट्र कल्याण के लिए तत्क्षण समर्पित महसूस करता है। एक व्यष्टि चेतना का समष्टि चेतना में विलय और विस्तार प्राकृतिक रूप से सहज हो जाता है। हमने भी अपने बत्तीस वर्षों की संघ-आयु में इस बात का स्पष्ट अनुभव किया है कि वे प्रचारक व अधिकारी जिन्होंने अपने समय में श्रीगुरुजी का दर्शन व सान्निध्य प्राप्त किया था, उनके जीवन व सम्पूर्ण व्यक्तित्व में अनन्य राष्ट्रप्रेम स्वाभाविक रूप से दिखाई दिया। भारत के ऐसे संतों व महापुरुषों को सादर नमन! यह राष्ट्र उनके प्रति सदैव आभारी रहेगा।  

भारत माता की जय !!


  • 6 min read
  • 0
  • 0