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आज भारत में ही नहीं अपितु समूचे विश्व में प्रायः जो किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति उत्पन्न हुई है वह आचार्य वाचस्पति मिश्र जैसे पूर्वजों द्वारा स्थापित आदर्शों की अवहेलना का ही दुःखद परिणाम हैI आज की पीढ़ी अपनी परम्परा, अपनी संस्कृति एवं अपने परिवार से भी इतनी दूर होती जा रही है कि उसे अपना हित, इष्ट या मुख्य प्रयोजन भी यथार्थ रूप में न कोई समझ पा रहा है न ही कोई कोई समझा पाने की शसक्त भूमिका में स्वयं को समर्थ पा रहा हैI

आचार्य वाचस्पतिमिश्र: व्यक्तित्व एवं कृतित्व

परिचय: जो शास्त्रों का दक्षता के साथ चयन करता है, मात्र शास्त्रों का चयन ही नहीं अपितु चयनित शास्त्रों में उपदिष्ट कर्तव्यों को स्वयम दैनन्दिन व्यवहार में सुप्रतिष्ठित करता है, सामाजिक व्यवहार में शास्त्रों को सक्रीय रूप से प्रतिष्ठित करने के साथ-साथ जो अपने प्रत्येक आचरण को शास्त्र की कसौटी पर कसता है, वास्तव में वही, भारतीय सनातन परम्परा में आचार्य की पदवी प्राप्त करता हैI षडदर्शनकानन-पंचानन श्रीवाचस्पति मिश्र जी ऐसे ही भारतीय आचार्य थेI किसी भी आचार्य के नितांत वैयक्तिक पक्ष, व्यक्तित्व एवं कृतित्व की जब हम चिंता आरम्भ करते हैं तब यदि कोई प्रथम पक्ष उपस्थित होता है तो वह उस आचार्य का साहित्य ही होता हैI किसी भी व्यक्ति का असाधारण धर्म ही उसका व्यक्तित्व होता है तथा उस व्यक्ति का असाधारण धर्म ही उसका कृतित्व माना जाता हैI लोक-परम्परा से यह सुना जाता है कि जब आचार्य श्री का जन्म हुआ तब नाभि-नाल के विच्छेदन के लिए महिला विशेष को बुलाया गयाI आचार्य की पारिवारिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि उस महिला को इस शुभ कार्य के लिए अपेक्षित मानदेय भी दिया जा सकेI फलतः माता ने यह कहते हुए आश्वस्त किया कि, “यह बालक जो कुछ भी प्रथम उपार्जन के रूप में प्राप्त करेगा, वह तुम्हें सादर समर्पित कर दिया जायेगाI” कालान्तर में बाल्यावस्था में आचार्य वाचस्पतिमिश्र का किसी प्रसिद्द राजपंडित से राजसभा में राजा के समक्ष शास्त्रार्थ हुआ जिसमें बालक श्री वाचस्पति मिश्र को विजयश्री प्राप्त हुई तथा राजा से ससम्मान प्राप्त पुष्कल पुरस्कार राशि को इनकी माताश्री ने उस महिला को श्रद्धा के साथ प्रसन्न भाव से समर्पित कर दियाI

      यह तथ्य सर्वविदित है कि भारत में सदियों से मिथिला, प्रखर दार्शनिक मेधा की जन्मस्थली रही हैI दार्शनिक मेधा के इसी प्रदेश से निर्गत विद्वनमणियों के मध्य आचार्य वाचस्पति जैसे विद्वत-शिरोमणि तो दुर्लभ ही होते हैं जिनकी समर्थ लेखनी सभी भारतीय दर्शनों पर सशक्त टिप्पणी करने में अत्यंत सक्षम होI आचार्य मिश्र ने जिस सहज शैली में भारतीय दर्शनों की गंभीर समस्याओं का लौकिक, रोचक एवं व्यवहार-सिद्ध उदाहरणों के माध्यम से समाधान सरसता के साथ अनायास ही किया है, वह इनके साधु-पुरुष-सुलभ-शांत एवं स्थिर स्वभाव एवं सहज तथा प्रखर वैदुष्य का ही परिचायक हैIइनके कृतित्व की गहनता एवं प्रभावशीलता का सहजतया अनुभव अनायास हो जाता है जब सभी दर्शनों के अध्येता, आचार्य वाचस्पति मिश्र को अपने दर्शन-विशेष का मौलिक एवं प्रमाणिक आचार्य मानने में तनिक भी संकोच नहीं करते हैंI सभी दर्शनों में समान अधिकार रखने वाला आचार्य वाचस्पति मिश्र का व्यक्तित्व कितना विशाल एवं उदार था यह इनकी सर्वदर्शन के विद्वानों में समान श्रद्धा एवं पारस्परिक अगाध विश्वास से भली भांति अभिव्यक्त होता हैI 

आचार्य मिश्र की प्रमुख कृतियाँ: आचार्य की प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं-

1- न्यायकणिका (मीमांसा)- आचार्य मंडनमिश्र ने विधि के स्वरूप निर्णय के लिए विधिविवेक नामक ग्रन्थ की रचना कीI इसी पर वाचस्पति मिश्र ने न्यायकणिका नामक व्याख्या ग्रन्थ लिखा हैI 

2- ब्रह्मतत्वसमीक्षा– यह रचना मंडनमिश्र जी की रचना ब्रह्मसिद्धि पर एक सफल टीका हैI

3- तत्वबिंदु– इस पुस्तक में स्फोट सिद्धांत का निराकरण करने हेतु कुमारिल भट्ट के मत को अपनाकर शाब्दबोध प्रक्रिया पर प्रकाश डालने के लिए तत्वबिंदु की रचना कीI

4- न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका- आचार्य ने बौद्ध विद्वानों के ग्रन्थ तत्वसंग्रह के सभी खण्डों का प्रचंड उत्तर देने के लिए वार्तिक पर विशाल ‘न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका’ की रचना कीI इसी के नाम पर सम्पूर्ण न्याय दर्शन जगत आचार्य को टीकाकार या तात्पर्यचार्य के नाम से भी जनता हैI इस टीका का महत्व व गाम्भीर्य इस बात से समझा जा सकता है बाद में महान नैयायिक उदयन आचार्य ने इस पर ‘तात्पर्य परिशुद्धि’ नाम की व्याख्या लिखी हैI

5- न्यायसूचीनिबन्ध (न्याय)- न्यायसूत्रों के उपर यह ग्रन्थ लिखा गया हैI

6- सांख्यतत्वकौमुदी (सांख्य)- यह ग्रन्थ ईश्वरकृष्ण जी सांख्यकारिकाओं पर महत्वपूर्ण और संक्षिप्त व्याख्या हैI

7- तत्ववैशारदी (योग)- यह योग भाष्य के गंभीर भावों, योग में गंभीर प्रमेय, और दार्शनिक पक्ष पर विशेष प्रभाव डालने वाला ग्रन्थ हैI

8- भामती (वेदांत)- ब्रह्मसूत्रों के शांकरभाष्य पर वाचस्पतिमिश्र की भामती टीका विशेष महत्व रखती हैI

इन कृतियों के विषय तथा विवरण: आचार्य श्री का यह व्यक्तित्व इनकी विभिन्न महत्वपूर्ण कृतियों में प्रायः प्रतिफलित होता हैI इनके द्वारा प्रणीत, आचार्य मंडन मिश्र विरचित विधिविवेक की व्याख्या- न्यायकणिका प्रसिद्द हैI आचार्य वाचस्पति मिश्र की सशक्त लेखनी से लिखी गयी यह प्रथम कृति मीमांसादर्शन के ‘विधि’ विषय को प्रकाशित करने वाली हैI इसी प्रकार आचार्य उद्दोतकर भरद्वाज रचित न्यायवार्तिक की व्याख्या न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका आचार्य श्रीवाचस्पति मिश्र की निरुपम कृति द्वारा श्री मिश्र ने, अत्यंत प्राचीन उद्दोतकर की वाणी, जो दिन्नाग आदि अर्वाचीन बौद्धाचार्यों के द्वारा उठाये गये कुर्तक रुपी अंधकार से आच्छादित होकर न्यायदर्शन के तत्वनिर्णय में असमर्थ हो गयी थी, का उद्धार समुचित रूप में कियाI उद्दोतकर भरद्वाज द्वारा न्यायसूत्रों पर लिखित वार्तिक के व्याख्यान के प्रसंग में आचार्य वाचस्पति मिश्र, वार्तिक के मंगल पद्यांश- ‘शमाय शास्त्रं जगतो जगाद’ एक सहज तथा प्रसिद्द प्रश्न पूछते हैं, तद्यथा-

अर्थात इक्कीस प्रकार के सांसारिक दुखों की निवृत्ति स्वरूप ‘शम’ समूचे संसार को सुलभ हो, एतदर्थ महर्षि गौतम ने बिना किसी भेद-भाव के न्याय-शास्त्र का उपदेश समस्त जगत के प्राणियों के लिये करुणा-परवश हो कर दियाI इतनी उदारता के साथ न्याय-शास्त्र की रचना के अनन्तर भी यदि कोई इसके अध्ययन में रुचि नहीं दिखाता है तो इसमें शास्त्र का क्या दोष?

यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि भारतीय परम्परा के अनुसार शास्त्र के अध्ययन में सबका अधिकार नहीं है किन्तु यहाँ गौतम, उद्दोतकर जनसामान्य को यह अधिकार दे रहे हैं तो क्या इस प्रकार अनधिकृत लोगों को न्यायशास्त्र का अध्ययन का अधिकार देने से पाप लगेगा? इस प्रश्न का स्वयम युक्ति-युक्त समाधान प्रस्तुत करते हुए आचार्य वाचस्पति मिश्र अपनी टीका में सुस्पष्ट करते हैं कि विश्वामित्र ने त्रिशंकु से यज्ञ कराया और वशिष्ट ने अक्षमाला से सम्बन्ध स्थापित कियाI इन दोनों की तपस्या का ही प्रभाव था कि इस प्रकार के कर्मों से जन्य इनके पाप नष्ट हो गएI किन्तु इसका तात्पर्य ये नहीं निकलना चाहिए कि सामान्य मानव जिनकी तपस्या कम है, इस प्रकार के निषिद्ध कर्म करने के लिए अधिकृत हैंI अर्थात मुख्य बात शास्त्र के प्रति श्रद्धा तथा मनुष्य की तपस्या है न की उसका जन्म इत्यादिI

          कुछ लोग यह प्रश्न करते हैं कि मुनि गौतम समस्त संसार के दु:खों का नाश करने की दृष्टि से न्याय-शास्त्र की रचना कैसे कर सकते हैं? समस्त संसार के दुःख का नाश असंभव ही नहीं अशक्य भी हैI संसार में कोई भी व्यक्ति समूचे संसार की दृष्टि से कुछ करता हुआ नहीं दीखता हैI फलतः गौतम मुनि भी समस्त संसार के दुःखों का नाश करने के लिए न्यायशास्त्र की रचना में प्रवृत हुए, ऐसी संभावना भी नहीं की जा सकती हैI

   इस संदर्भ में आचार्य वाचस्पति मिश्र ने अत्यंत सहज जिज्ञासा के माध्यम से रोचक तथा प्रेरक प्रसंग प्रस्तुत किया हैI प्रायः सभी चिन्तक एवं आचार्य जब ग्रंथों की रचना करते हैं तब प्रारम्भ में ग्रन्थ के प्रयोजन एवं विषय को बताते हैंI यहाँ हम भली भांति यह भी जानते हैं कि प्रयोजन एवं ग्रन्थ के विषय का ज्ञान जब तक अध्येता को नहीं हो जाता तब तक वह अध्यन में प्रवृत नहीं होता हैI यहाँ यह प्रश्न होता है कि इस स्थिति में अध्येता किसी ग्रन्थ के अध्यन में कैसे प्रवृत होगा क्योंकि प्रयोजन का ज्ञान सम्पूर्ण ग्रन्थ के अध्ययन के बाद ही तत्वतः संभव है तथा अध्ययन में प्रयोजन ज्ञान के बिना प्रवृत्ति संभव नहीं हैI ऐसे में किसी ग्रन्थ का अध्येता, अन्योन्याश्रय दोष होने के कारण कैसे प्रवृत होता है? इस विषम जिज्ञासा का समाधान आचार्य वाचस्पति मिश्र एक लौकिक उदाहरण के माध्यम से देते हुए कहते हैं कि जब कोई रोगी अत्यंत उद्विग्न होकर आतुरता की स्थिति में औषधि की अपेक्षा करता है तब किसी भी व्यक्ति के पास नहीं जाता अपितु वह किसी वैद्य के पास ही जाता है तथा उस वैद्य के निर्देश, उपदेश एवं औषधि को यथावत अविलम्ब स्वीकार करता हुआ प्रायः कुछ समय के अनन्तर स्वास्थ्य लाभ कर ही लेता हैI ठीक उसी प्रकार परम पुरुषार्थ को प्राप्त करने की उत्कट अभिलाषा के साथ जब कोई सांसारिक दुःखों से विह्वल होकर उस दार्शनिक के निर्देश, उपदेश एवं शास्त्राध्ययन रूप उपाय को तत्काल स्वीकार कर अध्ययन में प्रवृत्त हो यथासमय सांसारिक दुःखों से मुक्त होकर परम पुरुषार्थ को प्राप्त कर लेता हैI

   आचार्य वाचस्पति मिश्र का व्यक्तित्व आरम्भ से लेकर अंत तक विनय के भाव से ओत-प्रोत था, तभी तो आचार्य मंडनमिश्र की कृति विधिविवेक में तथा आचार्य शंकर की कृति शंकरभाष्य में अपनी कृति न्यायकणिका एवं भामती के प्रवेश को आचार्य वाचस्पति मिश्र, गंगा के प्रवाह में गलियों के पानी के प्रवेश जैसा मान रहे हैं तथा जैसे पवित्र गंगा के प्रवाह में नगर-वीथियों का अपवित्र जल मिलकर गंगाजल जैसा ही पवित्र हो जाता है, उसी तरह अपनी कृति की सार्थकता आचार्य-कृति में प्रवेश के कारण ही, यह सविनय स्वीकार कर रहे हैंI वास्तव में कोई भी चिंतक या लेखक जब ग्रन्थ रचना में प्रवृत्त होता है तो ग्रन्थ का एक निश्चित प्रारूप उसके मस्तिष्क में तैयार होता हैI ऐसी भावनात्मक स्थिति में वह ग्रन्थ-रचना में सहायक प्रत्येक उस पक्ष का स्मरण करता है जिसका योगदान उसके जीवन को इस योग्य बनाने में अनिवार्य रूप से होता हैI इस क्रम में, हम आप भी गम्भीरता पूर्वक निष्पक्ष भाव से सोचें तो सर्वप्रथम स्थान अपने इष्ट या ईश्वर का आता हैI दूसरा स्थान निश्चित रूप से गुरु का होता है तथा तीसरे क्रम में ग्रन्थ का उल्लेख अनुबंधचतुष्टय आदि के संदर्भ में ही होता हैI इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हमारी भारतीय परम्परा में किसी भी आचार्य के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के परिक्षण का निकष ही यह आरंभिक अंश होता है जहाँ अध्येता को लेखक के भीतर निगूढ़ व्यक्ति का साक्षात्कार होता है तथा कृतिकार के मस्तिष्क में साकार, कृति के भाव का सूत्र भी साथ ही करगत होता हैI आचार्य वाचस्पति मिश्र के विभिन्न ग्रन्थ-रत्नों का सिंहावलोकन करने से यह भी विदित होता है कि आचार्य के इष्ट आराध्य भगवान शंकर थेI भगवान शंकर की जो मूर्ति इन्हें प्रिय थी वह अष्टमूर्ति ही थीI

             आज भारत में ही नहीं अपितु समूचे विश्व में प्रायः जो किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति उत्पन्न हुई है वह आचार्य वाचस्पति मिश्र जैसे पूर्वजों द्वारा स्थापित आदर्शों की अवहेलना का ही दुःखद परिणाम हैI आज की पीढ़ी अपनी परम्परा, अपनी संस्कृति एवं अपने परिवार से भी इतनी दूर होती जा रही है कि उसे अपना हित, इष्ट या मुख्य प्रयोजन भी यथार्थ रूप में न कोई समझ पा रहा है न ही कोई कोई समझा पाने की शसक्त भूमिका में स्वयं को समर्थ पा रहा हैI भारतीय परम्परा से साक्षात् सम्बन्ध होने के कारण हमारा यह पुनीत दायित्व है कि हम संसार के लोगों को भारतीय आचार्यों के उस अवदात चरित से परिचित कराएँ जिसके कारण भारतीय मानव अन्य मानवों से अनायास ही अलग हो जाता है, क्योंकि यहाँ मनुष्यके जीवन की सार्थकता अंततः तत्वज्ञान से होती हैI यह तत्वज्ञान या सत्य-ज्ञान जो परम पुरुषार्थ मोक्ष रूप है, धर्म, अर्थ एवं काम रूप तीन पुरुषार्थों की सिद्धि से प्राप्त होता हैI परम्परा के अनुसार मनुष्य जन्म लेकर आरम्भ से ही धर्माचरण में प्रवृत्त होता हैI यह मानव धर्माचरण करता हुआ आनुषंगिक रूप से अर्थार्जन अवश्य करता है परन्तु यह अर्थ विभिन्न प्रकार की ऐहिक कामनाओं की पूर्ति में व्यय नहीं करता है बल्कि इस धन का उपयोग धर्म को पुष्ट करने में ही करता हैI


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