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- Published on: 2025-01-13 05:54 pm
सरस्वती नदी बनाम सत्यनिष्ठ नंदा का ऐतिहासिक माहात्म्य
कथा में सरस्वती नदी और सत्यनिष्ठ नंदा की महिमा का वर्णन है। नंदा, जो एक गाय थी, अपने सत्य और वचनबद्धता से धर्म के प्रतीक के रूप में स्थापित हुई। राजा प्रभंजन द्वारा मृगी के शाप से शापित होकर व्याघ्र रूप में जीते हुए नंदा ने अपनी सत्य निष्ठा का परिचय देते हुए अपने नवजात बछड़े को जीवनोपदेश दिया। उसकी सत्यवाणी से प्रभावित होकर व्याघ्र ने उसे छोड़ दिया और राजा प्रभंजन पुनः राजकाज में लौटे। नंदा के धर्मनिष्ठ कार्यों से प्रभावित होकर सरस्वती नदी को 'नंदा' नाम से जाना गया, जो अब पुण्य और सुख का प्रतीक है।
भूमिका
प्राचीन काल के अत्यंत पवित्र नदी सरस्वती को नंदा नदी के नाम से भी जाना जाता है। प्राक् कालीन नंदा गौवंश में एक तेजस्विनि गाय थी जिसका व्यक्तित्व मानवजाति के लिए प्रेरणादायी है। गौ नंदा के गुण और माहात्म्य का मार्मिक व सजल चित्रण गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित पद्म पुराण (संक्षिप्त) के पृष्ठ संख्या 69-77 में दिया गया है। नंदा की सत्यनिष्ठा एवं वचनबद्धता से साक्षात् धर्म भी अभिभूत होकर वरदान देते हैं। क्योंकि अकस्मात व्याघ्र के सामने नंदा के प्राण संकट में पड़ जाने पर वह उनसे पुनः वापस आने का शपथ लेती है और अपने उद्देश्य की पूर्ति के बाद किसी की बातों से भ्रमित हुए बिना सत्यपथ पर चलते हुए अपने प्राण की आहुति देने व्याघ्र के पास पहुँच जाती है। यह कथा सूतजी के कथावाचन के क्रम में देवव्रत भीष्म और पुलस्त्यजी के संवाद के माध्यम से बताया गया है। भीष्मजी के शंकाओं का पुलस्त्यजी निवारण करते हैं, जो इस प्रकार है:
शापित राजा प्रभंजन का व्याघ्र रूप और नंदा का शपथ
एक समय प्रभंजन नामक महाबली राजा वन में शिकार करते समय एक मृगी पर तीक्ष्ण बाण चला दिया जो अपने बच्चे को सिर नीचे कर दूध पिला रही थी। अपने सामने राजा को खड़ा देख मृगी बोली “ओ मूढ़! यह तूने क्या किया? तुम्हारा यह कर्म पापपूर्ण है। मैं यहाँ नीचे मुंह किए खड़ी थी और निर्भय होकर बच्चे को दूध पिला रही थी। इसी अवस्था में तूने इस वन के भीतर मुझ निरपराध हरिणी को अपने वज्र के समान बाण का निशाना बनाया है। तेरी बुद्धि बड़ी खोटी है, इसलिए तू कच्चा मांस खानेवाला पशु की योनि में पड़ेगा। इस कंटकाकीर्ण वन में तू व्याघ्र हो जा।” (मृगी के शाप से शापित राजा अपने उद्धार की बात जब मृगी से किया तो उन्होंने सौ वर्ष पश्चात ‘नंदा’ नामक गौ से शाप का अंत बताया।)
काल के वशीभूत होकर राजा प्रभंजन व्याघ्र बनकर वन में शिकार करते हुए स्वयं की नींदा करते और ऐसे पाप कर्मों को नहीं करने का बार-बार शपथ लेता। इस प्रकार सौ वर्ष बीत जाने पर उस स्थान पर अन्य गायों के साथ नंदा नामक गौ आयी। व्याघ्र को देखकर उसे चंद्रमा के समान कांतिवाले बछड़े की याद आने लगी और वह जोर-जोर से हुंकार भरने लगी। व्याघ्र ने जब उससे रोने का कारण पूछा तो वह बोली ‘व्याघ्र! तुम्हें नमस्कार है, मेरा सारा अपराध क्षमा करो। मैं जानती हूँ तुम्हारे पास आए हुए प्राणी की रक्षा असंभव है; अतः मैं अपने जीवन के लिए शोक नहीं करती। मृत्यु तो मेरी एक-न-एक दिन होगी ही। किन्तु, मृगराज! अभी नई अवस्था में मैंने एक बछड़े को जन्म दिया है। पहली बियान का बच्चा होने के कारण वह मुझे बहुत ही प्रिय है। मेरा बच्चा अभी दूध पीकर ही जीवन चलाता है। उसी के लिए मुझे बारम्बार शोक हो रहा है। मेरे न रहने पर मेरा बच्चा कैसे जीवन धारण करेगा? मैं पुत्र स्नेह के वशीभूत हो रही हूँ और उसे दूध पिलाना चाहती हूँ। बछड़े को पिलाकर प्यार से उसका मस्तक चटूँगी और उसे हिताहित की जानकारी के लिए कुछ उपदेश करूंगी; फिर अपनी सखियों की देखरेख में उसे सौंपकर तुम्हारे पास लौट आऊँगी। उसके बाद तुम इच्छानुसार मुझे खा लेना।’…मैं शपथ पूर्वक यह बात कहती हूँ। यदि तुम्हें विश्वास हो तो मुझे छोड़ दो। यदि मैं पुनः लौटकर न आऊँ तो मुझे वही पाप लगे, जो ब्राह्मण तथा माता-पिता का वध करने से होता है। व्याधों, म्लेच्छों और जहर देनेवालों को जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे। जो गोशाला में विघ्न डालते हैं, सोते हुए प्राणी को मारते हैं तथा जो एक बार अपनी कन्या का दान करके फिर उसे दूसरे को देना चाहते हैं, उन्हें जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे। जो अयोग्य बैलों से भारी बोझ उठवाता है, उसको लगनेवाला पाप मुझे भी लगे। जो कथा होते समय विघ्न डालता है और जिसके घरपर आया हुआ मित्र निराश लौट जाता है, उसको जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे, यदि मैं पुनः लौटकर न आऊँ। इन भयंकर पातकों के भय से मैं अवश्य आऊँगी।'
व्याघ्र का शपथ भंग चेतावनी और नंदा की घर वापसी
नन्दा की ये शपथें सुनकर व्याघ्र को उसपर विश्वास हो गया। वह बोला- "गाय ! तुम्हारी इन शपथों से मुझे विश्वास हो गया है। पर कुछ लोग तुमसे यह भी कहेंगे कि 'स्त्रीके साथ हास-परिहास में, विवाह में, गौ को संकट से बचाने में तथा प्राण-संकट उपस्थित होनेपर जो शपथ की जाती है, उसकी उपेक्षा से पाप नहीं लगता।' किन्तु तुम इन बातों पर विश्वास न करना। इस संसार में कितने ही ऐसे नास्तिक हैं, जो मूर्ख होते हुए भी अपने को पण्डित समझते हैं; वे तुम्हारी बुद्धि को क्षणभर में भ्रम में डाल देंगे। जिनके चित्तपर अज्ञान का परदा पड़ा रहता है, वे क्षुद्र मनुष्य कुतर्कपूर्ण युक्तियों और दृष्टान्तों से दूसरों को मोह में डाल देते हैं। इसलिये तुम्हारी बुद्धि में यह बात नहीं आनी चाहिये कि मैंने शपथों द्वारा व्याघ्र को ठग लिया। तुमने ही मुझे धर्म का सारा मार्ग दिखाया है; अतः इस समय तुम्हारी जैसी इच्छा हो, करो।"
नन्दा बोली- साधो ! तुम्हारा कथन ठीक है, तुम्हें कौन ठग सकता है। जो दूसरों को ठगना चाहता है, वह तो अपने आप को ही ठगता है।
यह कहकर नंदा शोक के समुद्र में डूबकर बारम्बार डंकराती रोती हुई अपने बछड़े के पास पहुंची। माता को निकट पाकर बछड़े ने शंकित होकर पूछा- 'माँ! [आज क्या हो गया है?] मैं तुम्हें प्रसन्न नहीं देखता, तुम्हारे हृदय में शान्ति नहीं दिखायी देती। तुम्हारी दृष्टि में भी व्यग्रता है, आज तुम अत्यन्त डरी हुई दीख पड़ती हो।'
नन्दा बोली - बेटा ! स्तनपान करो, यह हमलोगों की अन्तिम भेंट है; मैं शपथ करके यहाँ आयी हूँ। भूख से पीड़ित बाघ को मुझे अपना जीवन अर्पण करना है।
बछड़ा बोला- माँ ! तुम जहाँ जाना चाहती हो; वहाँ मैं भी चलूँगा। तुम्हारे साथ मेरा भी मर जाना ही अच्छा है। क्योंकि माता के समान रक्षक, माता के समान आश्रय, माता के समान स्नेह, माता के समान सुख तथा माता के समान देवता इहलोक और परलोक में भी नहीं है। यह ब्रह्माजी का स्थापित किया हुआ परम धर्म है। जो पुत्र इसका पालन करते हैं, उन्हें उत्तम गति प्राप्त होती है।
गौ नंदा का अपने बच्चे के लिए जीवनोपदेश
नन्दा ने कहा- बेटा! मेरी ही मृत्यु नियत है, तुम वहाँ न आना। दूसरे की मृत्यु के साथ अन्य जीवों की मृत्यु नहीं होती। मेरे वचनों का पालन करते हुए यहीं रहो, यही मेरी सबसे बड़ी शुश्रूषा है। जल के समीप अथवा वन में विचरते हुए कभी प्रमाद न करना; प्रमाद से समस्त प्राणी नष्ट हो जाते हैं। लोभवश कभी ऐसी घास को चरने के लिये न जाना, जो किसी दुर्गम स्थान में उगी हो; क्योंकि लोभ से इहलोक और परलोक में भी सबका विनाश हो जाता है। लोभ से मोहित होकर लोग समुद्र में, घोर वन में तथा दुर्गम स्थानों में भी प्रवेश कर जाते हैं। लोभ के कारण विद्वान् पुरुष भी भयंकर पाप कर बैठता है। लोभ, प्रमाद तथा हर एक के प्रति विश्वास कर लेना-इन तीन कारणों से जगत् का नाश होता है; अतः इन तीनों दोषों का परित्याग करना चाहिये। बेटा ! सम्पूर्ण शिकारी जीवों से तथा म्लेच्छ और चोर आदि के द्वारा संकट प्राप्त होने पर सदा प्रयत्नपूर्वक अपने शरीर की रक्षा करनी चाहिये। पापयोनि वाले पशु-पक्षी अपने साथ एक स्थानपर निवास करते हों, तो भी उनके विपरीत चित्त का सहसा पता नहीं लगता। नखवाले जीवों का, नदियों का, सींगवाले पशुओं का, शस्त्र धारण करनेवालों का, स्त्रियों का तथा दूतों का कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। जिसपर पहले कभी विश्वास नहीं किया गया हो, ऐसे पुरुष पर तो विश्वास करे ही नहीं, जिसपर विश्वास जम गया हो, उसपर भी अत्यन्त विश्वास न करे, क्योंकि अविश्वसनीय पर विश्वास करने से जो भय उत्पन्न होता है, वह विश्वास करनेवाले का समूल नाश कर डालता है। औरों की तो बात ही क्या है, अपने शरीर का भी विश्वास नहीं करना चाहिये। भीरु स्वभाव वाले बालक का भी विश्वास न करे; क्योंकि बालक डराने-धमकाने पर प्रमादवश गुप्त बात भी दूसरों को बता सकते हैं। सर्वत्र और सदा सूंघते हुए ही चलना चाहिये; क्योंकि गन्ध से ही गौएँ भली-बुरी वस्तु की परख कर पाती हैं। भयंकर वन में कभी अकेला न रहे। सदा धर्मका ही चिन्तन करे। मेरी मृत्यु से तुम्हें घबराना नहीं चाहिये; क्योंकि एक-न-एक दिन सबकी मृत्यु निश्चित है। जैसे कोई पथिक छाया का आश्रय लेकर बैठ जाता है और विश्राम करके फिर वहाँ से चल देता है, उसी प्रकार प्राणियों का समागम होता है। बेटा! तुम शोक छोड़कर मेरे वचनों का पालन करो।
नंदा का स्वजनों के समक्ष अडिग सत्यपथ
तदनन्तर नंदा अपनी माता, सखियों तथा गोपियों के पास जाकर अपना सारा हाल सुनायी और क्षमा याचना करते हुए बच्चे के देखभाल का दायित्व उन्हें सौंपी।
नन्दा की बात सुनकर उसकी माता और सखियों को बड़ा दुःख हुआ। वे अत्यन्त आश्चर्य और विषाद में पड़कर बोलीं- 'अहो ! यह बड़े आश्चर्य की बात है कि व्याघ्र के कहने से सत्यवादिनी नन्दा पुनः उस भयंकर स्थान में प्रवेश करना चाहती है। शपथ और सत्य के आश्रय से शत्रु को धोखा दे अपने ऊपर आये हुए महान् भय का यत्नपूर्वक नाश करना चाहिये। जिस उपाय से आत्मरक्षा हो सके, वही कर्तव्य है। नन्दे ! तुम्हें वहाँ नहीं जाना चाहिये। अपने नन्हे-से शिशु को त्यागकर सत्य के लोभ से जो तू वहाँ जा रही है, यह तुम्हारे द्वारा अधर्म हो रहा है। इस विषय में धर्मवादी ऋषियों ने पहले एक वचन कहा था, वह इस प्रकार है। प्राणसंकट उपस्थित होनेपर शपथों के द्वारा आत्मरक्षा करने में पाप नहीं लगता। जहाँ असत्य बोलने से प्राणियों की प्राणरक्षा होती हो, वहाँ वह असत्य भी सत्य है और सत्य भी असत्य है।'
नन्दा बोली-बहिनो ! दूसरों के प्राण बचाने के लिये मैं भी असत्य कह सकती हूँ। किन्तु अपने लिये-अपने जीवन की रक्षा के लिये मैं किसी तरह झूठ नहीं बोल सकती। जीव अकेले ही गर्भ में आता है, अकेले ही मरता है, अकेले ही उसका पालन-पोषण होता है तथा अकेले ही वह सुख-दुःख भोगता है; अतः मैं सदा सत्य ही बोलूँगी। सत्यपर ही संसार टिका हुआ है, धर्म की स्थिति भी सत्य में ही है। सत्य के कारण ही समुद्र अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता। राजा बलि भगवान् विष्णु को पृथ्वी देकर स्वयं पाताल में चले गये और छल से बाँधे जानेपर भी सत्य पर ही डटे रहे। सत्य अगाध जल से भरा हुआ तीर्थ है, जो उस शुद्ध सत्यमय तीर्थ में स्नान करता है, वह सब पापों से मुक्त होकर परम गति को प्राप्त होता है। एक हजार अश्वमेध यज्ञ और सत्यभाषण- ये दोनों यदि तराजूपर रखे जायँ तो एक हजार अश्वमेध यज्ञों से सत्य का ही पलड़ा भारी रहेगा। वही सत्पुरुषों की वंश-परम्परागत सम्पत्ति है। वह अत्यन्त कठिन होनेपर भी उसका पालन करना अपने हाथ में है।
सखियाँ बोलीं- नन्दे ! तुम सम्पूर्ण देवताओं और दैत्यों के द्वारा नमस्कार करने योग्य हो; क्योंकि तुम परम सत्य का आश्रय लेकर अपने प्राणों का भी त्याग कर रही हो, जिनका त्याग बड़ा ही कठिन है। इस सत्य के प्रभाव से त्रिभुवन में कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है। इस महान् त्याग से हमलोग यही समझती हैं कि तुम्हारा अपने पुत्र के साथ वियोग नहीं होगा। जिस नारी का चित्त कल्याण मार्ग में लगा हुआ है, उसपर कभी आपत्तियाँ नहीं आतीं।
सत्यनिष्ठ नंदा के नाम से व्याघ्र का उद्धार
तदनन्तर गोपियों से मिलकर तथा समस्त गो-समुदाय की परिक्रमा करके वहाँ के देवताओं और वृक्षों से विदा ले नन्दा वहाँ से चल पड़ी और व्याघ्र के पास जा पहुँची जो उसकी प्रतीक्षा में था। उसके साथ उसका बछड़ा भी अत्यन्त वेग से वहाँ आ गया और अपनी माता और व्याघ्र दोनों के आगे खड़ा हो गया। पुत्र को आया देख तथा सामने खड़े हुए मृत्युरूप बाघपर दृष्टि डालकर उस गौ ने कहा- 'मृगराज ! मैं सत्यधर्म का पालन करती हुई तुम्हारे पास आ गयी हूँ; अब मेरे मांस से तुम इच्छानुसार अपनी तृप्ति करो।'
व्याघ्र बोला- गाय ! तुम बड़ी सत्यवादिनी निकली। सत्य का आश्रय लेनेवाले प्राणियों का कभी कोई अमंगल नहीं होता। मैं तुम्हारे भीतर सत्य खोज रहा था, वह मुझे मिल गया। इस सत्य के प्रभाव से मैंने तुम्हें छोड़ दिया; आज से तुम मेरी बहिन हुईं और यह तुम्हारा पुत्र मेरा भानजा हो गया। शुभे ! तुमने अपने आचरण से मुझ महान् पापी को यह उपदेश दिया है कि सत्य पर ही सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित है। सत्य के ही आधारपर धर्म टिका हुआ है। कल्याणी! तृण और लताओं सहित भूमि के वे प्रदेश धन्य हैं, जहाँ तुम निवास करती हो। जो तुम्हारा दूध पीते हैं, वे धन्य हैं, कृतार्थ हैं, उन्होंने ही पुण्य किया है और उन्होंने ही जन्म का फल पाया है। देवताओं ने मेरे सामने यह आदर्श रखा है; गौओं में ऐसा सत्य है, यह देखकर अब मुझे अपने जीवन से अरुचि हो गयी। अब मैं वह कर्म करूँगा, जिसके द्वारा पाप से छुटकारा पा जाऊँ। अबतक मैंने हजारों जीवों को मारा और खाया है। मैं महान् पापी, दुराचारी, निर्दयी और हत्यारा हूँ। पता नहीं, ऐसा दारुण कर्म करके मुझे किन लोकों में जाना पड़ेगा। बहिन ! इस समय मुझे अपने पापों से शुद्ध होने के लिये जैसी तपस्या करनी चाहिये, उसे संक्षेप में बताओ; क्योंकि अब विस्तार पूर्वक सुनने का समय नहीं है।
गाय बोली- भाई बाघ ! विद्वान् पुरुष सत्ययुग में तपकी प्रशंसा करते हैं और त्रेता में ज्ञान तथा उसके सहायक कर्म की। द्वापर में यज्ञों को ही उत्तम बतलाते हैं, किन्तु कलियुग में एकमात्र दान ही श्रेष्ठ माना गया है। सम्पूर्ण दानों में एक ही दान सर्वोत्तम है। वह है- सम्पूर्ण भूतों को अभय-दान। इससे बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है। जो समस्त चराचर प्राणियों को अभय दान देता है, वह सब प्रकार के भय से मुक्त होकर परब्रह्म को प्राप्त होता है। तुम्हें ये सभी बातें ज्ञात हैं, केवल मुझसे पूछ रहे हो।
व्याघ्र ने कहा- पूर्वकाल में मैं एक राजा था; किन्तु एक मृगी के शाप से मुझे बाघ का शरीर धारण करना पड़ा। तब से निरन्तर प्राणियों का वध करते रहने के कारण मैं सारी बातें भूल गयी थीं। इस समय तुम्हारे सम्पर्क और उपदेश से फिर उनका स्मरण हो आया है, तुम भी अपने इस सत्य के प्रभाव से उत्तम गति को प्राप्त होगी। कल्याणी ! तुम्हारा नाम क्या है?
नन्दा बोली- मेरे यूथ के स्वामी का नाम 'नन्द' है; उन्होंने ही मेरा नाम 'नन्दा' रख दिया है।
पुलस्त्यजी कहते हैं – नन्दा का नाम कान में पड़ते ही राजा प्रभंजन शाप से मुक्त हो गये। उन्होंने पुनः बल और रूप से सम्पन्न राजा का शरीर प्राप्त कर लिया। इसी समय सत्यभाषण करनेवाली यशस्विनी नन्दा का दर्शन करने के लिये साक्षात् धर्म वहाँ आये और इस प्रकार बोले- 'नन्दे! मैं धर्म हूँ, तुम्हारी सत्य – वाणी से आकृष्ट होकर यहाँ आया हूँ। तुम मुझसे कोई श्रेष्ठ वर माँग लो।' धर्म के ऐसा कहने पर नन्दा ने यह वर माँगा - 'धर्मराज ! आपकी कृपासे मैं पुत्र सहित उत्तम पद को प्राप्त होऊँ तथा यह स्थान मुनियों को धर्मप्रदान करनेवाला शुभ तीर्थ बन जाय। देवेश्वर ! यह सरस्वती नदी आज से मेरे ही नाम से प्रसिद्ध हो। इसका नाम 'नन्दा' पड़ जाय। आपने वर देने को कहा, इसलिये मैंने यही वर माँगा है।' देवी नन्दा तत्काल ही सत्यवादियों के उत्तम लोक में चली गयी। राजा प्रभंजन ने भी अपने पूर्वोपार्जित राज्य को पा लिया। नन्दा सरस्वती के तट से स्वर्ग को गयी थी, इसलिये विद्वानों ने वहाँ 'सरस्वती' का नाम नन्दा रख दिया। जो मनुष्य वहाँ आते समय सरस्वतीके नामका उच्चारणमात्र कर लेता है, वह जीवनभर सुख पाता है और मृत्यु के पश्चात् देवता होता है। स्नान और जलपान करने से सरस्वती नदी मनुष्यों के लिये स्वर्ग की सीढ़ी बन जाती है। अष्टमी के दिन जो लोग एकाग्रचित्त होकर सरस्वती में स्नान करते हैं, वे मृत्यु के बाद स्वर्ग में पहुँचकर सुख भोगते हुए आनन्दित होते हैं। सरस्वती नदी सदा ही स्त्रियों को सौभाग्य प्रदान करनेवाली है। तृतीया को यदि उसका सेवन किया जाय तो वह विशेष सौभाग्यदायिनी होती है। उस दिन उसके दर्शन से भी मनुष्य को पाप-राशि से छुटकारा मिल जाता है। जो पुरुष उसके जल का स्पर्श करते हैं, उन्हें भी मुनीश्वर समझना चाहिये। वहाँ चाँदी दान करने से मनुष्य रूपवान् होता है। ब्रह्म की पुत्री यह सरस्वती नदी परम पावन और पुण्यसलिला है, यही नंदा नाम से प्रसिद्ध है। फिर जब यह स्वच्छ जल से युक्त हो दक्षिण दिशा की ओर प्रवाहित होती है, तब विपुल या विशाला नाम धारण करती है। वहाँ से कुछ ही दूर आगे जाकर यह पुनः पश्चिम दिशा की ओर मुड़ गयी है। वहाँ से सरस्वती की धारा प्रकट देखी जाती है। नन्दा तीर्थ में स्नान करके यदि मनुष्य सुवर्ण और पृथ्वी आदि का दान करे तो वह महान् अभ्युदयकारी तथा अक्षय फल प्रदान करनेवाला होता है।
निष्कर्ष
उपर्युक्त कथा के श्रवण व वाचन से हमारी दुर्बुद्धि न केवल प्रक्षालित होती है, बल्कि उससे लोक-व्यवहार का स्वर्णिम मार्ग भी प्रशस्त होता है। असावधानी पूर्वक राजा प्रभंजन द्वारा मृग के शिकार से शापित हो वह सौ वर्षों तक अपने अपराधबोध का पश्चाताप् करता है। तब कहीं उसकी मुक्ति के लिए साक्षात् धर्म रूप में अवतरित नंदा गाय के रूप में उसके सामने आती है। स्वयं धर्म रूप में पंच तत्त्वों से आवृत्त गौ नंदा भयानक व्याघ्र से शपथ लेकर अपने नवजात बच्चे को जीवन निर्वाह का उपदेश देती हुई कहती है कि लोभ, प्रमाद तथा हर एक के प्रति विश्वास से जीव सर्वनाश को प्राप्त होता है। इस संसार में हमेशा धर्म का चिंतन करते हुए मृत्यु से कभी नहीं घबराना चाहिए। नंदा अपनी माता व सहेलियों से उसके देखरेख की व्यवस्था करती हुई अपने प्राण न्यौछावर करने उस क्रूर मृगराज के पास आकर अपनी धर्मनिष्ठा, सत्यनिष्ठा, कर्मनिष्ठा का परिचय देती है। व्याघ्र का सत्य जागृत होता है और धर्मों रक्षति रक्षितः के तहत नंदा पूर्णतः सुरक्षित हो जाती है और फिर उससे परिचित होकर वह मृगराज पुनः राजा प्रभंजन बनकर अपने राज-काज की ओर लौट जाता है। नंदा के इन्हीं कार्यों से द्रवीभूत होकर स्वयं धर्म वरदान देकर उनकी मनोकामना पूर्ण करते हैं। सच है कि सत्य का आश्रय लेकर अपने प्राणों का त्याग करने वालों के लिए इस त्रिभुवन में कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है। इस प्रकार, अपने सत्यपथ से अविचलित ‘नंदा’ साक्षात धर्म का प्रतीक बन सरस्वती नदी के नामकरण का पर्याय बन जाती है।
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