Indic Varta

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  • Published on: 2023-12-14
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प्रस्तुत समग्र विश्लेषण से अब यह बात निश्चित है की भारत में ‘इतिहास लेखन विधा’ का प्रचलन था | केवल इस विधा की शैली भिन्न है, इतिहास का अर्थ एवं विचार भिन्न है | यही कारण है कि आधुनिक इतिहास लेखन विधाने भारतीय इतिहास को शास्त्रीय स्थान प्रदान नहीं किया है | किन्तु राष्ट्र का स्वभाव, लोकमानस,चित्त एवं परम्पराओं का विचार करते हुए धर्म के आधार पर लिखी गई नैतिकता की कथाएँ यह भारत का इतिहास है | इसमें मूल्यों के विश्लेषण हेतु स्थान, काल, व्यक्ति एवं घटनाओं का प्रयोजन है | अर्थात ‘इतिहास’ यह भारत की अपनी परम्परा है |

इतिहास की भारतीय अवधारणा

इतिहास अध्ययन एवं संशोधन यह केवल भारत में ही नहीं बल्कि हर राष्ट्र में, हर काल में एक महत्वपूर्ण विषय रहा है| अपनी पहचान, अपना मूल जानने की जिज्ञासा हर समाज में, हर व्यक्ति को रही है और यही इतिहास अध्ययन एवं संशोधन की प्रधान प्रेरणा रही है | हर व्यक्ति, हर समाज, हर राष्ट्रके इतिहास अध्ययन का अपना कुछ दृष्टिकोण होता है; जो उस राष्ट्र की प्रगति एवं राष्ट्र भाव जागरण हेतु आवश्यक है | यही कारण है की हर राष्ट्र में इतिहास लेखन, संरक्षण एवं जागरण को अनन्यसाधारण महत्व दिया गया है | राष्ट्र, परिस्थिति, व्यक्ति, समाज के अनुरूप किया गया इतिहास का अध्ययन ही ‘देश– काल अनुरूप इतिहास’ के रूप में जाना जाता है | इसलिए हर राष्ट्र के लिए अपनी अपनी इतिहास अध्ययन की दृष्टि को समझना और उसीके अनुरूप अध्ययन एवं मार्गक्रमण करना हितकारक होता है |

इस दृष्टि से विचार करते हुए हमें भारत के इतिहास विषयक दृष्टिकोण का अध्ययन करना आवश्यक है | भारत एक अत्यंत विविधताओं से सजा हुआराष्ट्र है | हर कुल की, समाज की, गाँव की, प्रांत की अपने अपने रिवाज, भाषा, जीवनमान इस विभिन्नता को समृद्ध बनाता है | इसी के साथ भारत की वैशिष्ट्यपूर्ण सामाजिक परम्पराएं, सनातन धार्मिक परम्पराएं, तत्वज्ञान और अत्यंत प्रभावशाली राजकीय परम्पराएं इन का अध्ययन होना भी आवश्यक है | भारत के समग्र इतिहास लेखन की दृष्टि इन्हीं विषयों के सघन अध्ययन की दृष्टि है | क्या प्रचलित इतिहास अध्ययन पद्धति भारत के इन सभी बातों का समग्रता से विचार करने में समर्थ है? क्या भारत की इन सभी परम्पराओं का अत्यंत चिकित्सक विश्लेषण आज की इतिहास अध्ययन पद्धति के माध्यम से हुआ है? क्या भारत में प्रस्थापित व्यवस्था विषयक प्रश्नों का उत्तर देने के लिए यह अध्ययन पद्धति सक्षम है? इन सभी प्रश्नों के उत्तर यह भारतीय इतिहास अवधारणा एवं इतिहास अध्ययन पद्धति के विचार से जुड़ें हुए है |

पश्चिमी इतिहास विद्वानों का यह आक्षेप है कि भारत में शास्त्रीय इतिहास लेखन की परम्परा ही नहीं थी | अतः भारत की अपनी इतिहास लेखन एवं अध्ययन पद्धति का विकास संभव नहीं है | यह बात सत्य नहीं | प्रचलित इतिहास अध्ययन पद्धति भारत की समग्रता का विचार करने के लिए सक्षम नहीं है; क्योंकि यह भारत के सभी परम्पराओं का पृथक पृथक रूप में अध्ययन करने का प्रयास कर रही है | प्रत्येक ‘ism’ एक एक छोटी इकाई का अध्ययन कर पूर्ण इकाई को जानने की कोशिश में जुटा हुआ है और यही इस अध्ययन पद्धति का प्रमुख दोष है |

हमने पहले भी कहां है कि इतिहास अध्ययन देशकालमान अनुसार होना आवश्यक है | भारत का स्वभाव समग्रता का है | अतः छोटी इकाई का पृथकता से नहीं; बल्कि समग्रता से अध्ययन करना यह भारत की अपनी अध्ययन पद्धति है | इस का अर्थ ऐसा नहीं की छोटी इकाईयों का अध्ययन स्वतंत्र रूप में नहीं करना है | इतिहास यह समग्र विषय है और बाकी इकाइयाँ इस सम्पूर्ण विषय के अंग है यह दृष्टिकोण इस अध्ययन में आवश्यक है | जैसे शरीर के प्रत्येक अंग का पृथकता से अध्ययन करना आवश्यक है किन्तु शरीर यह सम्पूर्ण इकाई के दृष्टि से प्रत्येक अंग का कार्य जानकार, उस विषय का सुयोग्य पृथक्करण कर अध्ययन आवश्यक है और इसलिए प्रथम ‘शरीर’ यह समग्र व्यवस्था का सघन अध्ययन आवश्यक है | इतिहास की दृष्टि यही है |

इतिहास यह राष्ट्र का स्वभाव है, अन्तस्थ प्राण है | यदि राष्ट्र का स्वभाव जानने में असमर्थता हो तो इस राष्ट्र में निरंतर प्रवाहित रही प्रत्येक परम्परा का स्वभाव जानने में प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक है | अब प्रश्न यह उठता है कि राष्ट्र का स्वभाव निर्माण कैसे होता है?

‘राष्ट्र’ यह विराट इकाई है | हमारे आचार्यों ने जातिधर्म, कुलधर्म इन शब्दों का प्रयोग किया है | यह समाज एवं व्यक्ति के कर्तव्यों से जुड़ें हुए है | यदि व्यक्ति अपने कर्तव्यों के प्रति सजग होकर अपनी उन्नति साध्य करें तो समाज उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ता है | और यही उन्नत सामाजिक परम्पराओं से एक सांस्कृतिक राष्ट्र का निर्माण होता है | अर्थात राष्ट्र तो भिन्न भिन्न सामाजिक समूहों का एकत्रित परिणाम है | अतः राष्ट्र के लिए इन सभी अंतर्भूत समूहों के हित के लिए स्वतंत्र धर्म आधारित नियमों का निर्माण किया जाता है | राष्ट्र का निर्माणयानी उस में समाएँ हुए हर व्यक्ति एवं समाज समूहों के संरक्षण का दायित्व है और इन सभी परम्पराओं में एकत्व की भावना निर्माण कर राष्ट्र की अपनी परम्पराओं का निर्माण होता है | यही सनातन परम्पराएं एवं धर्म का अधिष्ठान राष्ट्र के स्वभाव के रूप में प्रतिपादित किया जाता है | राष्ट्र की इस परम्परा के संवहन में व्यक्ति देश – काल अनुसार अपने कर्तव्य का निर्वहन करता है | चाहे वह राजा हो या समाज का कोई सर्वसाधारण व्यक्ति हो; उसका दायित्व निश्चित होता है | अतः राष्ट्र का इतिहास उस की परम्पराओं का, प्रतिकूल परिस्थिति में व्यक्तियों ने निभाएं हुए अपने स्वधर्म पालन का, राष्ट्र निष्ठा की उन्नति एवं स्खलन का, समाज प्रवाह का एवं परम्पराओं के संवहन में आएं अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थितियों का कथन होता है | अर्थात यह केवल घटनाओं का वर्णन नहीं; अपितु व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के गुण – अवगुणों का वर्णन होता है | घटनाएँ केवल इन गुणों – अवगुणों की साक्षी होने का एक साधन मात्र मानी जाती है | भारत ने इस समग्रता की इतिहास दृष्टि को अपनाया और इतिहास लेखन की अपनी एक परम्परा निर्माण की | इस परम्परा की दृष्टि से भारत के इतिहास का अध्ययन किया जाएं तो पश्चिमी विद्वानों का आक्षेप कितना तथ्यहीन है यह अपने आप सिद्ध हो सकता है |

भारतीय लेखन परम्परा ‘इतिहास’ विषय में अत्यंत विस्तृत चिंतन प्रस्तुत करती है | इतिहास की विभिन्न व्याख्याएं एवं दृष्टांत उपरोक्त वर्णन को समझने में अत्यंत उपयुक्त है | छान्दोग्य उपनिषद् में नारद और सनत्कुमार ऋषियों का संवाद दिया है | नारद; जो देवर्षि है; सभी विद्याओं के ज्ञाता है और फिर भी उनके चित्त में शांति का अनुभव नहीं है | अतः वह सनत्कुमार ऋषियों से प्रश्न कर आत्मशांति की उपासना की पृच्छा कर रहे है | नारद अपने पूर्वज्ञान के विषय में बताते हुए कहते है कि उनको ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद,‘इतिहासपुराण’, गणित और फलित ज्योतिषशास्त्र, निधिशास्त्र, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, निरुक्तशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, श्राद्धकल्प, शिक्षाकल्प, छंद आदि, धनुर्विद्या, भूतविद्या, नक्षत्रविद्या, सर्पदेवजनविद्या इन सभी का भलीभांति ज्ञान है | इस विवरण में ‘इतिहासपुराण’ की संज्ञा आती है | सनत्कुमार ऋषि कहते है –

‘नाम वा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेद आथर्वणश्चतुर्थ इतिहासपुराणः पञ्चमो वेदानां वेदः पित्र्योराशिर्दैवो निधिर्वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्या ब्रह्मविद्या भूतविद्या क्षत्रविद्या नक्षत्रविद्या सर्वदेवजनविद्या नामैवैतन्नामोपास्वेति ||७.१.४||’[1]

अर्थात ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहासपुराण आदि विद्याएँ जो आपने कही वह केवल नाम है | अतः नाम की उपासना करो | जो नाम ब्रह्म की उपासना करता है वह यावत् नाम का विषय होता है |

वह उस विषय में जैसी कामना करता है वैसा ही होता है | अर्थात, विषय का संक्षेप यह है की इतिहासपुराण यह नाम के रूप में जाना गया है | उस विषय की उपासना प्रत्यक्ष विषय में समाहित प्रत्येक उपविषय एवं बिन्दुओं के प्रश्न का उत्तर होती है | सरल भाषा में कहाँ जाएं तो, प्रत्येक विषय का अपना स्वभाव होता है | उस स्वभाव को जानना ही उस विषय की अध्ययन पद्धति को जानना है | हमारा विषय इतिहास के सन्दर्भ में है |

अतः इतिहास विषय का स्वभाव क्या है, उसकी धारणाएँ क्या है, उसके उपविषय क्या है, उसकी कार्य पद्धति क्या है और इन सभी बिन्दुओं को प्रकट करने का उस विषय का अपना माध्यम क्या है इन सभी प्रश्नों का विचार करना आवश्यक है | उपरोक्त दृष्टांत भारतीय इतिहास दृष्टि अधिक स्पष्ट एवं व्यापक बनाता है |

अब यह बात तो प्रस्थापित है कि इतिहास को पुराण कहा गया है | प्रचलित इतिहास दृष्टि ने पुराणों को इतिहास का तथ्य रहित साधन माना है | इस आक्षेप का प्रमुख कारण पुराणों कीलेखन शैली है | कथा अतिरंजित हो सकती है यह आक्षेप यदि मान्य किया जाएं तो भी पुराणों में वर्णित कथाएँ केवल कल्पनाविलास नहीं है |

‘सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च, वंशानुचरितं चेति पुराणं पञ्चलक्षणम् ||१.१||’[2]

कूर्म पुराण में दी गई यह व्याख्या पुराणों के पांच लक्षणों को स्पष्ट करती है | विश्व की उत्पत्ति से लेकर विविध युगों की, ऋषियों की, राजाओं की जानकारी देने वाला साहित्य ‘पुराण’ कहा जाता है | रंजन एवं लोकस्मृति के लिए सरल ऐसी कथा शैली का उपयोग पुराणों में किया गया है | कथाओं का बीज इतिहास का अथवा तत्त्व का है और केवल रंजन हेतु कल्पना का विलास है |अतः पुराणों में केवल तथ्यहीन कथाएँ होने का आक्षेप सत्य नहीं है |

प्रश्न शैली का है तो भारतीय मनीषियों ने भारत के इतिहास लेखन शैली का स्पष्ट विवरण दिया है | श्रीबृहद्भागवतामृत के प्रथम अध्याय में श्लोक है –

‘अत्रेतिहासा बहवो विद्यन्तेsथापि कथ्यते | स्ववृत्तमेवानुसृत्य मोहादावपि सङ्गतम् ||२.१.११०||’

अर्थात (श्री गोपकुमार ने कहा) यद्यपि इस विषय में बहुतसे इतिहास है, तथापि मैं अपना वृत्तान्त ही वर्णन कर रहा हूँ | उसमें से जो कुछ स्वाभाविक रूप में अनुभव हुआ, उस को तो कहूँगा ही, किन्तु जो समस्त विषय मूर्च्छाकी अवस्था में घटित हुए थे, उन सब विषयों को भी स्मरण कर कहूँगा | इतिहास का स्वरुप ‘वृत्त कथनात्मक’ है | उपरोक्त श्लोक के अनुसार गोपकुमार अपना प्रत्यक्ष अनुभव कथन करने की बात तो करते ही है किन्तु जो भावावस्था में, अर्थात प्रेम – मूर्च्छा के समय अति गोपनीय ज्ञान हुआ है वह भी स्मरण कर बतलाने की बात कहते है | इस श्लोक की दार्शनिक टीका में इतिहास के लक्षण स्पष्ट किए है |

‘धर्मार्थकाममोक्षाणां उपदेश समन्वितम् | पुरावृत्तं कथायुक्तं इतिहासं प्रचक्षते ||’

अर्थात इतिहास का स्वरुप धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के उपदेश हेतु ‘प्राचीन काल की कथाओं का कथन’ के रूप में बताया गया है | अतः साध्य – साधन तत्त्व निर्णय के अनुसार इतिहास का स्वरुप ‘पुरावृत्त’ का है | यदि इतिहास की यह दृष्टि निश्चित हो तो पुराणों में वर्णित कथाएँ असत्य नहीं है यह अपने आप सिद्ध हो जाता है |

उदाहरण हेतु श्रीमद्भागवत महापुराण के बारहवें स्कंध में एक श्लोक इतिहास की इस दृष्टि की पुष्टि हेतु दिया जाना उचित होगा | भागवत में कहा है –

‘ये ये भूपतयो राजन् भुञ्जन्ति भुवमोजसा | कालेन ते कृताः सर्वे कथामात्राः कथासु च ||१२.२.४४||’[3]

अर्थात (हे परिक्षित), जिन जिन राजाओं ने इस पृथ्वी का उपभोग लिया, उन सभी को काल की गति ने केवल कथाओं में बचाकर रखा है | दूसरे एक श्लोक में ऋषि कहते है –

‘कथा इमास्ते कथिता महीयसां

विताय लोकेषु यशः परेयुषाम् |

विज्ञानवैराग्यविवक्षया विभो

वचोविभूतीर्न तु पारमार्थ्यम् ||१२.३.१४||

अर्थात, ‘सभी लोकों में यश का विस्तार कर कालवश हुए महान पुरुषों की कथाएँ मैंने तुम्हें कहीं है | ज्ञान और वैराग्य के उपदेश हेतु ही इस वाणी का विलास है | इसमें पारमार्थिक सत्य नहीं |’ अतः इतिहास का हेतु व्यक्ति एवं समाज की उन्नति हेतु किया गया ‘कथारूप धर्माचार वर्णन’ है यह बात विविध व्याख्याओं से सिद्धकी जा सकती है |

भारतीय अध्ययन पद्धति में प्रत्येक विषय का अपना एक अधिष्ठान है | कभी वह धार्मिक है, कभी अध्यात्मिक तो कभी वैज्ञानिक | ज्यादा तर विषयों में इन अधिष्ठानों का एकीकरण भी दिखाई देता है | इतिहास विषय एकीकरण का विषय है | यहाँ श्रद्धा का विषय है, साधना का विषय है, राजकारण का विषय है, समाज का विषय है | व्यक्ति जीवन में घटने वाली प्रत्येक छोटी – बड़ी घटना का, प्रस्थापित एवं प्रस्तावित विचारमूल्यों का, आचार धर्म का, निर्मिती, साहित्य, दिनचर्या का, भाषा का, कपड़ों का ऐसी बहुत सारी बातों का अध्ययन इतिहास में समाहित है | अतः इतिहास को चैतन्य के रूप में माना गया है | इस चैतन्य रूप को हमारे मनीषियों ने विभिन्न पद्धति से हमारे सामने रखा है | इतिहास का महत्व स्पष्ट करते हुए महाभारत के लेखकों ने कहा है –

‘वृत्तं यत्नेन संरक्षेत वृत्तमायाति याति च | अक्षीणो वृत्ततः क्षीणः वृत्त स्तु हतः ||’

अर्थात, इतिहास (वृत्त) की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए | ‘वृत्त’ तो आता जाता रहता है | वित्त के नष्ट होने से कोई नष्ट नहि होता, किन्तु वृत्त (इतिहास) नष्ट होने से व्यक्ति/जाति/ समाज/अथवा राष्ट्र नष्ट हो जाता है |इतिहास को चैतन्य के रूप में देखने कि दृष्टि ही उसकी रक्षा के लिए सजग रहना सिखाती है |

यदि व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र जीवन से चैतन्य नष्ट हो जाता है तो मृतवत जीवन संस्थाएं परम्पराओं का संवहन करने में यशस्वी होना संभव नहीं है |

इस चैतन्य की दृष्टि का एक अप्रतिम उदाहरण ‘इतिहास पुरुष’ की संकल्पना में प्रस्तुत हुआ है |श्रीतत्वनिधि’ में इतिहास पुरुष का वर्णन किया गया है –

‘इतिहास कुशाभासः सूकरास्यो महोदरः | अक्षसूत्रं घटं विभ्रत्पंकजाभरणान्वितः ||

अर्थात, इतिहास कुश (एक प्रकार की घास) जैसा आभासित होने वाला, वराहमुखी और विशाल उदर वाला है | इस (इतिहास पुरुष) ने अक्षमाला धारण की है | एक हाथ में अमृत घट है और सम्पूर्ण शरीर कमल की आभूषणों से विभूषित है | यह शब्दार्थ हुआ |

इस श्लोक का भावार्थ इतिहास की[4] सभी सूत्रों को स्पष्ट करने वाला है | सृष्टि – संवत् का प्रारंभ श्वेतवाराह कल्प से होता है अतः इतिहास पुरुष का मुख शूकर अर्थात वराह का है | यह पुरुष महोदर अर्थात विशाल उदर वाला है | यह काल के विशाल व्यापक स्वरुप का रुपक कहा गया है | कुश का अर्थ एक प्रकार की घास होती है जो पृथ्वी पर अत्यंत बड़े स्वरूप में पाई जाती है | जो इतिहास पृथ्वी के रंग – रूप से सजा हुआ है और इसी से बना हुआ है अतः इतिहास का रूप कुशाभास अर्थात कुश के रंग का कहा गया है | अक्षसूत्र का रूपक बड़ा ही सुन्दर है | अक्ष यह काल का संख्यात्मक निर्देश के लिए उपयोग किया गया शब्द है | दूसरा अर्थ है की अक्ष यह एक कल्पित रेखा है जिस पर पृथ्वी घुमती है | इतिहास यह पृथ्वी के चक्र की मध्य रेखा मानी गई है | इतिहास केवल कल की कथा नहीं है बल्कि आज का निर्देश एवं भविष्य का वचन है यह इतिहास का सूत्र इस इतिहास पुरुष के हाथ में अक्षमाला के रूप से चिह्नित किया गया है | इतिहास पुरुष के दूसरे हाथ में अमृत घट है | यह ज्ञान के दान का रूपक है | अंत में कहा गया है की इतिहास पुरुष का सम्पूर्ण शरीर कमलाभूषणों से विभूषित है | कमल यह सौन्दर्य का तो प्रतिक है ही परन्तु साथ ही विकास का, व्युत्पत्ति का प्रतिक है |इतिहास पुरुष इतिहास के सभी सिद्धांतों एवं नियमों को समाएँ हुए है | इतिहास पुरुष की यह कल्पना भारतीय इतिहास चिंतन का चरमोत्कर्ष है | भारतीय अवधारणा में अध्ययन विषय केवल विषय के रूप में ना रहकर उसे चैतन्य स्वरूप माना गया है |

महाभारत में इतिहास के कुछ सन्दर्भ प्राप्त होते है | यह सन्दर्भ इतिहास का लेखन स्वरुप स्पष्ट करने में सहायता प्रदान करने वाले है | महाभारत के आदिपर्व में कहा गया है –

सभी ऋषि उग्रश्रवा ऋषि से कहते है –

भारतस्येतिहासस्य पुण्यां ग्रन्थार्थसंयुताम् |

संस्कारोपगतां ब्राह्मीं नानाशास्त्रोपवृंहिताम् ||१७||

जनमेजयस्य यां राज्ञो वैशंपायन उक्तवान् |

यथावत्स ऋषिस्तुष्ट्या सत्रे द्वैपायनाज्ञया ||१८||

वेदैश्चतुर्भिः समितां व्यासस्याद्भुतकर्मणः |

संहितां श्रोतुमिच्छामो धर्म्यां पापभयापहाम् ||१९||

अर्थात, ‘महाभारत के इतिहास की पुण्यदायक, अनेक ग्रंथों के अर्थसे युक्त उत्तम संस्कारों से युक्त, ब्रह्म द्वारा कही गई तथा अनेक शास्त्रों के सार से युक्त कथा को राजा जनमेजय के यज्ञ में महर्षि द्वैपायन की आज्ञा से ऋषि वैशम्पायन ने प्रसन्न मन से ठीक ठीक कहकर सुनाया था | अद्भुत कर्म करनेवाले महाराज वेदव्यास की रची हुई उस चारों वेदों से सम्मत, पापभयहारी, धर्म से युक्त संहिता को हम सुनना चाहते है |’

प्रस्तुत सन्दर्भ के अनुसार महाभारत की कथाएँ इतिहास का विषय मानी गई है | महर्षि व्यास द्वारा यह कथाएँ वैशम्पायन ऋषि को कही गई | वैशम्पायन ऋषि द्वारा आगे बताई गई यह कथाएँ उग्रश्रवा ऋषि द्वारा समस्त ऋषियों को बताएं जाने की कथा है | यह कथाएँ कैसी है, उनके लक्षण क्या है इन सभी बातों का प्राथमिक ज्ञान उक्त श्लोकों से हुआ है | इतिहास की कथन परम्पराएं एवं स्वरुप, लक्षण का यह प्रमाण है |

इतिहास लेखन परम्परा का समग्र सन्दर्भ एवं उदाहरण राजतरंगिणी से प्राप्त होता है | यह इतिहास लेखन विधा की प्रगत अवस्था का रूप है | कवी कल्हण द्वारा लिखित राजतरंगिणी यह काश्मीर के राजनैतिक इतिहास के बारें में जानकारी देने वाला विशेष पुस्तक है | यह ग्रन्थ केवल कहने के लिए इतिहास नहीं बल्कि आधुनिक इतिहास लेखन शैली से मेल रखता हुआ भारत का सर्वप्रथम इतिहास ग्रन्थ भी माना जाता है | यद्यपि, यह ग्रन्थ आधुनिक इतिहास लेखन विधा के निकट है तथापि यह भारतीय वंशावली लेखन विधा की दृष्टि से भी आवश्यक शैली एवं लेखन प्रकृति का वस्तुपाठ माना जा सकता है | राजतरंगिणी के हिंदी संस्करण के विज्ञापन में कहां गया है – ‘इतिहास से ही देश का अस्तित्व, गौरव, आचार, प्रकृति, विचार, धर्म आदि जाना जाता है | इतिहास देखकर ही राजा प्रजापालन में उत्तम रूप में समर्थ होता है | मंत्रिवर्ग उदार सम्मति देने की क्षमता रख सकते है | प्रजा निज धर्म में रत होकर अपने कर्तव्य को पहचानने लगती है | इतिहास बिगड़ी अवस्था वालों को बनाने का सोपान है, और बने हुओं के दैदीप्यमान होने का सामान है |’ जैसा की पहले कहां गया था की इतिहास राष्ट्र की अस्मिता का मानदंड है, यही बात इस विश्लेषण से स्पष्ट करने का प्रयास लेखक महोदय ने किया है |

राजतरंगिणी के विषय में कल्हण स्वयं लिखता है – ‘राजाओं के विकास एवं ऱ्हास के समय मेरी कथा देशकाल के अनुसार उनके लिये उत्साह एवं शान्तिवर्धक तुल्य उपयोगी सिद्ध होगी | कौन ऐसा चेतन ह्रदय व्यक्ति होगा जो अनंत व्यवहारों से पूर्ण मेरे इस ग्रन्थ को हृदयंगम नहीं करेगा |’ अनुवादक ग्रन्थकर्ता ने आगे कहां है, ‘उसने अपने समय के लोगों के पठन – पाठन हेतु काव्य लिखा था | जो स्वतः काश्मीर की परम्पराओं, घटनाओं, प्रचलनाओं आदि से परिचित थे | कल्हण ने उनके मार्गदर्शन हेतु अपने विचारों की स्वतंत्र रूप से राजनीतिज्ञ, राजा, जनता, राजन्य वर्ग, कर्मस्थानीय जन,मंत्री, पुरोहित, अमात्य, सचिव सभीके लिए लिखा था | उसे विश्वास था कि उसके इतिहास के पठन – पाठन से भविष्य के राजाओं की परम्परा अच्छी होगी | वे आदर्श राजा होगे | जनता का मनोबल उठेगा |’[5]

कल्हण कृत राजतरंगिणी ग्रन्थ के भूमिका में लेखक ने इतिहास का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘यास्क ने निरुक्त में ‘इति ऐतिहासिका’ कहकर पुरावृत्तियों का स्मरण किया है | वेदों के आख्यानों में ऐतिहासिकता है |

तिथि तथा वर्ष के अभाव में उसकी उपेक्षा कर दी जाती है | प्राचीन काल में ‘ऐतिह्य बुद्धि’ की सत्ता स्वीकार की गई है | वही कालांतर में परिवर्तित होकर इतिहास के रूप में आज वर्तमान है |’ ‘….प्राचीन भारत में इतिवृत्त को रस के अनुकूल परिवृत्त कर काव्य के रूप में प्रथित करने की प्रथा थी | उसके परिणामस्वरुप अनेक ऐतिहासिक नाटक एवं महाकाव्यों की रचना की गई |’

इतिहास के सन्दर्भ में पाएं जाने वाले सभी विश्लेषण इतिहास के रस अनुकूल स्वरुप का स्पष्ट निर्देश करते है | प्रस्तुत अवतरण में ‘तिथि एवं वर्ष का अभाव’ कहाँ गया है | यह लेखन विधा के स्वरुप में है | ‘सन फलाना में यह घटना हुई थी’ ऐसी वाक्यरचना ना होने का यह निर्देश है | इस स्पष्टीकरण का यह अर्थ नहीं की भारत में तिथि तथा वर्षों की गणना को महत्व ही ना दिया गया हो | पठन – पाठन यह इतिहास का प्रधान कर्तव्य रहा है | अतः तिथियों का गणित प्राथमिकता से समझाने के बाद कथाओं एवं काव्यों की शैली में ‘यह घटना तब हुई जब विश्व में घोर अन्धेरा छाया हुआ था | मनुष्यमात्र की निर्मिती नहीं हुई थी | तब देवताओं ने सोचा’ ऐसी कुछ रसपूर्ण वाक्यों का प्रचलन दिखाई देता है | किन्तु अध्ययनकर्ताओं के लिए सम्पूर्ण कालगणनाशास्त्र, विज्ञान एवं तंत्रज्ञान का सघन अध्ययन उपलब्ध है | इतिहास राष्ट्र जागरण का माध्यम है | अतः उस लेखन विधा की शैली सामान्य जनों के लिए बनी है |

ऊपर दिए गए अवतरण में ‘ऐतिह्य’ शब्द का प्रयोग हुआ है | इस शब्द की व्याख्याएँ इतिहास के प्रयोजन का स्वरुप एवं इतिहास की व्याख्या का समर्थन करती है | ऐतिह्य का अर्थ ‘परम्परा से निर्देशित’ ऐसा किया जाता है | कुछ विद्वानों ने ऐतिह्य प्रमाण माना है | इसे प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में माना जाता है | अर्थात जो घटित है, प्रत्यक्ष है | कल्पद्रुमः नाम के ग्रन्थ में प्रस्तुत शब्द का विश्लेषण किया है –

‘ऐतिह्यं, क्ली, इतिह उपदेशपारम्पर्य्यम् । तदेव । इतिह “अनन्तावसथेतिहभेषजाञ् ञ्यः।“( ५ । ४ । २३ ।) इति स्वार्थे ञ्यः । पारम्पर्य्योपदेशः । तत्पर्य्यायः । इतिह । इत्यमरः ॥ (यथा रामायणे । ५ । ८७ । २३ ।)

“ऐतिह्यमनुमानञ्च प्रत्यक्षमपि चागमम् । ये हि सम्यक् परीक्षन्ते कुतस्तेषामबुद्धिता” ॥ “ऐतिह्यं नाम आप्तोपदेशो वेदादिः” । (इति विमानस्थाने । ८ अ । चरकेणोक्तम् ॥)’[6]

प्रस्तुत समग्र विश्लेषण से अब यह बात निश्चित है की भारत में ‘इतिहास लेखन विधा’ का प्रचलन था | केवल इस विधा की शैली भिन्न है, इतिहास का अर्थ एवं विचार भिन्न है | यही कारण है कि आधुनिक इतिहास लेखन विधाने भारतीय इतिहास को शास्त्रीय स्थान प्रदान नहीं किया है | किन्तु राष्ट्र का स्वभाव, लोकमानस,चित्त एवं परम्पराओं का विचार करते हुए धर्म के आधार पर लिखी गई नैतिकता की कथाएँ यह भारत का इतिहास है | इसमें मूल्यों के विश्लेषण हेतु स्थान, काल, व्यक्ति एवं घटनाओं का प्रयोजन है | अर्थात ‘इतिहास’ यह भारत की अपनी परम्परा है |

सन्दर्भ ग्रन्थ सूचि –

१) सातवळेकर श्री. दा., महाभारत आदिपर्व, १९६८, प्रथम आवृत्ति, स्वाध्याय मंडल, पारडी

२) सिंह रायबहादुर बाबूजालिम, छान्दोग्योपनिषद (भाषा टीका), १९१७, विष्णुनारायण भार्गव, लखनऊ

३) ठुलधरिया बद्रीसाह, दैशिक शास्त्र, १९८३, द्वितीय संस्करण, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी

४) मिश्र ज्वालाप्रसादजी, जातिभास्कर, खेमराज श्रीकृष्णदास, मुंबई

५) सैनी मधु लता, भारत में वंशावली परम्परा का ऐतिहासिक अध्ययन (राजस्थान के विशेष संदर्भ में),

                         शोध प्रबंध, सिंघानिया विश्वविद्यालय, राजस्थान

६) गोस्वामी नारायण, श्रीश्रीमदबृहद्भागवतामृत (दिग्दार्शिनी टीका सहित), द्वितीय खंड, २००६,

                              श्रीभक्तिवेदान्त तीर्थ महाराज

७) डॉ. रत्नावत श्यामसिंह, डॉ. शर्मा कृष्णगोपाल (संपा.), चारण साहित्य परम्परा, २००१,

                                                                            राजस्थान अध्ययन केंद्र,

                                                                            राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपूर

८) सिंह रघुनाथ, कल्हणकृत राजतरंगिणी, १९७०, हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी

९) शर्मा नन्दकिशोरदेव (अनु.), हिंदी राज – तरंगिणी, १८९८, पण्डित कृष्णानंद शर्मा, कलकत्ता

१०) देसाई विनायक  गोविन्द (संपा.), श्रीमद्भागवतमहापुराणम् (सरल मराठी व्याख्या सहित),

                                                   द्वितीय खंड, चौदहवाँ पुनर्मुद्रण, २०१९,

                                                    गीताप्रेस, गोरखपुर

११) डॉ. ढेरे अरुणा,तळणीकर प्रशांत (अनु.), कल्हण पंडित यांची राजतरंगिणी : काश्मिरी राजांची गाथा,

                                                             २०१७, चिनार पब्लिशर्स, पुणे

१२) इतिहास संकलन समिति वेबसाईट – abisy.org

१३) kosha.sanskrit.today


१) छान्दोग्योपनिषद्, रायबहादुर बाबूजालिम सिंह (टीका एवं अनुवाद), १९१७, लखनऊ.

१) कूर्मपुराण, पूर्वभाग, प्रथम अध्याय

२) श्रीश्रीब्रुहद्भागवतामृत, द्वितीय खंड, प्रथम अध्याय

३) ibid, दार्शनिक टिका

१) श्रीमद्भागवत महापुराण, द्वादश स्कंध, द्वितीय अध्याय

२) ibid,, द्वादश स्कंध, तृतीय अध्याय

३) abisy.org/प्रतीक-चिह्न/

१) abisy.org/प्रतीक-चिह्न/

१) महाभारत, आदिपर्व, श्लोक १७,१८,१९

२) हिंदी राज – तरंगिणी, नन्दकिशोरदेव शर्मा (अनु.)

३) कल्हणकृत राजतरंगिणी, रघुनाथ सिंह

१) kosha.sanskrit.today


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