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आदि शंकर के अनुसार धर्म सत्य तथा विजय की शक्ति हैI धर्म सुख का मूल है तथा धर्म के लोप से ही अधर्म का जन्म होता हैI क्योंकि दुःख का मूल कारन धर्म-विहीनता हैI संसार की सभी प्राचीन संस्कृतियाँ सुख की प्राप्ति हेतु स्वयम को धर्म से सम्बद्ध एवं समन्वित रखने का प्रयास करती हैंI

भारतीय अखंडता के सूत्रधार आचार्य शंकर

किसी धर्म-संस्कृति का प्रवाह सदा समान गति से प्रवाहित नहीं होता हैI क्योंकि इसकी गति समय-समय पर अवरुद्ध होती रहती हैI किन्तु सनातन की प्रवाह-धारा कभी पूर्णतः अवरुद्ध नहीं हुईI इसका कारण है इसमें प्रवाहित असीम ऊर्जा तथा जीवन-शक्ति जो स्वयं सच्चिदानन्द से निर्गत हुई हैI यदि कभी इस प्रवाह में कुछ शिथिलता आयी तो इस संस्कृति ने ऐसे मनीषी तथा समर्थ योद्धा पैदा किये जिन्होंने अवरुद्ध करने वाले तत्वों को भस्मीभूत कर दियाI आचार्य शंकर भारतीय परम्परा में एक ऐसे ही चमकदार नक्षत्र हैं जिन्होंने वैदिक धर्म की पुनः-स्थपना बहुत विपरीत परिस्थितियों में कीI आचार्य के अविर्भाव के समय पूरा भारत विभिन्न तरह की वाह्य तथा आंतरिक प्रतिकूलताओं का सामना कर रहा थाI जैन तथा बौद्ध धर्म आपस में टकरा कर थक चुके थेI सनातन धर्म के कई पंथ आपस में प्रतिस्पर्धा कर रहे थेI बहुत सारे पन्थो में वीभत्स क्रिया-कलापों का प्रादुर्भाव होने लगा थाI बौद्ध धर्म को ऐसे स्थापित किया जा रहा था जैसे वह इस भूमि पर आविर्भूत न हुआ होI यदि देखा जाय तो समाज सनातन धर्म के व्यापक दृष्टिकोण की पुनः-स्थापना की आवश्यकता महसूस कर रहा थाI ऐसे समय में आचार्य शंकर का अविर्भाव भारतीय सांस्कृतिक तथा दार्शनिक चेतना के लिए वरदान स्वरुप थाI जिन्होंने हिन्दू धर्म के मूल चिन्तन को एक योद्धा के भांति स्थापित कियाI

          आदि शंकर के अनुसार धर्म सत्य तथा विजय की शक्ति हैI धर्म सुख का मूल है तथा धर्म के लोप से ही अधर्म का जन्म होता हैI क्योंकि दुःख का मूल कारण धर्म-विहीनता हैI संसार की सभी प्राचीन संस्कृतियाँ सुख की प्राप्ति हेतु स्वयम को धर्म से सम्बद्ध एवं समन्वित रखने का प्रयास करती हैंI अधार्मिक मनुष्य अज्ञानी होता है तथा अज्ञानतावश कर्म करके अपने अंदर के धर्म तत्व का विनाश कर डालता हैI शंकराचार्य ने धर्म के व्यवहार तत्व को ही धर्म का स्तम्भ माना हैI शंकराचार्य ने इस मत का अनुमोदन किया कि लोक में जितने भी धर्म होते हैं उतने ही उसके स्वरुप होते हैंI उपनिषदों में धर्म के प्रायः चार स्वरूपों का उल्लेख हुआ है, जैसे- कर्तृत्वादधर्म, क्रत्विक धर्म, स्नातक धर्म एवं पुरुषार्थ धर्मI इसमें प्रथम आम मानव के निमित्त है क्योंकि वह कोई भी धर्म, कर्म-फल प्राप्ति के लिए ही करता हैI वह जिस प्रकार का फल चाहता है उसी निमित्त निर्धारित कर्म करता हैI  क्रत्विक धर्म वह है जिसमें वह जो क्रिया करे उसका फल यजमान को मिलेI स्नातक धर्म ज्ञानार्जन में सहायक थाI वह ब्रह्मचारी को गुरुकुल के प्रति कर्तव्यनिष्ठ बनाता था और जीवन-शैली को एक निश्चित आयाम प्रदान करता थाI पुरुषार्थ चतुष्टय में उल्लेखित धर्म गृहस्थ के लिये एक नियामक का कार्य करता थाI जिससे अभिप्रेरित होकर जीव धार्मिक विधि से अर्थोपार्जन करता था तथा धर्मानुकुल ही उसका उपभोग करता थाI

धर्म-पीठों अथवा मठों की स्थापना: आदि शंकर ने भारत की सनातन आत्मा को तीव्रतम करने के लिए चार मठों की स्थापना कीI लम्बे समय तक इन मठों ने भारत की आत्मा को अक्षुण्ण रखते हुए सांस्कृतिक एकता में अतुलनीय भूमिका का निर्वहन कियाI आगे इनके नाम के साथ सक्षिप्त विवरण दे रहा हूँ:

  • श्रृंगेरी मठ- आचार्य द्वारा स्थापित यह पहली मठ हैI यह मैसूर जिले के तुंगा नदी के बाएं किनारे पर स्थित हैI इस मठ के आचार्य सुरेश्वराचार्य थेI
  • शारदामठ- आचार्य शंकर द्वारा स्थापित यह दूसरी मठ हैI यह द्वारिकापुरी अर्थात भारतवर्ष के पश्चिम में स्थित हैI इस मठ के आचार्य हस्तामलक थे जिनका उपनाम पृथ्वीधर थाI
  • गोवर्धनमठ- आचार्य शंकर द्वारा स्थापित यह मठ जगन्नाथपुरी में हैI यह स्थान भारत के पूर्वी दिशा में स्थित हैI इस मठ के आचार्य पद्यपाद थेI इन्हीं से यहाँ की आचार्य परम्परा प्रारम्भ हुई थीI
  • ज्योतिर्मठ- यह आचार्य शंकर द्वारा स्थापित मठों में चौथा मठ हैI उत्तरी भारत में धार्मिक सुधार के लिए आचार्य ने बद्री नारायण के पास ही इस मठ की स्थापना की थीI इस मठ के प्रथम आचार्य तोटकाचार्य थेI

दशनामी सम्प्रदाय: दशनामी भी आचार्य शंकर से जुड़ा हुआ हैI दशनामी का अर्थ है दश नाम धारण करने वालाI इन सम्प्रदायों के पास जो सम्पत्ति आती थी उसका उपयोग लोककल्याणकारी कार्यों के लिए होता हैI आगे इनका विवरण उल्लेखित कर रहा हूँI

  1. भारती- विद्या केभार को धारण करने कारण इन्हें भारती की संज्ञा मिली हैI जो विद्या भार से पूर्ण हो और जगत के अन्य भारों को छोड़ दे वह भारती की उपाधि से विभूषित होता हैI
  2. सरस्वती- जो स्वर (श्वांस) का ज्ञान रखने वाला हो, वेद के स्वरों से भली-भांति परिचित हो, संसाररूपी सागर के रत्नों को रखने वाला हो उसे सरस्वती की उपाधि दी जाती हैI
  3. पुरी- पुरी वह है जो पूर्ण हो, तत्वज्ञान से पूर्ण हो, पूर्ण पद में स्थित होI इतनी जिसकी योग्यता होती है वह पुरी की उपाधि का अधिकारी होता हैI
  4. तीर्थ- तत्वमसि आदि महावाक्यों का प्रतिक त्रिवेणी संगम हैI इस तीर्थ में जो व्यक्ति तत्वार्थ की इच्छा से स्नान करता है उसे तीर्थ की उपाधि से अभिहित किया जाता हैI
  5. आश्रम- जिस मनुष्य के हृदय से आशा, ममता, मोह, आदि बन्धनों का सर्वथानाश हो गया है, आश्रम के नियमों को धारण करने में जो दृढ़ है तथा आवागमन से सर्वथा विरहित हैI उसकी संज्ञा आश्रम हैI
  6. वन- जो मनुष्य सुंदर, शांत, निर्जन वन में निवास करता है तथा जगत के बन्धनों से सर्वदा निर्मुक्त रहता हैI उसकी उपाधि ‘वन’ हैI
  7. अरण्य- जो इस जगत को छोड़कर जंगल में निवास करता हुआ नन्दन वन में रहने के आनन्द को सदा भोगा करता है उसे अरण्य की उपाधि मिली हैI
  8. गिरि- जो गीता के अभ्यास में तत्पर हो, ऊँचे पहाड़ों के शिखरों पर निवास करता हो, गंभीर निश्चित विवेक वाला हो, उसे गिरि कहते हैंI
  9. पर्वत- समाधि में लगा हुआ व्यक्ति जो पहाड़ों के मूल में निवास करेI जगत के सार और असार से भली-भांति परिचित हो, वह पर्वत कहलाता हैI
  10. सागर- समुद्र के पास रहने वाला व्यक्ति जो आध्यात्मशास्त्र के उपदेश रूपी रत्नों को ग्रहण करे तथा अपने आश्रम की मर्यादा का कभी भी उल्लंघन न करे उसे समुद्र के समान गंभीर होने से सागर कहते हैंI

पंचदेवोपासना (पंचायतन)- आचार्य शंकर ने पांच देवों की उपासना पर बल दियाI जिसमें “विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश तथा देवी” परमब्रह्म के इन पांच रूपों में से किसी को प्रधान मानकर तथा शेष को उसके अंगीभूत समझकर उपासना की जाती हैI विभिन्न देवी-देवताओं के प्रति शास्त्रोक्त वचनों तथा जन-मान्यताओं दोनों का ही अनुमोदन शंकराचार्य ने किया हैI ओंकार, इंद्र, अग्नि, रूद्र, वायु, वरुण, ब्रह्मा, सूर्य, चंद्रमा, गायत्री, उमा, सविता, आदि सभी की उत्पत्ति उनकी वन्दना और स्वरुप आदि को मान्यता प्रदान कियाI अपूर्वानंद कहते हैं कि शंकारचार्य को मात्र अद्वैतवादी कहना उनके व्यक्तित्व और अवदान को छोटा करना हैI             आचार्य शंकर का आविर्भाव, उनकी जीवन साधना तथा शिक्षा ने हिन्दू धर्म के भीतर आसन्न कार्य के योग्य शक्ति संक्रमण किया तथा वैदिक धर्म को अनन्त युगों का स्थायित्व देकर सुप्रतिष्ठित भी किया। ऐतिहासिक दृष्टि से यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि यदि आचार्य शंकर का अभ्युदय न हुआ होता तो भारत में वैदिक धर्म की स्थिति बहुत दयनीय होती तथा समाज क्षत-विक्षत होता। वर्तमान हिन्दू के हिन्दुत्व को अक्षुण्ण रखने का श्रेय इस 32 वर्षीय सन्यासी को है जिसका हिन्दू समाज सदैव ऋणी रहेगा। आचार्य ने सनातन धर्म की संरचना में जो शक्ति का संचार किया था, परवर्ती काल में उसमें असंख्य संतों तथा महात्माओं की साधना तथा व्रत से तीव्रता प्रदान की। हिन्दू कर्मठता को जागृत किया। आचार्य शंकर ने सनातन हिन्दू धर्म के उत्थान के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। मृतप्राय हो चुके हिन्दू धर्म के प्रति लोगों को जागृत करके, धर्म को शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया। आज पुनः हमें अपने इस अतुलनीय मनीषी द्वारा आलोकित पथ पर अग्रसर होने की आवश्यकता है।


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