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उदीयमान राष्ट्रदृष्टि – 5
इस्लाम द्वारा हाँकी जाने वाली एकेश्वरवाद की डींग को ही ले लीजिए। यह एक बहुत ही बीभत्स विचार है। यह एक आध्यात्मिक विचार बिल्कुल नहीं है। इस विचार के अनुसार ईश्वर सृष्टि से बाहर है और सृष्टि में कुछ भी ऐसा नहीं जिसमें ईश्वरीयता का समावेश हो। यह एक मनगढ़न्त मीमांसा है, केवल बुद्धि की उछल-कूद है। फिर भी हम बहुत दिन से यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं कि हम भी एकेश्वरवादी हैं। एकेश्वरवाद के इस ढकोसले को बुद्धि की डींग समझ कर एक ओर ढकेलने के लिए यह आवश्यक है कि हम सनातन धर्म को हृदयंगम करें और इस्लाम के मतवाद को जानें।
इस्लाम द्वारा हाँकी जाने वाली एकेश्वरवाद की डींग को ही ले लीजिए। यह एक बहुत ही बीभत्स विचार है। यह एक आध्यात्मिक विचार बिल्कुल नहीं है। इस विचार के अनुसार ईश्वर सृष्टि से बाहर है और सृष्टि में कुछ भी ऐसा नहीं जिसमें ईश्वरीयता का समावेश हो। यह एक मनगढ़न्त मीमांसा है, केवल बुद्धि की उछल-कूद है। फिर भी हम बहुत दिन से यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं कि हम भी एकेश्वरवादी हैं। एकेश्वरवाद के इस ढकोसले को बुद्धि की डींग समझ कर एक ओर ढकेलने के लिए यह आवश्यक है कि हम सनातन धर्म को हृदयंगम करें और इस्लाम के मतवाद को जानें।
एक अन्य प्रकार के संघर्ष से बचने के लिए, विचारात्मक संघर्ष करना पड़ता है। जो समाज विचारात्मक संघर्ष करने से कतराते हैं, जो समाज विचारात्मक आक्रमण को परास्त नहीं कर पाते, वे समाज देर से अथवा सवेर से सशस्त्र आक्रमण को आमंत्रित करते हैं। यदि विचारात्मक आक्रमण को नहीं रोका जाता तो उसका शिकार होने वाले समाज को निरीह मान लिया जाता है और उस समाज पर सशस्त्र आक्रमण होकर ही रहता है। यह प्रकृति का नियम है। हमने मुस्लिम लीग द्वारा किए जाने वाले विचारात्मक आक्रमण के विरुद्ध संघर्ष नहीं किया था। कम्युनिस्ट पार्टी ने भी आगे चलकर उस आक्रमण में लीग का साथ दिया था। इस आक्रमण की कहानी मैं जानता हूँ। मैं स्वयं उस समय तक कम्यूनिस्ट था। हमारी उस भूल का परिणाम हमारे सामने है। हमारे ऊपर सशस्त्र आक्रमण हुआ। देश का विभाजन किया गया। लाखों लोग बेघर हो गए, लाखों को प्राण गँवाने पड़े।
अतएव, यदि हम अपने समाज को सशस्त्र आक्रमण से बचाना चाहते हैं, मार काट से बचाना चाहते हैं, दंगा-फसाद और रक्तपात से बचाना चाहते हैं, तो हमको तुरन्त ही इस विचारात्मक संघर्ष के लिए तैयार हो जाना चाहिए। किन्तु उस संघर्ष में सफलता पाने के लिए हमें सब प्रकार से सन्नद्ध होना होगा। हमें अपने हिन्दू समाज को, अपनी हिन्दू संस्कृति को, अपने हिन्दू इतिहास को और अपने सनातन धर्म को हृदयंगम करना होगा। हमें इस्लाम, ईसाइयत तथा कम्युनिज्म को भी उनके अपने सूत्रों से, उनके अपने मुखों से सुनकर समझना होगा। इन विपक्षी मतवादों के विषय में हमें मनगढ़न्त धारणाएँ नहीं बनानी चाहिए। हमें इन मतवादों को उसी रूप में देखना चाहिए जिस रूप में इनका प्रतिपादन इनके प्रणेताओं ने किया है।
हम हिन्दुओं की एक बहुत बुरी आदत है, एक आत्मघाती आदत है। विपक्षी मतवाद अपने विषय में जो कुछ दावे करते हैं, उन्हीं को हम अपनी पावन परम्पराओं में, अपने धर्मशास्त्रों में खोज निकालते हैं। ईसाइयत को हम अपने धर्मशास्त्रों में खोजने का प्रयास करते हैं। इस्लाम को और कम्युनिज्म को भी। यह एक बहुत बुरी आदत है। हमें अपने विपक्षी को उसके असली रूप में जानना चाहिए। अन्यथा हम विचारात्मक संघर्ष नहीं कर पाएँगे।
आज भारतवर्ष में ईसाइयत एक विचारात्मक संघर्ष के लिए तैयार है। पिछले बहुत से बरसों से ईसाई मिशनरी हिन्दू धर्म का, हिन्दू समाज का, हिन्दू संस्कृति का अध्ययन करके उन सब की छीछालेदार करते रहे हैं। वे हमारे मर्म-स्थल पर चोट करना जानते हैं, वे सब प्रकार के हथकण्डे जानते हैं। इस्लाम ने हमारे धर्म, हमारे समाज तथा हमारी संस्कृति का वैसा अध्ययन नहीं किया है। किन्तु इस्लाम जानता है कि जब-जब वह एकेश्वरवाद का दावा करेगा, समता का दावा करेगा, मानवजाति के भाईचारे की बात कहेगा, तब-तब हिन्दू भाग खड़े होंगे। जहाँ तक इस्लाम के अपने मतवाद का प्रसंग है, उसको विस्तार-पूर्वक और सांगोपांग पढ़ाने के लिए उसने अनेक प्रतिष्ठान खड़े किए हैं। इन प्रतिष्ठानो के लिए धन भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।
नित नए इस्लामी विश्वविद्यालय खोले जा रहे हैं। आप लोगों ने शायद समाचारपत्रों में पढ़ा होगा कि नई दिल्ली में इस्लाम का एक सांस्कृतिक केन्द्र खड़ा करने के लिए पन्द्रह करोड़ रुपए की योजना बनाई गई है। उपराष्ट्रपति हिदायतुल्ला ने इस विषय में एक वक्तव्य दिया है। अरब राष्ट्रों ने जिस इस्लामिक कोऑपरेटिव बैंक की स्थापना की है, वह यह धनराशि देगा। भारत सरकार भी अपनी ओर से इसमें सहायता देगी।
किन्तु आज भारतवर्ष में एक भी ऐसा प्रतिष्ठान नहीं जिसको सही अर्थों में हिन्दू प्रतिष्ठान कहा जा सके। हमारे पास बहुत से आश्रम और मठ हैं तथा कुछ प्रकाशन संस्थान हैं। हमारे पास बहुत से स्वामी है जो हिन्दू धर्म तथा संस्कृति की चर्चा करते रहते हैं। किन्तु सारे देश में एक भी ऐसा संस्थान नहीं जो हिन्दू दृष्टि से विद्वता का विस्तार करता हो, जो हिन्दुओं की समस्त सांस्कृतिक सम्पदा को एक सूत्र में बांधता हो और जो इस्लाम, ईसाइयत तथा कम्यूनिज्म के सच्चे स्वरूप को हमारे सामने रख सके। सारे देश में एक भी ऐसा संस्थान नहीं जो तुलनात्मक पद्धति से इन सारे मत-मतान्तरों का अध्ययन करे और विचारात्मक संघर्ष के लिए हमारी अपनी दृष्टि को प्रखर बनाए। उदीयमान राष्ट्रदृष्टि का पुनरनुमोदन करना ही पर्याप्त नहीं है। उस दृष्टि को विचारात्मक संघर्ष के लिए सन्नद्ध करना पड़ेगा।
अपना वक्तव्य पूरा करने से पहले मैं एक बात और कहना चाहता हूँ। जिस विचारात्मक संघर्ष की बात मैंने कही है उसको हमें भारतवर्ष तक सीमित करके नहीं देखना चाहिए। ऐसा करने से हमारी दृष्टि संकुचित हो जाएगी। भारत के भीतर जो विचारात्मक संघर्ष चल रहा है वह एक विश्वव्यापी संघर्ष का अंग है। अतएव उस संघर्ष में हम अकेले नहीं हैं। उस संघर्ष में हमारा भी एक मित्रपक्ष है। हमारे मित्रपक्ष में विदेशी सरकारें भले ही न हों, विदेशी वित्त संस्थान भले ही न हों। हमारा सबसे बड़ा मित्रपक्ष है मानवमात्र के अन्तर में विद्यमान एक अविजेय और अजर-अमर आत्मतत्व और उस आत्मतत्त्व का गहन गम्भीर स्वभाव। पाश्चात्य जगत में मानववाद, बुद्धिवाद तथा विश्ववाद की एक लहर चल रही है। वह लहर हमारा सबसे सबल मित्रपक्ष है। आज के पाश्चात्य जगत में ईसाइयत मृतप्राय है। वहाँ के लोग ईसाई मिशनों को जो धन देते हैं सो यह समझकर देते हैं कि मिशनरी लोग भारत में समाज सेवा कर रहे हैं। यह उनकी मूल धारणा है। यदि हम पाश्चात्य के लोगों को यह सूचना दें कि मिशनरी लोग किस प्रकार उन के द्वारा दिए गए धन का दुरूपयोग हिन्दू समाज तथा संस्कृति का उच्छेद करने के लिए कर रहे हैं, तो उनके बीच हमको अनेक मित्र मिलेंगे।
इस्लाम के दुर्ग को भेदना कठिन काम है। कारण, इस्लाम अभी भी मतान्धता की कालकोठरी में पड़ा हुआ है। सारे मुसलमान देश एक गहन अन्धकार में डूबे हुए हैं। हम लोग सशरीर इन देशों के भीतर जाकर अपनी बात नहीं कह सकते। ईसाइयत का प्रसार जिन देशों में है, उन देशों में हम सशरीर जा सकते हैं। वहाँ जाकर हम अपनी बात कह सकते हैं, वहाँ के लोगों को अपनी व्यथा समझा सकते हैं, उन लोगों के साथ चर्चा चला सकते हैं। उनके दिलो-दिमाग खुल चुके हैं। किन्तु इस्लाम का दिमाग बन्द है। उसको खोलना भी आसान काम नहीं।
मैंने इस्लाम के विषय में इस समस्या का समाधान श्री रामस्वरूप से पूछा। उनका कहना है कि सूक्ष्म होने के कारण विचार सब प्राचीरों को भेद सकते हैं। यह सच है कि मुसलमान देशों के भीतर सशरीर जाकर हम वहाँ के लोगों को मानववाद, बुद्धिवाद तथा विश्ववाद का संदेश नहीं सुना सकते। किन्तु उन देशों के बाहर रहकर भी हम वहाँ के लोगों को यह सन्देश तो सुना ही सकते हैं कि वे लोग इस्लाम की कालकोठरी से बाहर निकलकर विचार-स्वातन्त्रय के वातावरण में विचरण करें। हम उन लोगों को प्रकृत अध्यात्म के उस आलोक में विचरने के लिए आमन्त्रित तो कर ही सकते हैं जिसका विस्तार सनातन धर्म के द्वारा हुआ है। मुसलमान देश आज एक संकट का सामना कर रहे हैं। उन देशों के बहुत से छात्र पाश्चात्य देशों के शिक्षालयों में पढ़ने जाते हैं, भारत के शिक्षालयों में पढ़ने आते हैं। पढ़ाई पूरी करने के बाद वे छात्र अपने देशों में वापिस जाना नहीं चाहते। उनके अपने देशों में व्याप्त वातावरण में उनका दम घुटता है। वे छात्र हमारा मित्रपक्ष बन सकते हैं।
इसलिए हमें भारतवर्ष में चल रहे विचारात्मक संघर्ष को इस देश की सीमाओं में बाँधकर नहीं देखना चाहिए। यह एक विश्वव्यापी संघर्ष है। इस देश में जो ईसाइयत है उसका मित्रपक्ष देश के बाहर भी है। उसी प्रकार इस्लाम तथा कम्यूनिज्म के मित्रपक्ष भी देश के बाहर हैं। किन्तु हमारा भी एक मित्रपक्ष है जो सारे संसार में फैला हुआ है। हमारे मित्रपक्ष के पास राजसत्ता भले ही न हो, सैन्यशक्ति भले ही न हो, जो कि विपक्षी मतवादों के मित्रपक्षों के पास पाई जाती है। किन्तु हमारा मित्रपक्ष मानवमात्र की अंतरात्मा है। अतएव हमारा मित्रपक्ष भी विश्वव्यापी है। यह बात हमें भुलानी नहीं चाहिए। विचारात्मक संघर्ष के क्षेत्र में उतरते समय हमको उस अन्तरात्मा का आश्रय लेना चाहिए, उसकी सहायता लेनी चाहिए। तब हमारी जीत होने से कोई संशय नहीं रह जाएगा।
आप लोगों ने मेरे वक्तव्य को धैर्यपूर्वक सुना और मुझे इतना समय दिया, इसके लिए मैं आप सबका आभारी हूँ।
The series concludes here.
Read the previous parts here: 1, 2, 3, 4.
[योगक्षेम, कलकत्ता, की मासिक सभा में 4 दिसंबर, 1983 को दिया गया श्री सीताराम गोयल का भाषण]
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