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उदीयमान राष्ट्रदृष्टि – 4
हिन्दू संस्कृति ही भारतवर्ष की राष्ट्रीय संस्कृति है। सनातन धर्म की यह संस्कृति एक विराट तथा बहुमुखी संस्कृति है। किन्तु साथ ही साथ यह एक ऐसी संस्कृति है जो मानवजाति के लिए स्वभाव-सुलभ है। इस संस्कृति में ऐसा कुछ भी नहीं जिसे कृत्रिम कहा जा सके, जिसका निर्माण मनुष्य के बाह्य मानस द्वारा हुआ हो, और जिसको ईसाइयत, इस्लाम तथा कम्युनिज्म की संस्कृतियों की नाईं बलात् लादा गया हो। अतएव ऐसी प्रत्येक संस्कृति को जो हिन्दू संस्कृति के अनुकूल न हो, जो सनातन धर्म की संस्कृति के साथ मेल न खाती हो, भारतवर्ष से भागना पड़ेगा।
राष्ट्रदृष्टि का पुनरनुमोदन करने के लिए तीसरी बात जो हमें कहनी होगी वह यह है कि हिन्दू संस्कृति ही भारतवर्ष की राष्ट्रीय संस्कृति है। सनातन धर्म की यह संस्कृति एक विराट तथा बहुमुखी संस्कृति है। किन्तु साथ ही साथ यह एक ऐसी संस्कृति है जो मानवजाति के लिए स्वभाव-सुलभ है। इस संस्कृति में ऐसा कुछ भी नहीं जिसे कृत्रिम कहा जा सके, जिसका निर्माण मनुष्य के बाह्य मानस द्वारा हुआ हो, और जिसको ईसाइयत, इस्लाम तथा कम्युनिज्म की संस्कृतियों की नाईं बलात् लादा गया हो। अतएव ऐसी प्रत्येक संस्कृति को जो हिन्दू संस्कृति के अनुकूल न हो, जो सनातन धर्म की संस्कृति के साथ मेल न खाती हो, भारतवर्ष से भागना पड़ेगा। भारतवर्ष में अब किसी भी विपरीत संस्कृति के लिए कोई स्थान नहीं रह गया। “अल्पसंख्यकों के अधिकार” की दुहाई देने वाली विपरीत संस्कृतियों को अब इस देश में फलने-फूलने नहीं दिया जाएगा।
चौथी बात जो हमें कहनी होगी वह यह है कि हिन्दू समाज ही भारतवर्ष का राष्ट्रीय समाज है। यह एक बृहत् समाज है जिसमें मानव-प्रकृति के अनेक पक्षों का प्रस्फुटन हुआ है, जिसमें अनेक सामाजिक परम्पराओं का पोषण हुआ है। आज हम पर वह लांछन लगाया जाता है कि हमने अपने तथाकथित आदिवासियों की अवहेलना की है। यह लांछन हम पर बारम्बार लगाया जाता है। किन्तु हम जब अपने इतिहास का पर्यावलोकन करते हैं तो हम देखते हैं कि हमने कभी भी अपने समाज के किसी भी जनसमुदाय की जीवन-प्रणाली के साथ छेड़छाड़ नहीं की। हमने चालीस धर्मशास्त्रों की रचना इसीलिए की थी कि हमारे देश के विविध अंचलों तथा जनसमुदायों की परम्पराओं, प्रणालियों और संस्थाओं का समन्वय हो सके। हमने उन धर्मशास्त्रों पर चार सहस्र टीकाएँ इसीलिए लिखी थी कि हमारे देश की विभिन्न जातियाँ, यहाँ के विभिन्न वर्ण और जनपद अपने-अपने अनुकूल विधि-विधान बना सकें। तो हिन्दू समाज एक विराट और वैविध्य-सम्पन्न समाज है। यदि इस देश का कोई जनसमुदाय हिन्दू समाज के अनुकूल आचरण करने के लिए तैयार नहीं होता तो उस जनसमुदाय का इस देश में कोई स्थान नहीं। इस प्रकार के जन समुदाय को हम अल्पसंख्यक होने के नाम पर विशेषाधिकार मांगने की छूट नहीं दे सकते।
अन्त में हमको यह घोषणा करनी होगी कि हिन्दू समाज भारतवर्ष में एक ही धर्म को मान्यता प्रदान करता है, एक ही धर्म को स्थान दे सकता है। वह धर्म है सनातन और उसकी प्रकृत अध्यात्म-सम्पदा। उस धर्म में मनुष्य की समस्त सहज प्रवृत्तियों को यथोचित स्थान दिया गया है। सनातन धर्म में निरीश्वरवाद, संशयवाद तथा जड़वाद का भी स्थान है। यदि किसी प्रवृत्ति का स्थान सनातन धर्म में नहीं है तो उस बलपूर्वक और छलावे वाली प्रवृत्ति का जो धर्म के नाम से आगे बढ़ना चाहती है। साम्राज्यवाद यदि धर्म का रूप धारण करके आता है तो सनातन धर्म उसको स्वीकार नहीं करता। जो भी धर्म भारतवर्ष में फलना-फूलना चाहता है उसको सनातन धर्म की अध्यात्म-सम्पदा के अनुकूल आचरण करना पड़ेगा। इस्लाम और ईसाइयत जैसे साम्राज्यवादी लिप्सा से लदे हुए मतवादों को इस देश में कोई स्थान नहीं मिल सकता।
यह है उदीयमान राष्ट्रदृष्टि की रूपरेखा। सारा भारतवर्ष हिन्दू समाज का स्वदेश है। भारतवर्ष का इतिहास हिन्दू समाज का इतिहास है। हिन्दू समाज ही भारतवर्ष का राष्ट्रीय समाज है। हिन्दू संस्कृति हो भारतवर्ष की राष्ट्रीय संस्कृति है। और सनातन धर्म भारतवर्ष का राष्ट्रधर्म है। यह है वह राष्ट्रदृष्टि जिसको हमें पुनः पुष्ट करना पड़ेगा।
और इस पुष्टि के कई एक निहितार्थ (implications) हैं जिन्हें हमको हृदयंगम कर लेना चाहिए। जबतक हमारी दृष्टि हमारे मन में स्पष्ट नहीं होगी, जबतक वैचारिक संघर्ष के लिए तैयार नहीं होंगे, जबतक हमें अपने विषय में तथा जिन शक्तियों के साथ हमें संघर्ष करना है उनके विषय में सम्यक् ज्ञान नहीं होगा, तबतक हम यह युद्ध नहीं जीत सकते। अतीत में तथा वर्तमान में हिन्दू समाज के प्रति, हिन्दू संस्कृति के प्रति तथा सनातन धर्म के प्रति कई-एक वैचारिक आक्रमण होते रहे हैं। एक ओर से ईसाइयत का आक्रमण है तो दूसरी ओर से इस्लाम का तथा एक अन्य ओर से कम्यूनिज्म का। इन सब आक्रमणों के समक्ष हम रक्षात्मक रवैया ही अपनाते आए हैं। इससे काम नहीं चलेगा।
आज भारतवर्ष में हिन्दू मात्र का एक केवल एक ही परिचय रह गया है, वह एक ही संज्ञा से जाना जाता है। हिन्दू अर्थात सम्प्रदायवादी। ईसाइयत, इस्लाम तथा कम्यूनिज्म का साहस इतना बढ़ गया है कि हिन्दू को अपने ही स्वदेश में सम्प्रदायवादी कह कर पुकारा जा रहा है। यह संसार का नवां आश्चर्य है। मुझे ज्ञात नहीं आजकल संसार में कितने आश्चर्य गिने जाते हैं। किन्तु यह संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है। यह इसीलिए सम्भव हो सका है कि हिन्दू समाज ने अज्ञान के वशीभूत होकर इस्लाम तथा ईसाइयत को धर्म मान लिया है। हमें इस मान्यता को छोड़ना पड़ेगा। राष्ट्रदृष्टि का यह पहला निहितार्थ (implication) है।
धर्म होने का दावा करके ईसाइयत और इस्लाम विशेषाधिकार माँग रहे हैं, विशेष स्थान और विशेष संरक्षण माँग रहे हैं। इस्लाम को ही ले लीजिए। इसके द्वारा पावन मानी जाने वाली पुस्तकों में जिहाद और नरमेध का विधान दिया गया है। इसका सारा इतिहास रक्तरंजित है। इसके उपासना-स्थान सदा ही एक राजनीतिक दल के दफ्तर तथा शस्त्राशस्त्रके भण्डार रहे हैं। फिर भी इस्लाम दावा करता है कि यह एक धर्म है। इस समय मैं इस गहन मीमांसा में नहीं पड़ूँगा कि इस्लाम तथा ईसाइयत को धर्म क्यों नहीं माना जा सकता। एक सीधी सी बात से ही यह सब स्पष्ट हो जाता है। ईसाइयत तथा इस्लाम मानवजाति को दो वर्गों में विभक्त करते हैं – विश्वासी और अविश्वासी, मोमिन और काफिर। इसी से यह सिद्ध हो जाता है कि ये धर्म नहीं प्रत्युत् राजनीतिक मतवाद मात्र है। इनको सीधा अस्वीकार (reject) करना चाहिए। इन मतवादों के बचाव में कितने ही पुस्तकालय क्यों न भरे गए हों, इनकी खंडन-मंडन की प्रक्रियाएँ कितनी ही प्रशस्त क्यों न हों, हमें इनको अस्वीकार करना होगा। हमको दृप्त कण्ठ से यह घोषणा करनी होगी कि हम ईसाइयत तथा इस्लाम को धर्म नहीं मानते।
यह घोषणा करने का साहस हम तब तक नहीं जुटा पाएँगे जब तक कि स्वयं हमें अपने कथन की सच्चाई पर पूरा विश्वास नहीं हो जाता। और हमें वह विश्वास तब तक नहीं होगा जब तक कि हम इन तथाकथित धर्मों का गहन अध्ययन नहीं करते। मैंने श्री रामस्वरूप की सहायता से ईसाइयत और इस्लाम का अध्ययन किया है। श्री रामस्वरूप को इन मतों का तथा इनके तथाकथित धर्मग्रन्थों और पावन परम्पराओं का गहरा ज्ञान है। इन ग्रन्थों तथा परम्पराओं में एकेश्वरवाद बहुत मिलता है, वितण्डावाद की भी भरमार है। किन्तु इनमें अध्यात्म बिल्कुल नहीं मिलता। अध्यात्म के बिना क्या किसी धर्म की कल्पना की जा सकती है? धर्म तो मनुष्य के अध्यात्म-अन्वेषण का ही दूसरा नाम है। धर्म का सम्बंध मनुष्य की आत्मा के साथ है, उसके अंतरतम की गम्भीर अभीप्साओं के साथ है, उनकी चेतना की बृहत् तथा उत्तुंड उडान के साथ है। किन्तु ईसाइयत तथा इस्लाम की किताबों में ऐसा कुछ नहीं मिलता। वहाँ मिलती है एक पराक्रम-परायण राजनीति। वहाँ मिलती है लोगों को युद्ध में परास्त करके उनका मतान्तरण करने की एक साम्राज्यवादी स्पृहा।
राष्ट्रदृष्टि का दूसरा निहितार्थ यह है कि हमारे जिन भाइयों को बलात् इन विपरीत मतवादों के घेरे में फांस लिया गया है, धर्म होने का पाखण्ड करने वाले इन साम्राज्यवादी कुचक्रों की कारा में बाँध लिया गया है, उनको हम उनके पैतृक समाज में वापस लाएँगे। वे सब लोग हमारे अपने लोग हैं। ईसाइयत का प्रत्याख्यान करते समय हम ईसाइयों का प्रत्याख्यान नहीं करते। इस्लाम का प्रत्याख्यान करते समय हम मुसलमानों का प्रत्याख्यान नहीं करते। ईसाई और मुसलमान हमारे सहोदर हैं। उन लोगों को इस्लाम तथा ईसाइयत के कारागारों से मुक्त करना होगा, उनको मतान्धता के गहन कूपों से बाहर निकालना पड़ेगा।
राष्ट्रदृष्टि के ये दो निहितार्थ है जिनको हमें स्पष्टतया समझ लेना चाहिए। हिन्दू समाज को विचारात्मक संघर्ष के लिए सन्नद्ध होना पड़ेगा। हिन्दू समाज को अपने इतिहास को समझना होगा, अपने धर्मग्रन्थों को समझना होगा, अपनी संस्कृति को गहनता से तथा विस्तार से समझना होगा, और एक राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान को समझना होगा। साथ ही साथ हिन्दू समाज को इस्लाम तथा ईसाइयत तथा कम्युनिज्म का परिचय उनके अपने सूत्रों से संग्रह करना होगा, उनकी अपनी पुस्तकों से प्राप्त करना होगा। जो जड़वाद आज अमरीकी भोगवाद का रूप धारण करके आ रहा है उसको भी इसी प्रकार समझना होगा। यह सब समझ-बूझ यदि हम नहीं जुटा पाए तो हम संघर्ष में हार जाएँगे।
हिन्दू समाज जब तक रक्षात्मक रहेगा तब तक उसके ये पुराने प्रतिद्वन्द्वी अपने आजमाए हुए हथियार उस पर चलाते रहेंगे। वे हमको सम्प्रदायवादी इत्यादि कहते रहेंगे। 1920 में जब कांग्रेस ने खिलाफत की हिमायत की थी तब से लेकर आज तक हिन्दू समाज रक्षात्मक रहा है, तथा इस्लाम आदि शत्रु-शक्तियाँ आक्रामक रही हैं। इस्लाम का दावा है कि वह एकेश्वरवाद का सिद्धांत है जबकि हिन्दू धर्म बहुदेववादी है। इस्लाम का दावा है कि वह एक जात-पात-विहीन समाज का द्योतक है, जबकि हिन्दू धर्म जात-पात की ऊंच-नीच का ही दूसरा नाम है। इस प्रकार की अनेक और बातें इस्लाम की ओर से कही जाती हैं। इस अवस्था में हम यदि हिन्दू समाज के स्वरूप को नहीं समझते, वर्णाश्रम धर्म को नहीं समझते, और यह नहीं जानते कि इस समाज व्यवस्था ने किस प्रकार हमारा संरक्षण किया है, तो हम धोखे में आ जाते हैं।
बहुत कम लोग यह जानते हैं कि इस देश के मुसलमान सदा से तीन वर्गों में विभाजित रहे हैं और मुसलमानों में भी अधिक नहीं तो उतनी ही जातियाँ अवश्य हैं जितनी कि हिन्दुओं में पाई जाती हैं। विदेश से आने वाले अरब, तुर्क तथा ईरानी आक्रमणकारियों के वंशजों को मुसलमानों में अशरफ कहा जाता है। यह शब्द शरीफ का बहुवचन है और इसका अर्थ है कुलीन वर्ग, आभिज्यात्य वर्ग। ब्राह्मण तथा राजपूत इत्यादि ऊंची जाति के जिन हिन्दुओं को किसी समय मुसलमान बनना पड़ा था उनको अजलाफ कहा जाता है। और नीच कहलाने वाली जातियों के जो हिन्दू मुसलमान बनाए गए उनको अरज़ाल कहा जाता है। यह शब्द रज़ील का बहुवचन है और इसका अर्थ है नीच, कमीना। मुसलमानों के बीच व्यवहार में आने वाली इस जातिसूचक भाषा से हम लोग परिचित नहीं हैं। इसलिए मुसलमान लोग जब हिन्दू समाज को जात-पांत वाला समाज और अपने समाज को जात-पांत विहीन समाज कहकर डींग हाँकते हैं तो हम लोग धोखे में आ जाते हैं।
To be continued…
One more part to come. Read the previous parts here: 1, 2, 3.
[योगक्षेम, कलकत्ता, की मासिक सभा में 4 दिसंबर, 1983 को दिया गया श्री सीताराम गोयल का भाषण]
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