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उदीयमान राष्ट्रदृष्टि – 2
इस लेख में श्री सीता राम गोएल कहते हैं कि भारतवर्ष का इतिहास वस्तुतः हिन्दू समाज का इतिहास है, हिन्दू संस्कृति का इतिहास है, हिन्दू अध्यात्म-साधना का इतिहास है। वह इतिहास बाह्य आक्रमणकारियों का इतिहास बिल्कुल नहीं है, जैसा कि हमें आजकल पढ़ाया जा रहा है।
उस दृष्टि का चौथा आयाम यह था कि इस महामहिम समाज का, इस हिन्दू समाज का एक अपना इतिहास रहा है – किस प्रकार इस समाज का उदय हुआ, किस प्रकार इस समाज का विकास हुआ, किस प्रकार इस समाज ने एक ऐसे अध्यात्म की साधना की जो अनेक प्राचीन देशों में साधे गए अध्यात्म के साथ समरस था – यथा ग्रीस, रोम, चीन, मिस्र, ईरान। उस दृष्टि ने हमें दिखलाया कि भारतवर्ष का इतिहास वस्तुतः हिन्दू समाज का इतिहास है, हिन्दू संस्कृति का इतिहास है, हिन्दू अध्यात्म-साधना का इतिहास है। वह इतिहास बाह्य आक्रमणकारियों का इतिहास बिल्कुल नहीं है, जैसा कि हमें आजकल पढ़ाया जा रहा है। उस दृष्टि का यह चौथा आयाम था।
उस दृष्टि का पांचवा आयाम यह था कि भारतवर्ष नाम का यह भूखण्ड एक अविभाज्य समष्टि है। उन महापुरुषों ने बार-बार इस बात की पुष्टि की थी कि भारतवर्ष हिन्दू समाज की, हिन्दू संस्कृति की और हिन्दू अध्यात्म-साधना की लीलास्थली है और हिन्दू राष्ट्र का अपना स्वदेश है। हिन्दुओं से इतर लोगों का इस भूमि में स्वागत है। किन्तु उन लोगों को हिन्दू समाज और हिन्दू संस्कृति के प्रति आदर का भाव अपनाना होगा। हमारे महापुरुषों ने भारतभूमि को अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, हिन्दुस्तान और बांग्लादेश में बाँट कर नहीं देखा था। आज भारतवर्ष कई भागों में बिखरा पड़ा है। वे विभिन्न भाग राजनीति को लेकर ही नहीं, संस्कृति के नाते भी परस्पर वैमनस्य का पोषण कर रहे हैं। और हम सबने इस विभाजन को स्वीकार कर लिया है। किन्तु हमारे महापुरुषों द्वारा हमें दी गई दृष्टि के अनुसार भारतवर्ष केवल भूगोल के आधार पर ही नहीं, संस्कृति के नाते भी अविभाज्य है।
स्वदेशी आन्दोलन के समय, इस शती के प्रारम्भ में, हमारे सामने इस राष्ट्रदृष्टि का उदय हुआ था।
किन्तु कई-एक अन्य दृष्टियाँ भी अपना-अपना आधिपत्य जमाने के लिए सचेष्ट थीं। इन अन्य दृष्टियों को अपने प्रसार के लिए एक सुविधा भी मिली। जिस शिक्षा-प्रणाली का विकास अंग्रेजों ने किया था, जो शिक्षा-प्रणाली हमारे ऊपर उन्होंने लाद दी थी, वह प्रणाली इन अन्य दृष्टियों की पोषक थी। यह वही प्रणाली थी जो आज भी हमारे देश में प्रतिष्ठित है। यह प्रणाली इन अन्य दृष्टियों को अभी भी प्रोत्साहित कर रही है, इनके प्रसार में सहायक बनी हुई है।
इन अन्य दृष्टियों में से एक दृष्टि थी इस्लाम के साम्राज्यवाद की दृष्टि। इस दृष्टि के अनुसार भारतवर्ष एक वैसा-ही अन्धकारपूर्ण देश है जैसा कि इस्लाम के आविर्भाव से पूर्व का अरब देश था अथवा इस्लाम द्वारा पराभूत होने से पूर्व ईरान इत्यादि कई एक अन्य देश थे। यह दृष्टि प्रचार कर रही थी कि इस्लाम का “प्रकाश” भारतवर्ष में भी फैलना चाहिए, भारतवर्ष की भी एक दार-उल-इस्लाम के रूप में परिणति होनी चाहिए।
कुछ आगे चलकर एक अन्य दृष्टि का आयात इस देश में हुआ। वह थी ईसाई साम्राज्यवाद की दृष्टि। यह दृष्टि भी प्रचार कर रही थी कि भारतवर्ष एक अन्धकारपूर्ण देश है, ग्राम्य तथा प्राकृत आस्थाओं का देश है, विश्वास-विहीन लोगों का देश है। यह दृष्टि भारतवर्ष को ईसाइयत के “प्रकाश” से “आलोकित” करना चाहती थी, भारतवर्ष को ईसा का देश बनाना चाहती थी।
एक तीसरी दृष्टि श्वेतांग जाति के दायित्व (white man’s burden) का दम्भ लेकर इस देश में आई। इस दृष्टि में इस्लाम तथा ईसाइयत के साम्राज्यवादों द्वारा छेड़े गए जिहाद की पुट तो थी ही, साथ ही साथ यह दृष्टि मानववाद तथा बुद्धिवाद की भाषा भी बोल रही थी। इसकी भाषा में नवजागरण की पुट भी थी। यह दृष्टि कह रही थी कि भारतवर्ष दिशा-विहीन, अनपढ़, दलित-वंचित तथा सब प्रकार से शोषित अभागों का देश है, और अंग्रेज शास्ताओं तथा पाश्चात्य से इस-उस देश से आयात की हुई संस्कृति को इन अभागों के लिए भोजन जुटाना पड़ेगा, इन को स्वस्थ बनाना पड़ेगा, इन में आत्मविश्वास जगाना पड़ेगा।
तदनन्तर पाश्चात्य से एक अन्य साम्राज्यवादी दृष्टि इस देश में आई। वह थी कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद की दृष्टि। इस दृष्टि ने हमें बतलाया कि भारतवर्ष एक उपनिवेश अथवा उपनिवेश-तुल्य समाज है जिसकी जनता दो वर्गों में विभाजित है – शोषक और शोषित, दलनकारी और दलित। अब यह दायित्व कम्यूनिस्ट पार्टी का था कि भारतवर्ष को सब प्रकार के प्रमाद तथा शोषण से मुक्त करे और यहाँ की उत्पादन-व्यवस्था को संकट से बाहर निकाले। भारतवर्ष के प्रति साम्राज्यवाद की यह चौथी दृष्टि थी।
इन समस्त साम्राज्यवादी दृष्टियों के सम्पात का परिणाम हमारे लिए गम्भीर हो चला है, भयावह हो उठा है। आज इस देश में, विशेषतया इस देश के शासक वर्ग में और हमारे हिन्दू मनीषियों तथा हिन्दू समाज के शालीन वर्ग में जिस दृष्टि का बोलबाला है वह उस राष्ट्रदृष्टि से सर्वथा विपरीत है जो हमें स्वदेशी आन्दोलन के युग में मिली थी, जो हमें उस समय के अपने महापुरुषों से मिली थी।
आज हम लोगों से कहा जा रहा है कि भारतवर्ष एक अविभाज्य समष्टि नहीं है, एक देश नहीं है। हम लोगों से कहा जा रहा है कि भारतवर्ष एक उपमहाद्वीप है और उसका जो विभाजन अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, हिन्दुस्तान तथा बांग्लादेश के रूप में हुआ है वह इसलिए समीचीन है कि उसमें बसने वाली अनेक जातियों को अपना-अपना अलग स्वदेश चाहिए। परिणामस्वरूप भारतवर्ष को किसी एक समाज का स्वदेश नहीं माना जा सकता। अकेले हिन्दू समाज का तो बिल्कुल नहीं।
फिर हम लोगों को बतलाया जाता है कि इस उपमहाद्वीप का इतिहास केवल हिन्दू समाज का, हिन्दू जाति का ही इतिहास नहीं है। अब यह देश एक धर्मशाला माना जाने लगा है जिसमें अनेक प्रकार के आक्रान्ता, पश्चिम तथा पूर्व तथा अन्य दिशाओं से समय-समय पर आते रहे हैं। इस प्रकार भारतवर्ष का इतिहास इन आक्रान्ताओं का ही इतिहास बनकर रह गया है। अतएव आप लोग जब इस देश के विश्वविद्यालयों, कॉलेजों तथा स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले इतिहास का अवलोकन करते हैं तो आप देखते हैं कि इस इतिहास में एक प्राचीन पर्व है जिसे हिन्दू पर्व कहा जाता है, एक मध्यकालीन पर्व है जिसे मुस्लिम पर्व कहा जाता है और एक आधुनिक पर्व है जिसे ब्रिटिश पर्व कहा जाता है। अब तो एक समकालीन पर्व का, स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद शुरू होने वाले पर्व का समावेश भी इस देश के इतिहास में हो गया है। उस पर्व के सूत्रधार तथा जनक का नाम भी हमें बतलाया जाता है।
तदन्तर हम लोगों को समझाया जाता है कि भारतवर्ष का समाज एक समरस समाज नहीं है, वरन् वह एक बहु-जातीय, बहु-राष्ट्रीय, बहुभाषी समाज है। और भी अनेक प्रकार के ‘बहु’ उस समाज में देखे जाते हैं। हम लोगों को यह समझाया जाता है कि भारतीय संस्कृति हिन्दू संस्कृति नहीं वरन् एक संकर संस्कृति है जिसमें स्वदेशी तथा विदेशी कई एक संस्कृतियों का समावेश है। यह सब सुनकर मुझे कभी-कभी हँसी आने लगती है। हम जिस भारतीय संगीत की चर्चा करते हैं, वह हिन्दू संगीत है, हम जिस भारतीय मूर्ति-शिल्प की चर्चा करते हैं, वह हिन्दू मूर्ति-शिल्प है, हम जिस भारतीय स्थापत्य की चर्चा करते हैं, वह समस्त, उन कतिपय गौण अंगो को छोड़कर जो विदेशी आक्रान्ता अपने साथ ले आये थे, हिन्दू स्थापत्य है। भारतीय साहित्य की तो बात ही क्या, वह तो निन्यानवे प्रतिशत हिन्दू साहित्य है। यह समस्त सांस्कृतिक सम्पदा हिन्दू समाज की थाती है। हिन्दुओं ने इसका सृजन किया है हिन्दुओं ने ही इसका संरक्षण किया है। आज भी हिन्दू ही इसको समृद्ध तथा प्रवृद्ध कर रहे हैं। किन्तु फिर भी यदि यह दावा किया जाता है कि इस देश की संस्कृति हिन्दू संस्कृति है और उस संस्कृति का इतिहास हिन्दू इतिहास का अंग है, तो लोगों को बुरा-सा लगता है। हिन्दू संस्कृति की बात करने वालों पर सम्प्रदायवादी होने का दोष लगाया जाता है।
किन्तु सबसे अद्भुत घटना जो इस देश में घटी है वह यह है कि इस देश का धर्म अब सनातन धर्म नहीं रहा। सनातन धर्म को अब इस देश में आदिम युग का अंधविश्वास समझा जाता है। कुछ लोग वेदान्त को ले लेते हैं और खूब बढ़-चढ़ कर उसकी चर्चा करते रहते हैं। कुछ अन्य लोग गीता को ले लेते हैं और गीता का गुणगान करते हुए नहीं अघाते। कुछ अन्य लोग सनातन धर्म के अन्यान्य पक्षों को लेकर चर्चा चलाते हैं, योग इत्यादि की व्याख्या करते हैं। इन लोगों को ख्याति प्राप्त होती है। चारों ओर इन लोगों का नाम लिया जाता है। ये लोग पुस्तकें लिखते हैं, भाषण देते हैं। किन्तु इन लोगों से जब यह कहा जाता है कि सनातन धर्म ने ही इस समस्त अध्यात्म-सम्पदा का सृजन किया है, इन सारे दर्शन-शास्त्रों का संग्रह किया है, इन सारे विधि-विधानों का विकास किया है, इस सारी संस्कृति को सँवारा है तो ये लोग हामी भरना नहीं चाहते। एक नए धर्म ने सनातन धर्म का स्थान ले लिया है। इन नए धर्म का नाम है सैक्युलरिज्म।
हम लोगों को समझाया जा रहा है कि सैक्युलरिज्म के सहारे ही यह देश एक संगठित राष्ट्र बनेगा, सेक्युलरिज्म के धरातल पर ही राष्ट्रीय ऐक्य की साधना की जा सकती है। अतएव एक राष्ट्रीय ऐक्य समिति का गठन किया गया है। इस समिति ने भारत-सरकार के शिक्षा मन्त्रालय को एक ऐसा इतिहास लिखवाने का आदेश दिया है जिसमें मुसलमान आक्रमणकारियों को विदेशीय न कहा जाए, जिसमें इस्लाम के साम्राज्यवाद को बर्बर और विजातीय न माना जाए। हम लोगों से यह अपेक्षा की जा रही है कि हम इस्लाम को एक भारतीय धर्म के रूप में स्वीकार कर लें और उसको सम्मान का वही पद प्रदान करें, जो हम सनातन धर्म को देते आये हैं। इस तर्क का विस्तार अभी हमारे इतिहास के तथाकथित ब्रिटिश पर्व तक नहीं किया गया है। किन्तु कल को कुछ ऐसी आवाजें उठ सकती हैं कि अंग्रेजो को भी आक्रमणकारी तथा अनाचारी न कहा जाए। सो इसलिए कि अंग्रेजों ने हमें अंग्रेजी पढ़ाई, अंग्रेजी साहित्य से अवगत कराया, इस देश में हस्पताल, स्कूल तथा कॉलेज खोले और प्रत्येक प्रकार के आधुनिक उपकरण जुटाए।
ऐसी एक अवस्था आज इस देश में व्याप्त है। आज उस राष्ट्रदृष्टि का प्रायः पूर्ण विलोप हो चुका है जिसका उदय स्वदेशी आन्दोलन के समय हुआ था, जिसने हमारे जनगण को जगाया था और हमारे स्वाधीनता-संग्राम को आगे बढ़ाया था। राष्ट्रदृष्टि का विलोप इस देश में अन्यत्र इतना नहीं हुआ है जितना कि बंगाल में अथवा केरल में अथवा उन अन्य अंचलों में जहाँ अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार अपेक्षाकृत अधिक देखा जाता है। आज ऐसी अवस्था इस देश की हो गई है।
सैक्युलरिज्म को ही ले लीजिए। हमने इस धारणा का आयात आधुनिक योरप से किया है। योरप में ईसाई चर्च ने बहुत रक्तपात किया था एक-सौ-वर्ष, दो-सौ-वर्ष व्यापी युद्ध लड़े थे। ईसाइयत का उदय होते ही योरप एक गहन अंधकार में डूब गया था। मानवीयता, बुद्धिप्रवणता तथा सर्वजन हिताय-भावना जिनको मानव-सुलभ आस्थाएँ माना जाता है, वे सब ईसाइयत की हठधर्मिता के नीचे दब गईं थीं। योराप के कुछ लोगों ने ईसाइयत के विषय में विचार करना शुरू किया, विशेषतया ईसाइयत के उस पक्ष का परीक्षण जिसके अनुसार चर्च ने राजतन्त्र को पाशबद्ध किया हुआ था। योरप का सम्पर्क भारत, चीन तथा कई-एक अन्य देशों की प्राचीन संस्कृतियों से हो चुका था। फलस्वरूप वहाँ मानववाद, बुद्धिवाद तथा विश्ववाद की एक नई लहर उठने लगी थी। वहाँ चर्च के विरूद्ध एक संघर्ष का सूत्रपात हुआ था और धीरे-धीरे राजतन्त्र को चर्च के चंगुल से छुड़ा लिया गया था। इस संघर्ष ने ही योरप में सैक्युलरिज्म की धारणा को जन्म दिया था। यह एक बहुत ही कल्याणकारी धारणा थी, विशेषतया उन देशों के लिए जो मतान्ध राजतन्त्रों द्वारा पीड़ित थे, जो ईसाइयत की अमानवीय तत्वमीमांसा द्वारा दलित थे। यह धारणा अब भी उन देशों के लिए कल्याणकारी है जो इस्लाम के चंगुल में फंसे हुए हैं।
To be continued…
Three more parts to come. Read the previous part here.
[योगक्षेम, कलकत्ता, की मासिक सभा में 4 दिसंबर, 1983 को दिया गया श्री सीताराम गोयल का भाषण]
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