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जाति-विहीन समाज का सपना
क्या अपने लंबे अनुभव के प्रकाश में यह आवश्यक नहीं कि हम नए सिरे से जाति-संस्था को समझने का प्रयास करें? क्यों यह जाति-संस्था समूचे विश्व में केवल भारत और विशेषकर हिंदू समाज का ही वैशिष्ट्य है? भारतीय मिट्टी और इतिहास में इसकी जड़ें कहाँ हैं? यदि इसके पीछे कोई जीवन-दर्शन है तो वह क्या है? यदि यह मानव-विरोधी, काल-बाह्य और अप्रासंगिक संस्था है तो यह अपने आप मर क्यों नहीं जाती? क्या है जो इसे जिंदा रखे हुए है? पर इन सब प्रश्नों में प्रवेश करने के पूर्व आवश्यक है कि हम यह जानें कि यूरोपीय यात्रियों, मिशनरियों, ब्रिटिश शासकों इत्यादि ने जाति-संस्था को समय-समय पर किस रूप में देखा और उसके प्रति क्या रणनीति अपनाई?
क्या हमारे लिए यह गंभीर चिंता का विषय नहीं होना चाहिए कि जिस जाति-विहीन समरस समाज को खड़ा करने का संकल्प लेकर स्वाधीन भारत ने अपनी यात्रा प्रारंभ की थी, वही जाति-संस्था उनचास वर्ष बाद भी हमारे सार्वजनिक जीवन का केंद्र-बिंदु बनी हुई है? जरा स्मरण करें उन दिनों के आवेश की, जिसके वशीभूत होकर हमने जाति-संस्था के अस्तित्व को ही नकार दिया था। शिक्षा संस्थाओं, सरकारी कार्यालयों, न्यायालयों इत्यादि सब जगह भरे जानेवाले फॉर्मों में से हमने ‘जाति’ के कॉलम को समाप्त कर दिया था। ब्रिटिश शासन काल में सन् १८७१ से १९४१ तक जितनी दस वर्षीय जनगणनाएँ हुईं उनमें ‘जाति’ को ही सामाजिक पहचान और वर्गीकरण का मुख्य आधार माना गया था। किंतु हमने स्वाधीन भारत की प्रथम जनगणना (१९५१) करते समय ‘जाति’ के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं किया; किसी से जाति न पूछी गई, न दर्ज की गई। हमने यह विश्वास कर लिया कि जाति एक ऐसी सतही, कृत्रिम चीज है जिसकी ओर से आँखें मूँद लेने पर वह अपने आप मर जाएगी।
हाँ, थोड़ी सी समस्या अनुसूचित जातियों को लेकर जरूर खड़ी हुई थी। इन जातियों को सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के गड्ढे से बाहर निकालने के लिए शिक्षा, नौकरियों एवं विधानमंडलों आदि में आरक्षण का सहारा देने के बारे में राष्ट्रीय सहमति थी। यह सुविधा देने के लिए ऐसी जातियों के नामों की राज्यशः सूचियों का बनाना आवश्यक था। अनुसूचित जातियों के लिए निर्धारित आरक्षण की सुविधा पाने के अधिकारी व्यक्तियों और परिवारों की पहचान के लिए जनगणना, मतदाता सूचियों और सभी सार्वजनिक समस्याओं व कार्यालयों में अनुसूचित जाति जैसा वर्गीकरण अनिवार्य हो गया। किंतु संविधान सभा में सभी पक्षों के प्रतिनिधिगण लंबे विचार मंथन के पश्चात् इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हिंदू समाज-व्यवस्था के कारण पिछड़ गई जातियों को शेष समाज के समकक्ष आने के लिए आरक्षण की वैसाखी की आवश्यकता दस वर्ष से अधिक समय तक नहीं पड़ेगी। अतः केवल दस वर्ष तक ही आपद्धर्म के रूप में अनुसूचित जातियों का अलग उल्लेख करने की आवश्यकता रहेगी। उसके बाद वह भी समाप्त हो जाएगी और तब रह जाएगा जाति-संस्था से पूरी तरह मुक्त एक जाति-विहीन समरस समाज।
पहले तो जातीय वर्गीकरण केवल अनुसूचित जातियों तक ही सीमित था; पर सन् १९८० के बाद मंडल आयोग ने ‘अन्य पिछड़ी जातियों’ नामक एक नए वर्ग को मान्यता दे दी। अन्य पिछड़ी जातियों की जनसंख्या के आँकड़ों के लिए मंडल आयोग को ब्रिटिश काल की सन् १९३१ की जनगणना का सहारा लेना पड़ा, क्योंकि स्वतंत्र भारत की जनगणना रिपोर्ट में तो जातिगत आँकड़े उपलब्ध ही नहीं थे। अब बात फारवर्ड, बैकवर्ड और अनुसूचित जाति जैसे तीन वर्गों तक ही सीमित नहीं रह गई है। यादव, कुर्मी, लोध, गुज्जर, जाटव, वाल्मीकि इत्यादि सभी जातियों ने अपनी-अपनी जनसंख्या और पहचान को उछालना शुरू कर दिया है। अलग-अलग जातियों के सम्मेलन होने लगे हैं।
जातिवाद की यह बीमारी अब राजनीतिज्ञों से आगे बढ़कर प्रशासन-तंत्र में फैल गई है। प्रत्येक सरकारी कर्मचारी के मन में यह धारणा बैठती जा रही है कि उसकी पदोन्नति या पदावनति उसकी जाति से जुड़ी हुई है। जाति अब शर्म की नहीं, गर्व की चीज बनती जा रही है। जो मार्क्सवादी लोग वर्ग सिद्धांत के आवेश में कल तक जाति-संस्था को स्वीकार ही नहीं करते थे, वही अब जाति के महत्त्व और सार्थकता की चर्चा करने लगे हैं। एस.जी. सरदेसाई, इंद्रजीत गुप्त, अशोक मित्र, मोहित सेन, शरद पाटील, गैल ओमवेट जैसे वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता और बुद्धिजीवी अब खुलेआम कह रहे हैं कि अब तक हम गलती पर थे, क्योंकि हमने भारत में जाति और वर्ग को एक-दूसरे से अलग करके देखा। यहाँ तो जाति ही वर्ग है । इसलिए हमें जाति की ओर नई दृष्टि से देखना होगा और हिंदुत्व के विरुद्ध अपनी लड़ाई में वर्गवाद के बजाय जातिवाद को ही अपने मुख्य हथियार के रूप में इस्तेमाल करना होगा। जातिवाद के इस पुनरोदय का परिणाम क्या भावी जनगणना में ‘जाति’ के कॉलम की वापसी के रूप में नहीं होगा?
ऐसा क्यों हुआ? जिस जाति-संस्था को हम जड़-मूल से मिटा देना चाहते थे, वह हमारे अड़तालीस वर्ष लंबे प्रयत्नों के बाद भी मिटने के बजाय दिनोदिन सुदृढ़ क्यों होती जा रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि जाति-संस्था को सही रूप में न देख पाने के कारण हमने उसे मिटाने का रास्ता ही गलत चुना हो? आखिर हमने ऐसा क्यों मान लिया कि जाति-संस्था मात्र सामाजिक विकृति है और राष्ट्रीय एकता एवं प्रगति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है? यह दृष्टि हमें कहाँ से मिली? कहीं अपनी अधिकतर धारणाओं और मान्यताओं के समान इस दृष्टि को भी हम ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की विरासत के रूप में तो नहीं ढो रहे हैं?
क्या अपने लंबे अनुभव के प्रकाश में यह आवश्यक नहीं कि हम नए सिरे से जाति-संस्था को समझने का प्रयास करें? क्यों यह जाति-संस्था समूचे विश्व में केवल भारत और विशेषकर हिंदू समाज का ही वैशिष्ट्य है? भारतीय मिट्टी और इतिहास में इसकी जड़ें कहाँ हैं? यदि इसके पीछे कोई जीवन-दर्शन है तो वह क्या है? यदि यह मानव-विरोधी, काल-बाह्य और अप्रासंगिक संस्था है तो यह अपने आप मर क्यों नहीं जाती? क्या है जो इसे जिंदा रखे हुए है? पर इन सब प्रश्नों में प्रवेश करने के पूर्व आवश्यक है कि हम यह जानें कि यूरोपीय यात्रियों, मिशनरियों, ब्रिटिश शासकों इत्यादि ने जाति-संस्था को समय-समय पर किस रूप में देखा और उसके प्रति क्या रणनीति अपनाई?
Source : [नवभारत टाइम्स, ७ सितम्बर, १९९५] [ जाति विहीन समाज का सपना – स्वरूप, देवेंद्र , Prabhat Prakashan]
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