संवत्सर और ऋतुयें: वैदिक अवधारणा

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  • Published on: 2025-06-09 03:06 pm

संवत्सर और ऋतुयें: वैदिक अवधारणा

वैदिक मास प्रकारांतरेण प्रकृति, खगोल विज्ञान, जलवायु परिवर्तन और आध्यात्मिक विकास का समुचित अध्ययन है। ऋतुओं के अनुरूप वैदिक मासों का विभाजन कृषि और स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से अत्यंत उपयोगी है। यह धार्मिक दृष्टि से प्रत्येक मास में विशिष्ट पर्व और उपासना का प्रावधान है, जिससे समाज में आध्यात्मिक जागरूकता बनी रहती है।

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  समय मापन और उसके विभाजन की परंपरा मानव सभ्यता के विकास के साथ ही प्रारंभ हो गई थी। विभिन्न संस्कृतियों और सभ्यताओं ने अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप कैलेंडर प्रणाली विकसित की। भारतीय कैलेंडर और पश्चिमी (ग्रेगोरियन) कैलेंडर समय मापन की दो प्रमुख प्रणालियाँ हैं, जो अपनी गणना, संरचना और उपयोगिता में भिन्न हैं। भारतीय कैलेंडर खगोलीय गणनाओं एवं धार्मिक अनुष्ठानों पर आधारित है, जबकि पश्चिमी कैलेंडर मुख्यतः सौर गणना पर केंद्रित है और वैश्विक स्तर पर आधिकारिक रूप से अपनाया गया है। भारत एक अलग और दिव्य चेतना  युक्त राष्ट्र है जहां अन्य देशों में केवल एक या दो  ही ऋतुयें होती हैं वहीं  भारत वर्ष में ६ ऋतुयें पाई जाती हैं । ये कोई कल्पना प्रस्फुत  कथा नहीं है अपितु श्रुति सम्मत मत है।

  भारत में समय गणना की परंपरा वेदों, पुराणों और ज्योतिष शास्त्रों में वर्णित है। भारतीय कैलेंडर प्रणाली चंद्र और सौर दोनों पर आधारित होती है, जिसे सौर-सिद्धांत और चंद्र-सिद्धांत के नाम से जाना जाता है। आर्यन सिद्धांत के अनुसार पहिले केवल दो ही ऋतु थीं, फिर बढ़ कर 6  हुई। मान्यता अनुसार ऋतु का तात्पर्य रीतिओं के समय से देखा जाता है। ऋतु परिवर्तन एक सतत क्रमिक प्रक्रिया है । ऋग्वेद में कालचक्र और नक्षत्रों की गति का विस्तृत उल्लेख मिलता है। वहीं, पश्चिमी कैलेंडर मुख्य रूप से जूलियन और बाद में ग्रेगोरियन प्रणाली से विकसित हुआ। तालिका: 

ऋगवेद मण्डल 

वसंत 

ग्रीष्म 

वर्षा  

शरद 

हेमंत 

शिशिर 




8



2






3






4






5





6





7



5


8







9







10

1


8

2


अथर्ववेद 

11


1

22

5


ऋग्वैदिक आर्य 3, 5 और 6 भाग में साल को बांटते है। ये रथ के 3 पहिये के तरह 3 ऋतु देखते हैं । ये 3 वसंत, ग्रीष्म और शरद ये तीन पुरुषसूक्त में ही एक साथ आते हैं। 

  भारतीय पंचांग या वर्ष पंचांग पद्धति पर आधारित होता है, जो तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण के आधार पर समय को विभाजित करता है। इसमें मलमास और अधिकमास जैसी अवधारणाएँ भी शामिल होती हैं, जो इसकी गणना को अत्यंत सटीक बनाती हैं। इसके विपरीत, पश्चिमी कैलेंडर में वर्ष को 365 या 366 दिनों में विभाजित किया गया है, जिसमें हर चौथे वर्ष लीप वर्ष का समावेश किया जाता है। वस्तुतः कालमान की सबसे बड़ी इकाई का नाम संवत या संवत्सर है । निरुक्त की भाषा में जिसमें प्राणी सम्यक प्रकार से रहते हैं उसे संवत्सर कहते हैं। संवत में ५/६ ऋतुयें  पाई जाती हैं । ५ होने के पीछे का कारण शतपथ-ब्राह्मण में शिशिर और हेमंत का एक में समाहित होना है । हिन्दू काल के अनुसार यह १२ माह या १२ पूर्णिमा में विभक्त है। ‘मासा मानात्’ मापने की इकाई के कारण यह मास या माह कहे जाते हैं। एक संवत में ३६० दिन पाए जाते हैं। 

  भारतीय कैलेंडर विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग रूपों में प्रचलित है, जैसे विक्रम संवत, शक संवत, तमिल कैलेंडर, मलयालम कैलेंडर आदि। यह मुख्य रूप से धार्मिक और सांस्कृतिक अनुष्ठानों के लिए उपयोग किया जाता है। पश्चिमी कैलेंडर को प्रशासनिक, वैज्ञानिक और व्यावसायिक कार्यों के लिए अपनाया गया है, क्योंकि यह अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप है।

   समय और तिथियों की गणना की यह भिन्नता दोनों कैलेंडरों की उपयोगिता और महत्व को दर्शाती है। भारतीय कैलेंडर जहाँ धार्मिक, खगोलीय और सांस्कृतिक संदर्भों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, वहीं पश्चिमी कैलेंडर वैश्विक मानकों और व्यावसायिक गतिविधियों के लिए सुविधाजनक है।

वैदिक वर्ष और भारतीय कालगणना

  भारतीय कालगणना अत्यंत प्राचीन और खगोलीय आधार पर विकसित की गई प्रणाली है, जो वेदों और पुराणों में वर्णित है। वैदिक वर्ष की गणना सौर और चंद्र चक्रों पर आधारित होती है और इसे हिंदू पंचांग के माध्यम से व्यवस्थित किया जाता है।

वैदिक वर्ष की अवधारणा

  वैदिक काल में समय की गणना ब्रह्मांडीय गतिविधियों के आधार पर की जाती थी। ऋग्वेद और यजुर्वेद में वर्ष, मास, पक्ष, ऋतु और युगों का विस्तृत वर्णन मिलता है। वैदिक वर्ष सौर सिद्धांत पर आधारित होता है और इसे निम्नलिखित भागों में विभाजित किया गया है:

  1. संवत्सर (वर्ष) – 12 मासों का एक चक्र

  2. ऋतुएँ – छह ऋतुएँ (वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर)

  3. मास (महीने) – चंद्रमा की गति के अनुसार 12 मास

  4. पक्ष – शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष

  5. तिथि – 30 तिथियाँ (पूर्णिमा से अमावस्या तक)


"षड्तुर्वत्सरो मासः पक्षौ तिथ्य: क्षणादयः।
यथावदेकतो नित्या: कालस्यैते प्रकल्पिता॥"

  अर्थात्, समय की गणना क्षण से लेकर वर्ष तक विभिन्न खगोलीय गतिविधियों के अनुसार की गई है।

वैदिक संवत्सर और उनका महत्व

  भारतीय पंचांग में प्रत्येक वर्ष का एक नाम होता है, जिसे संवत्सर कहा जाता है। यह 60 वर्षों के चक्र में दोहराया जाता है। प्रत्येक संवत्सर का अपना विशेष खगोलीय और ज्योतिषीय महत्व होता है। यह वस्तुतः दो अयन उत्तरायण और दक्षिणायन में विभक्त रहते हैं। प्रत्येक संवत में तीन चतुर्मास होते हैं । फाल्गुनी, आषाढी और कार्तिकी। इनमें निम्न प्रमुख संवत्सर प्रणाली हैं :

प्रमुख संवत्सर प्रणाली:

  1. विक्रम संवत – राजा विक्रमादित्य द्वारा प्रचलित (57 ईसा पूर्व)

  2. शक संवत – राजा कनिष्क द्वारा प्रारंभ (78 ईस्वी)

  3. कलि संवत्सर – महाभारत युद्ध से जुड़ा (3102 ईसा पूर्व) 

  इन संवत्सरों का उपयोग धार्मिक अनुष्ठानों, त्योहारों और ज्योतिषीय गणनाओं में किया जाता है।

वैदिक वर्ष और पश्चिमी कैलेंडर में अंतर

  1. गणना का आधार – वैदिक वर्ष चंद्र-सौर गणना पर आधारित है, जबकि पश्चिमी (ग्रेगोरियन) कैलेंडर पूर्णतः सौर वर्ष पर आधारित है।

  2. महीनों की संरचना – वैदिक पंचांग में महीनों के नाम नक्षत्रों और ऋतुओं के आधार पर होते हैं (जैसे चैत्र, वैशाख), जबकि पश्चिमी कैलेंडर में रोमन नाम होते हैं (जैसे जनवरी, फरवरी)।

  3. लीप वर्ष की अवधारणा – वैदिक पंचांग में अधिकमास (अतिरिक्त महीना) जोड़ा जाता है, जबकि ग्रेगोरियन कैलेंडर में हर चार साल में एक दिन जोड़ा जाता है।

  वैदिक वर्ष केवल एक समय मापन पद्धति नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, धार्मिक परंपराओं और खगोलशास्त्र से गहराई से जुड़ा हुआ है। इसकी गणना अत्यंत वैज्ञानिक और खगोलीय सिद्धांतों पर आधारित है, जो आधुनिक गणनाओं से भी मेल खाती है। पश्चिमी कैलेंडर अंतरराष्ट्रीय मानकों के लिए अधिक उपयुक्त है, लेकिन वैदिक वर्ष धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से आज भी महत्वपूर्ण बना हुआ है। इसमें ६ ऋतु का वर्णन मिलता है : वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर । इसमें १२ वैदिक मास इस प्रकार हैं : 

वैदिक ऋतु, वैदिक मास और आधुनिक मासों का तालमेल

ऋतु (Vedic Season)

वैदिक मास (संस्कृत नाम)

मास (Gregorian Calendar)

वसंत ऋतु (Spring)

१. मधु (चैत्र)

मार्च-अप्रैल (March-April)


२. माधव (वैशाख)

अप्रैल-मई (April-May)

ग्रीष्म ऋतु (Summer)

३. शुक्र (ज्येष्ठ)

मई-जून (May-June)


४. शुचि (आषाढ़)

जून-जुलाई (June-July)

वर्षा ऋतु (Monsoon)

५. नभ (श्रावण)

जुलाई-अगस्त (July-August)


६. नभस्य (भाद्रपद)

अगस्त-सितंबर (August-September)

शरद ऋतु (Autumn)

७. ईष (आश्विन)

सितंबर-अक्टूबर (September-October)


८. ऊर्ज (कार्तिक)

अक्टूबर-नवंबर (October-November)

हेमंत ऋतु (Pre-Winter)

९. सहस (मार्गशीर्ष)

नवंबर-दिसंबर (November-December)


१०. सहसस्य (पौष)

दिसंबर-जनवरी (December-January)

शिशिर ऋतु (Winter)

११. तप (माघ)

जनवरी-फरवरी (January-February)


१२. तपस्य (फाल्गुन)

फरवरी-मार्च (February-March)

वैदिक संहिताओं में 5 ऋतु का वर्णन मिलता है । प्रजापति के यज्ञ के वर्णन में भी केवल 5 ऋतु वर्णित हैं । इनमें  यह 5 ऋतुयें  5 दिशा की द्योतक हैं । वसंत पूर्व , ग्रीष्म दक्षिण, वर्षा पश्चिम , शरद उत्तर , हेमंत & शिशिर ऊपर की द्योतक हैं । जिनमें सदा ही वसंत प्रथम ऋतु परिगणित होगी।

तालिका : 

पंचऋतु 

षडऋतु 

ऋतु 

त.स. 2.6.1.1 

श.ब्रा. 1.5.4.1

श.ब्रा.2.1.3.1 

वैदिक ऋतु 

देवता 

ऋतु 

वैदिक ऋतु

माह 

वसंत 

समिध 

वसंत 

वसु 

वसंत 

वसंत 

मधु 







माधव 

ग्रीष्म

तनुनपाद 

ग्रीष्म

रुद्र 

ग्रीष्म

ग्रीष्म

शुक्र 







शुचि 

वर्षा

ईड  

वर्षा

आदित्य 

वर्षा

वर्षा

नभ 







नभस्य

शरद

बर्हीहृ 

शरद

रिभु 

शरद

शरद

ईष 







ऊर्ज 

हेमंत & शिशिर

स्वाहा 

हेमंत

मरुत्  

हेमंत 

हेमंत 

सहस 







सहस्य 





शिशिर

शिशिर

तपस 







तपस्य

इनके इतर सभी ऋतुयों के अपने छंद अपने यज्ञ अपने उपहार अपने अग्नि प्रकार तथा अपने अलग पुरोहित होते थे । यहाँ तक का वर्णन है की ऋतु के अनुसार धुएं का रंग भी अलग पाया जाता है। ऋतुओं में तीन ऋतु वसंत ग्रीष्म और वर्षा देव के लिए तथा तीन ऋतु शरद हेमंत और शिशिर पितर के लिए होती हैं। कुछ संहिता में इनके पृथक नाम भी मिलते है: नैदाग, कुर्वंत, संयंत, पिनवन्त, उद्यंत, और अभिभुव। 

  इनकी मुख्य विशेषताएँ हैं कि ये वैदिक महीनों के शुद्ध संस्कृत नाम ऋग्वेद और यजुर्वेद में वर्णित हैं। प्रत्येक मास सूर्य के राशि परिवर्तन से जुड़ा होता है। आधुनिक कैलेंडर से तुलना करने  पर इस चार्ट से ग्रेगोरियन कैलेंडर और वैदिक पंचांग का सही तालमेल समझा जा सकता है। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि वैदिक मासों का नामकरण खगोलीय और प्राकृतिक घटनाओं पर आधारित था। ऋतुओं के अनुसार महीने तय होते थे, जिससे कृषि, मौसम और धार्मिक पर्वों का सही सामंजस्य बना रहता था। वर्तमान में भी भारतीय पंचांग इन्हीं गणनाओं पर आधारित है।

वैदिक मासों का वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक आधार

  भारतीय कालगणना अत्यंत प्राचीन और वैज्ञानिक है। इसका आधार खगोलीय गणनाओं पर टिका हुआ है। वैदिक काल में समय को नक्षत्रों, ग्रहों और ऋतुओं के अनुसार विभाजित किया गया था। वैदिक मासों के नाम केवल समय का बोध नहीं कराते, बल्कि उनके पीछे गहरे प्राकृतिक और दार्शनिक अर्थ भी निहित हैं। भारतीय कालगणना केवल समय मापने की विधि नहीं है, बल्कि यह प्रकृति, अध्यात्म और मानव जीवन का संतुलित प्रतिबिंब है। वैदिक मासों के नाम केवल संज्ञा नहीं, बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड के चक्र की व्याख्या करते हैं।

 वैदिक मासों के नाम एवं उनके पीछे का तार्किक आधार

हिन्दू माह

वैदिक मास

अर्थ एवं महत्व

चैत्र

मधु

इस मास में प्रकृति नवजीवन प्राप्त करती है। वृक्षों में नई कोपलें आती हैं, पुष्प मधु (शहद) से भर जाते हैं। यह वसंत ऋतु का प्रारंभिक मास है।

वैशाख

माधव

इस माह में सूर्य की किरणें पृथ्वी पर संजीवनी शक्ति प्रदान करती हैं। 

ज्येष्ठ

शुक्र

यह माह गर्मी के चरम पर होता है। ‘शुक्र’ का अर्थ है ‘शुद्धता’ और इस समय गंगाजल पवित्रतम रहता है। यही कारण है कि गंगा दशहरा इसी माह में मनाया जाता है।

आषाढ़

शुचि

इस माह में वर्षा ऋतु का प्रारंभ होता है, जिससे वातावरण शुद्ध (शुचि) हो जाता है। यही कारण है कि इस माह को ‘शुचि’ कहा गया।

श्रावण

नभ

‘नभ’ का अर्थ है ‘आकाश’। इस माह में मेघ आकाश में छा जाते हैं और वर्षा की अधिकता रहती है। श्रावण में भगवान शिव की पूजा विशेष रूप से की जाती है।

भाद्रपद

नभस्य

यह भी ‘नभ’ से जुड़ा है, क्योंकि इस मास में आकाशीय हलचलें अधिक होती हैं। इस माह में गणेश चतुर्थी और श्रीकृष्ण जन्माष्टमी जैसे पर्व आते हैं।

आश्विन

ईष

इस माह में शरद ऋतु का आरंभ होता है और देवी शक्ति की आराधना का समय आता है। ‘ईष’ का अर्थ है ‘ईश्वर’, जिससे यह मास देवी उपासना के लिए शुभ माना जाता है।

कार्तिक

ऊर्ज

इस माह में चंद्रमा और जल की विशेष ऊर्जा होती है। कार्तिक स्नान एवं दीपदान इसी माह में होते हैं, जिससे आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार होता है।

मार्गशीर्ष

सहस

‘सहस’ का अर्थ है ‘साहस और वीरता’। यह माह आध्यात्मिक साधना और योग के लिए उपयुक्त माना गया है। श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है: "मासानां मार्गशीर्षोऽहम्", अर्थात महीनों में मैं मार्गशीर्ष हूँ।

पौष

सहसस्य

इस समय अत्यधिक ठंड रहती है, जिससे शरीर और मन को तपाने की प्रक्रिया होती है। ‘तप’ का अर्थ है ‘संयम और साधना’।

माघ

तप

इस माह में साधना और व्रत का विशेष महत्व है। गंगा स्नान और माघ मेले का आयोजन होता है।

फाल्गुन

तपस्य

इस माह में प्रकृति पुनः जागृत होती है। ‘शुभ’ का अर्थ है ‘मंगलकारी’, क्योंकि इस माह में होली जैसे हर्षोल्लास के पर्व मनाए जाते हैं।

वैदिक मासों की वैज्ञानिकता एवं आध्यात्मिकता के निम्न आधार देखे जा सकते हैं : 

खगोलीय आधार – वैदिक मास चंद्र और सूर्य की गति पर आधारित होते हैं। प्रत्येक मास का नाम प्रकृति की विशेष स्थितियों को दर्शाता है।
ऋतुओं के अनुसार विभाजन – वैदिक मासों का निर्धारण केवल तिथियों से नहीं, बल्कि ऋतु चक्र से भी होता है, जिससे यह कृषि और जीवनशैली के अनुकूल रहता है।
धार्मिक महत्व – हर मास का संबंध किसी न किसी प्रमुख देवता से जोड़ा गया है, जिससे भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है।

वैदिक मास: खगोलीय, वैज्ञानिक और आध्यात्मिक आधार

  भारतीय कालगणना अत्यंत प्राचीन और वैज्ञानिक प्रणाली पर आधारित है। वैदिक मासों का निर्धारण केवल समय मापन के लिए नहीं, बल्कि प्रकृति, ऋतु परिवर्तन, खगोलीय घटनाओं और आध्यात्मिकता को ध्यान में रखकर किया गया है। वैदिक मासों की गणना सूर्य और चंद्रमा की गति के आधार पर होती है, जिससे यह मानव जीवन, कृषि, जलवायु और धार्मिक गतिविधियों से गहराई से जुड़ा हुआ है।

  वैदिक काल में समय की गणना मुख्यतः सौर और चंद्र गणनाओं पर आधारित थी। प्रत्येक वैदिक मास की अवधि चंद्रमा के नवग्रहों और नक्षत्रों के संचरण से निर्धारित होती थी।

चंद्र गणना और मास विभाजन

  भारतीय पंचांग चंद्र मास (Lunar Month) को आधार बनाकर चलता है, जिसमें चंद्रमा के एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या तक के चक्र को एक मास माना जाता है। यह लगभग 29.5 दिनों का होता है। इस प्रकार एक वर्ष में 12 चंद्र मास होते हैं। प्रत्येक चंद्र मास का नाम उस समय प्रमुख नक्षत्र और ऋतु विशेष के अनुसार रखा गया है।

सौर गणना और संक्रांति

  सौर मास सूर्य के 12 राशियों में प्रवेश पर आधारित होते हैं। जब सूर्य किसी एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है, तो इसे संक्रांति कहा जाता है। भारत में विशेष रूप से मकर संक्रांति का अत्यधिक धार्मिक और खगोलीय महत्व है, क्योंकि इस दिन से सूर्य उत्तरायण होता है।

ऋतुओं के अनुसार मास विभाजन और वैज्ञानिक महत्व

  वैदिक काल में मासों का विभाजन केवल तिथियों तक सीमित नहीं था, बल्कि ऋतु चक्र, कृषि और जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखकर किया गया था।

तालिका : 

ऋतु (Season)

वैदिक मास (Vedic Month)

खगोलीय एवं प्राकृतिक महत्व

वसंत (Spring)

मधु (चैत्र),

माधव (वैशाख)

पेड़ों पर नई पत्तियां आती हैं, फूल खिलते हैं, मधुमक्खियों का आगमन होता है।

ग्रीष्म (Summer)

शुक्र (ज्येष्ठ),

शुचि (आषाढ़)

ग्रीष्म की तपिश अपने चरम पर होती है, जल स्रोत सूखने लगते हैं।

वर्षा (Monsoon)

नभ (श्रावण),

नभस्य (भाद्रपद)

आकाश में बादल घिरे रहते हैं, वर्षा ऋतु अपने पूर्ण रूप में होती है।

शरद (Autumn)

ईष (आश्विन),

ऊर्ज (कार्तिक)

मानसून समाप्त हो जाता है, जल स्रोत फिर से भर जाते हैं, आकाश साफ़ हो जाता है।

हेमंत (Pre-Winter)

सहस (मार्गशीर्ष),

सहसस्य (पौष)

ठंडक बढ़ने लगती है, धान और अन्य फसलें पकती हैं।

शिशिर (Winter)

तप (माघ),

तपस्य (फाल्गुन)

अधिक ठंड पड़ती है, प्रकृति निष्क्रिय प्रतीत होती है, पेड़ों के पत्ते झड़ने लगते हैं।

अतएव कहा जा सकता है कि ऋतु आधारित कैलेंडर कृषि, स्वास्थ्य और जीवनशैली के लिए अत्यंत उपयोगी था। विभिन्न मासों में अलग-अलग धार्मिक एवं सामाजिक पर्व मनाए जाते थे, जो प्रकृति एवं समाज को संतुलित रखते थे।

वैदिक मासों का धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व

  भारतीय संस्कृति में वैदिक मासों का धार्मिक महत्व भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि उनका वैज्ञानिक आधार। हर मास को किसी न किसी देवता, पर्व, व्रत और अनुष्ठान से जोड़ा गया है, जिससे समाज में धार्मिक और आध्यात्मिक चेतना बनी रहती है।

वैदिक मास

प्रमुख पर्व एवं धार्मिक महत्व

मधु (चैत्र)

नववर्ष (हिंदू नव संवत्सर), राम नवमी

माधव (वैशाख)

अक्षय तृतीया, बुद्ध पूर्णिमा

शुक्र (ज्येष्ठ)

गंगा दशहरा, निर्जला एकादशी

शुचि (आषाढ़)

गुरु पूर्णिमा, चातुर्मास प्रारंभ

नभ (श्रावण)

सावन सोमवार, नाग पंचमी, रक्षा बंधन

नभस्य (भाद्रपद)

जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी

ईश (आश्विन)

नवरात्रि, दशहरा, शरद पूर्णिमा

ऊर्ज (कार्तिक)

दीपावली, गोवर्धन पूजा, तुलसी विवाह

सहस (मार्गशीर्ष)

गीता जयंती, वैकुंठ एकादशी

सहसस्य (पौष)

मकर संक्रांति, पोंगल

तप (माघ)

माघ स्नान, वसंत पंचमी

तपस्य (फाल्गुन)

महाशिवरात्रि, होली

मान्यता और विश्वास है की प्रत्येक मास में विशिष्ट व्रत और पर्व मनाने से आध्यात्मिक उन्नति संभव होती है तथा  धार्मिक अनुष्ठान और ऋतु आधारित पर्व, मनुष्य के जीवन को प्रकृति से जोड़ते हैं।

  वैदिक मास प्रकारांतरेण  प्रकृति, खगोल विज्ञान, जलवायु परिवर्तन और आध्यात्मिक विकास का समुचित अध्ययन है। ऋतुओं के अनुरूप वैदिक मासों का विभाजन कृषि और स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से अत्यंत उपयोगी है। यह धार्मिक दृष्टि से प्रत्येक मास में विशिष्ट पर्व और उपासना का प्रावधान है, जिससे समाज में आध्यात्मिक जागरूकता बनी रहती है।

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