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- Published on: 2025-02-06 05:31 pm
कुम्भ: प्रयाग-पुण्य और परम्परा
कुंभ मेला भारत में सनातन परंपरा का सबसे बड़ा आयोजन है, जो आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। शास्त्रों में इसे "सर्व सिद्धिप्रद: कुंभ" कहा गया है, जो पुण्य की प्राप्ति और मोक्ष का मार्ग है। यह मेला उन 12 स्थानों पर आयोजित होता है, जहां अमृत की बूंदें गिरी थीं। प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में आयोजित यह पर्व सामाजिक समरसता का प्रतीक है, जहाँ जाति, धर्म और भेदभाव समाप्त हो जाते हैं। कुंभ मेला न केवल भारत, बल्कि विश्वभर में सांस्कृतिक धरोहर के रूप में प्रतिष्ठित है।

कुंभ मेला न केवल भारत बल्कि वैश्विक स्तर पर सनातन परंपरा का सबसे बड़ा समागम माना जाता है। ‘सर्व सिद्धिप्रद: कुंभ:’ शास्त्रीय मान्यता इस पर्व की आध्यात्मिक और सामाजिक महत्ता को प्रमाणित करती है। यह आयोजन भारत के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक इतिहास का एक जीवंत प्रमाण है, जिसकी जड़ें प्राचीन ग्रंथों और लोक परंपराओं में गहरी हैं।यह भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं अपितु वैश्विक जगत में होने वाले सबसे बड़े सनातन समागम है। भारतीय परंपरा में पुरा कल से ही धर्म और शक्ति की महत्ता और उपासना की एक अविच्छिन्न परंपरा रही है।भारतीय परंपरा मर्त्य नहीं अपितु अमर्त्य है, और इस दृष्टि से यह कुंभ मृत्यु लोक का अमृत पर्व है। उक्त है: मृत्योर्मामृतं गमय॥
कुम्भ भारतीयता या हिंदुत्व का नहीं अपितु आज के तथाकथित बुद्धिजीवियों के द्वारा मान्य यूनेस्को द्वारा प्रमाणित, वैश्विक एकता का सबसे बड़ा समागम है। पूज्य संत श्री मिथिलेशनंदिनीशरण जी के शब्दों में हम कह सकते हैं कि ‘महाकुंभ भारतीय अध्यात्म का वैश्विक राजदूत है।’
भारतीयता के अनेकता में एकता का द्योतक यह कुंभ सभी प्रकार के अन्तर को परस्पर समाप्त कर देता है। यहां न कोई जाति बंधन होता हुआ दिखता है न ही धन वैभव का, सभी यहां परस्पर प्रीति पूर्वक हर हर महादेव, जय गंगा मैया और जय प्रयागराज के उद्घोष के साथ ही लोक देवों के जयघोष के साथ प्रीतिपूर्वक स्नान करते हैं। यह बारह वर्षीय लोक वेद का अदभुत समाजस्य कुंभ कहा जाता सकता है। तीर्थराज प्रयाग में आयोजित होने वाला यह समागम अन्य तीन स्थान पर भी होता है। पुरा काल से ही वैदिक और पौराणिक आख्यानों में भी इसका वर्णन प्राप्त है।
कुंभ का उल्लेख वेदों, पुराणों और महाकाव्यों में मिलता है। महाभारत और रामायण में प्रयागराज की महिमा वर्णित है। पौराणिक कथाओं में प्राप्त है कि समुद्र मंथन से उत्पन्न 14 रत्नों में से एक अमृत को प्राप्त करने हेतु जो देव और असुर गणों में छीना झपटी आरम्भ हुई, उसमें से अमृत कलश को लेकर इंद्रपुत्र जयंत भागा, जिससे कि असुर इसके सेवन से वंचित रहें। इसी दौरान कलश से कुछ अमृत बूंदें छलक कर 12 स्थानों पर गिर पड़ीं। उन्हीं 12 स्थानों पर कुंभ का आयोजन होता चला आ रहा है। मान्यता है कि पहले 8 स्थान अंतरिक्षस्थ हैं जहां देव गण कुंभ मनाते हैं अन्तस्थ 4स्थान पृथ्वीस्थ हैं।
वर्तमान समय में कुंभ का आयोजन स्थल ऋषि भारद्वाज की तपोस्थली प्रयाग है, प्रकृष्ट यज्ञ होने के कारण इसे प्रयाग कहा गया है। स्कंद पुराण में कहा गया है “तीर्थराजोत्तमं प्राहुस्त्रिवेणी प्रयागम्“ (प्रयागराज को सभी तीर्थों में श्रेष्ठ कहा गया है।) प्रयाग की ख्याति प्राप्त तारक इतिहास को समझने हेतु कहा गया है कि :
त्रिवेणी माधवं सोमम्, भरद्वाज च वासुकिम्।
वन्दे अक्षयवटम् शेषम् प्रयागम् तीर्थनायके ।।
रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है ‘को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ’ इसके अलग अलग ग्रंथों में अलग अलग महात्म्य का वर्णन है। रामचरितमानस, मार्कण्डेय पुराण स्कन्दपुराण आदि ने इसके महात्म्य को कहा है। पुराणों में प्रयागराज को तीर्थराज कहा गया है। यहाँ गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती का संगम होने के कारण इसे पवित्रता और मोक्ष का अद्वितीय स्थल माना गया है। प्रयागराज का वर्णन सभी तीर्थों में श्रेष्ठ और समस्त पापों का नाश करने वाला स्थल के रूप में किया गया है। प्रयाग महिमा का सुन्दर वर्णन करते हुए कहा गया है कि:
गंगा यमुना सरसई, त्रिवेनी संगम बासुकि नाग।
बेनी माधव अखय बटु, पग पग पुन्य प्रयाग।।
एक अन्य उक्ति में कहा गया है कि जैसे सूर्य ग्रहों में चंद्रमा नक्षत्रों में उत्तम है वैसे ही तीर्थों में प्रयाग श्रेष्ठ है:
ग्रहाणां च यथा सूर्यो नक्षत्राणां यथा शशी।
तीर्थानामुत्तमं तीर्थे प्रयागाख्यमनुत्तमम्।।
प्रयाग के सदृश ही गंगा का भी महत्त्व महाभारत में कहा गया है । महाभारत में गंगा-स्नान का महत्त्व वन पर्व में उल्लिखित है। उल्लेख है कि कुंभ के समय गंगा-स्नान की पवित्रता और पुण्यफल प्राप्त होता है:
गंगायमुनयोर्मध्ये त्रिसंध्यं यः समाचरेत्।
कुंभे स्नात्वा महादेव लोकं प्राप्नोति शाश्वतम्॥
अर्थात् गंगा और यमुना के संगम पर कुंभ के समय स्नान करने वाला व्यक्ति शिवलोक को प्राप्त करता है और शाश्वत मुक्ति का अधिकारी बनता है। कहा गया है कि ‘नास्ति गंगा सम तीर्थम्’ गंगा जैसा कोई तीर्थ नहीं है, इसके इतर गंगा की दुर्लभता में एक पौराणिक पंक्ति है कि:
सर्वत्र सुलभा गंगा, त्रिषु स्थानेषु दुर्लभाः।
गङ्गाद्वारे प्रयागे च, गङ्गासागर सङ्गमे।।
अगर इसमें गंगा, प्रयाग और कुंभ का सुअवसर हो तो इसकी महत्ता और भी बढ़ जाती है।प्रयाग को शास्त्रों में भास्कर क्षेत्र कहा जाता है और इसका संबंध सूर्य–पुत्री यमुना से है, जो यहां गंगा में अपने को समाहित करती है। वस्तुतः प्रयाग केवल सत्य , त्याग और ज्ञान रूपी, गंगा यमुना और सरस्वती का ही नहीं अपितु मानव शरीर के ईडा, सुषुम्ना और पिंगला की द्योतक है । जो सामाजिक और शारीरिक उठान हेतु आवश्यक पहलू हैं। कुंभ का आयोजन विशिष्ट खगोलीय संयोगों पर आधारित होता है।वस्तुतः कुंभ, खगोल और भूगोल की एक ज्योतिषीय घटित घटना का कारण है। यह सूर्य, गुरु और चंद्र के कारण लगने वाला सनातनी मेला है। इसमें भी गुरु और सूर्य की भूमिका महत्वपूर्ण है। कुंभ से संबंधित प्रमुख राशियों में मकर राशि (सूर्य), कुंभ राशि (बृहस्पति), सिंह राशि (सूर्य और बृहस्पति का योग) और मेष राशि (बृहस्पति) प्रमुख हैं। ज्योतिषीय गणनाओं के अनुसार:
१. जब गुरु वृष राशि में और सूर्य मकर राशि में होते हैं, तो प्रयागराज में कुंभ होता है:
वृष राशि गते जीवे,मकरे चन्द भास्करौ।
अमावस्या तदा योगः कुम्भाख्यस्तीर्थ नायके।।
मकरे च दिवानाथे ह्यजगे च बृहस्पतौ।
कुम्भयोगो भवेत तत्र प्रयागे ही अतिदुर्लभः।
२. हरिद्वार में कुंभ तब होता है जब गुरु कुंभ राशि में प्रवेश करता है:
पद्मिनी नायके मेषे कुंभराशि गते गुरौ।
गंगाद्वारे भवेत् योगः कुम्भ नामादोत्तमः ।।
३. उज्जैन में सिंह राशि में सूर्य और गुरु के संयोग से सिंहस्थ कुंभ आयोजित होता है:
मेष राशिगते सूर्ये, सिंहराशि बृहस्पतौ ।
उज्जयान्यां भवेत् कुम्भः तदा मुक्ति प्रदायकः।।
४. नासिक में कुंभ तब होता है जब गुरु और सूर्य दोनों सिंह राशि में स्थित होते हैं:
कर्के गुरुस्तथा भानुश्चन्द्रश्चन्द्रर्क्ष: ।
गोदावर्याम् तदा कुम्भो जायतेऽवनिमण्डले ।।
कुंभ मेले के दौरान शिप्रा स्नान के साथ महाकाल के दर्शन और पूजा को मोक्षदायक माना गया है। स्कंद पुराण में कहा गया है: महाकालेश्वर के समीप बहने वाली शिप्रा नदी का जल पापों का नाश करता है और पुण्य प्रदान करता है।
शिवस्य दक्षिणे भागे यत्र शिप्रा प्रवाहिनी।
पापं हरति संगत्वा पुण्यं दाति निरंतरम्॥
ऐसे ही प्रयाग स्नान के उपरांत श्री काशी विश्वनाथ और नासिक के पास स्थित त्र्यंबकेश्वर मंदिर भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। कुंभ के दौरान श्री काशी विश्वनाथ और त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन को अत्यंत शुभ और मोक्षदायक माना गया है। प्रयाग के इतर यह हरिद्वार उत्तराखंड, उज्जैन मध्य प्रदेश,और नासिक महाराष्ट्र में होता है। कुंभ पौष चतुर्दशी ,पूर्णिमा से आरम्भ हो कर महाशिवरात्रि तक अनवरत चलने वाली एक स्नान, ध्यान, दान और समाज समागम की प्रक्रिया है। कुंभ मेले के दौरान शंकराचार्य महमण्डलेश्वर, महन्त, श्री महंत, नागा साधु, सन्यासी, और विभिन्न अखाड़ों के साधु एकत्र होते हैं। इनके प्रवचन और सत्संग भक्तों के लिए आध्यात्मिक ऊर्जा का स्रोत होते हैं। इसमें मुख्यत: पाए जाने वाले प्रकार निम्न हैं। माघ मेला, कुंभ, अर्ध कुंभ, पूर्णकुम्भ और महाकुंभ।
कुंभ के प्रकार:
माघ मेला – प्रतिवर्ष प्रयागराज में आयोजित होता है।
कुंभ मेला – हर चार वर्ष में एक बार होता है।
अर्धकुंभ मेला – हर छह वर्ष में प्रयागराज और हरिद्वार में आयोजित होता है।
पूर्णकुंभ मेला – प्रत्येक 12 वर्ष में एक बार होता है।
महाकुंभ मेला – प्रत्येक 144 वर्ष में एक बार प्रयागराज में आयोजित किया जाता है।
माघ मेला प्रतिवर्ष, कुंभ प्रत्येक चार वर्ष पर, अर्ध कुंभ केवल प्रयाग और हरिद्वार में प्रत्येक छ: वर्ष के उपरांत, पूर्णकुंभ 12 वर्ष के अनन्तर और प्रति 12 पूर्ण कुंभ के पश्चाद् 144 वर्ष के बाद महाकुंभ का आयोजन होना सुनिश्चित होता है ।
आज के परिदृश्य में यह सामाजिक सुधार का एक बृहत्तर आयोजन है । जो पुरा काल में नीति नियामक हुआ करता था आज सामाजिक स्तर पर एक भाव देश का संचार का द्योतक है । कुंभ में जाति, पंथ और आर्थिक स्थिति का भेद मिट जाता है। करोड़ों श्रद्धालु एक साथ स्नान कर धार्मिक समर्पण व्यक्त करते हैं। यह आज एक परंपरा बन चुका है। जो केवल नीति नियामक ना हो कर लोक हित में श्रद्धा विश्वास और मान्यता के साथ ही अर्थव्यवस्था के आधार स्वरूप में भी सहयोगी की भूमिका निभा रहा है ।
आर्थिक प्रभाव के रूप में देखने पर इस आयोजन से पर्यटन, व्यापार और स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है यह दिखाई देता है। यह कुंभ मेला अब वैश्विक स्तर पर मान्यता प्राप्त कर चुका है और यूनेस्को द्वारा अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।
कुंभ स्नान को आत्मशुद्धि और मोक्ष प्राप्ति का साधन माना जाता है।ऋषि भारद्वाज, संत आदि शंकराचार्य, संत कबीर, गुरुनानक देव जैसे महापुरुषों ने कुंभ की महत्ता का प्रचार किया। वैदिक और पौराणिक ग्रंथों में प्रयागराज को तीर्थराज की उपाधि दी गई है।
कुंभ स्नान के महत्व को बताने वाला एक प्रसिद्ध श्लोक है। श्लोक का अर्थ है कि कुंभ स्नान करने से व्यक्ति को अश्वमेध यज्ञ के हजारों, वाजपेय यज्ञ के शतों, और लाखों प्रदक्षिणा करने के समान पुण्य प्राप्त होता है। इस प्रकार के श्लोकों में कुंभ स्नान के पुण्यफल का वर्णन किया जाता है। कुंभ स्नान और उसके पुण्य के बारे में बताते हैं:
अश्वमेधसहस्त्राणि वाजपेयशतानि च।
लक्षं प्रदक्षिणा भूमेः कुम्भस्नानेन तत्फलम्॥
अन्य उक्ति है कि गंगा, यमुना , और सरस्वती के संगम पर स्नान करने से व्यक्ति के सभी पाप समाप्त हो जाते हैं, और कुंभ स्नान के दौरान भी यही पुण्य मिलता है:
गंगे यमुनया सरस्वत्या सह स्नात्वा पुराणाः।
पापं नष्टं न लभते तु कुम्भे नात्र संशयः॥
कुंभ के दौरान कुछ विशेष तिथियों पर विशेष स्नान पर्व के संगम स्नान का विशेष महत्व है। वे वैकुंठ चतुर्दशी, पौष पूर्णिमा, मकरसंक्रांति, मौनी अमावस्या, वसंत पंचमी, माघी पूर्णिमा, महाशिवरात्रि हैं ।
निष्कर्षत: कुंभ मेला केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिकता की जीवंत अभिव्यक्ति है। इसकी परंपरा, भव्यता और सामाजिक महत्त्व इसे अद्वितीय बनाते हैं। कुंभ न केवल इतिहास, खगोलशास्त्र और अध्यात्म का संगम है, बल्कि यह समरसता, त्याग और आस्था का प्रतीक भी है। हमें देखने पर इतिहास-पुराण का यह प्राप्त होता है कि कुंभ मानव-चेतना के अमृत-शोध का भी रहस्य खोलता है। पूज्य श्री मिथिलेशनंदिनी जी के अनुसार हमारी पूर्वज परंपरा में जीवन-समुद्र को मथा गया है। जीवन के अनेक आयामों में अमृत की पहचान हुई है और उस पहचाने हुए अमृत को सुरक्षित करने तथा आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाने के उपाय किए गए हैं।
ब्रह्मचारी के लिए गुरु का उपदेश अमृत है, गृहस्थ के लिए देवताओं - पितरों - अतिथि को खिलाने से बचा हुआ भोजन अमृत है। साधक के लिए अयाचित भिक्षा अमृत है और आयुर्वेद के लिए गाय का दूध अमृत है। यही अमृत-विचार हमें अनादिकाल से एकत्र होने, परस्पर संवाद और अपनी समेकित जीवन-पद्धति से अपने प्रश्नों के समाधान ढूंढने के लिए प्रेरित करता है। महाकुंभ पर्व भारत के पुरुषार्थ विमर्श का वैश्विक आयोजन है। इसमें लोक पितामह ब्रह्मा, धर्मराज युधिष्ठिर, आदि शंकराचार्य, सम्राट हर्षवर्धन समेत जीवन के विविध आयामों की विभूतियों का इतिहास गुम्फित है। भारत की संत-परम्परा, विद्वत्परम्परा, समस्त वर्ग-वर्ण का बृहत्तर समाज आबाल-वृद्ध नर-नारी के रूप में सब इस महाकुंभ में सम्मिलित होते हैं। भूल-चूक से हुए पापों के प्रायश्चित्त एवं आगे पाप न करने की प्रतिज्ञा का अनुष्ठान है महाकुंभ। अस्तु कुम्भ एक मेल समागम और आयोजन ही नहीं अपितु इन चार स्थानों में लघुभारत के विराट चिंतन, आस्था और लौकिक जगत के पारमार्थिक झुकाव का संगम है।
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