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- Published on: 2025-01-17 03:51 pm
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ध्येय: ‘पंच-परिवर्तन’ से राष्ट्रीय पुनर्निर्माण
इस पंच परिवर्तन में पांच आयाम शामिल किए गए हैं - (1) स्व का बोध अर्थात स्वदेशी, (2) नागरिक कर्तव्य, (3) पर्यावरण, (4) सामाजिक समरसता एवं (5) कुटुम्ब प्रबोधन। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मानना है कि पंच परिवर्तन कार्यक्रम को सुचारू रूप से लागू कर समाज में बड़ा परिवर्तन लाया जा सकता है। स्व के बोध से नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति सजग होंगे। नागरिक कर्तव्य बोध अर्थात कानून की पालना से राष्ट्र समृद्ध व उन्नत होगा। सामाजिक समरसता व सद्भाव से ऊंच-नीच जाति भेद समाप्त होंगे। पर्यावरण से सृष्टि का संरक्षण होगा तथा कुटुम्ब प्रबोधन से परिवार बचेंगे और बच्चों में संस्कार बढ़ेंगे। समाज में बढ़ते एकल परिवार के चलन को रोक कर भारत की प्राचीन परिवार परंपरा को बढ़ावा देने की आज महती आवश्यकता है।
हिन्दू-एकता का भाव लेकर वर्ष १९२५ में महाराष्ट्र के नागपूर में पूज्य डॉ. हेडगेवार के प्रयास से आरंभ ‘शुक्रवारी’ नामक विटप आज अक्षयवट का रूप धर चुका है। विश्व के लगभग ८० देशों में ५० से अधिक संगठन, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कार्यरत हैं । यह संगठन आज अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर चुका है । राष्ट्रोन्नयन तथा सेवा का पर्याय बन चुका यह संगठन प्राकृतिक आपदा हो या मानवकृत राष्ट्र प्रथम का भाव लेकर सभी को समान रूप से सहयोग प्रदान करता रहा है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समाज में सकारात्मक परिवर्तन के लिए गत 99 वर्षों से अविरल कार्यरत है। इसी क्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय कार्यकारी मण्डल की बैठक, मथुरा के परखम गांव में स्थित दीनदयाल उपाध्याय गौ विज्ञान अनुसंधान एवं प्रशिक्षण केंद्र में आयोजित हुई। जिसमें भारतीय समाज में अनुशासन के भाव को बढ़ाने के उद्देश्य से पूज्य सर संघचालक जी ने पंच परिवर्तन का आह्वान किया है जिससे कि अनुशासन एवं देशभक्ति से ओतप्रोत युवा वर्ग अनुशासित होकर राष्ट्रोन्नयन की दिशा में कार्य करने के लिए उद्यत हों। इससे प्रतीत होता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समाज के साथ ही पर्यावरण और सबसे छोटी सामाजिक इकाई परिवार तक पहुँचने के लिए कटिबद्ध है।
इस पंच परिवर्तन में पांच आयाम शामिल किए गए हैं - (1) स्व का बोध अर्थात स्वदेशी,
(2) नागरिक कर्तव्य,
(3) पर्यावरण, (4) सामाजिक समरसता एवं (5) कुटुम्ब प्रबोधन। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मानना है कि पंच परिवर्तन कार्यक्रम को सुचारू रूप से लागू कर समाज में बड़ा परिवर्तन लाया जा सकता है। स्व के बोध से नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति सजग होंगे। नागरिक कर्तव्य बोध अर्थात कानून की पालना से राष्ट्र समृद्ध व उन्नत होगा। सामाजिक समरसता व सद्भाव से ऊंच-नीच जाति भेद समाप्त होंगे। पर्यावरण से सृष्टि का संरक्षण होगा तथा कुटुम्ब प्रबोधन से परिवार बचेंगे और बच्चों में संस्कार बढ़ेंगे। समाज में बढ़ते एकल परिवार के चलन को रोक कर भारत की प्राचीन परिवार परंपरा को बढ़ावा देने की आज महती आवश्यकता है।
ये पांच परिवर्तन आगामी वर्षों में भारतीय समाज को दिशा देने वाले हैं। विषय रूप में देखने में हमें प्राप्त होता है कि इन सभी का आज के समाज में कितना महत्व और अवश्यकता है।
1.
सामाजिक समरसता: सामाजिक समरसता का अर्थ समाज के विभिन्न वर्गों के बीच सौहार्द और प्रेम बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करने से है। उपनिषदों के अनुसार, ब्रह्म ने अपने संकल्प से सृष्टि की रचना की थी. ब्रह्म ने सोचा कि 'एकोहं बहुस्याम' का तात्पर्य है, कि 'मैं एक हूँ, मैं अनेक हो जाऊँ'और इस तरह से उसने स्वयं को कई रूपों में विभक्त कर लिया. सामाजिक समरसता के लिए आवश्यक है कि जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता को समाप्त किया जाए. साथ ही, समाज के सभी वर्गों और वर्णों के बीच एकता स्थापित की जाए क्योंकि हम सभी की एक ही संकल्पना है की “वयं अमृतस्य पुत्रा:” . सामाजिक समरसता का अर्थ है सभी को आत्मवत समझना। इससे ही सभ्य समाज का निर्माण संभव है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दृष्टि में सामाजिक समरसता के लिए लोगों में आपसी प्रेम और सद्भाव आवश्यक है तथा इसके लिए जनमानस में परस्पर प्रेम और सहयोग के प्रति जागरूकता आवश्यकता है। एतदर्थ समुदाय में शिक्षा के माध्यम से इसके विषय में सही जानकारी और सामाजिक समरसता के कार्यक्रमों का समर्थन करना चाहिए. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मानना है कि समाज में परिवर्तन हेतु पञ्च परिवर्तन के अंतर्गत यह एक महत्वपूर्ण विषय है। इसमें सामाजिक समरसता के लिए विभिन्न समुदायों के लोगों के बीच संवाद को बढ़ावा देना चाहिए जिससे समाज में सामूहिक विकास और समृद्धि होती है।
2. कुटुम्ब प्रबोधन: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मत है कि परिवार को राष्ट्र के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली इकाई के रूप में संवर्धित करना आज की मांग है। सर्वसमान्य का यह पुरा काल से ही कहना है कि खुशहाल और स्वस्थ परिवार ही शांतिपूर्ण और समृद्ध समाज की कुंजी हैं। भारत में, वर्षों से एक अनूठी पारिवारिक प्रणाली विकसित हुई है। भारतीय परिवारों ने अन्य देशों की तुलना में अनुपालन और लचीलेपन का अधिक स्तर दिखाया है। सांस्कृतिक रूप से, भारत में परिवारों को संस्कृति के संरक्षण और प्रसार का माध्यम माना जाता है। भारत में परिवार को समाज की मूल इकाई के रूप में देखा जाता है। सभी भारतीय दर्शनों का मूल चार पुरुषार्थों - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की अवधारणा पर आधारित है। इसके साथ चार आश्रम जुड़े हुए हैं। गृहस्थ आश्रम को सबसे महत्वपूर्ण आश्रम घोषित किया गया है। सभी आश्रमों में, विशेष रूप से गृहस्थ आश्रम में, लोगों को तीन ऋणों (ऋणों) - देव ऋण, पितृ ऋण, ऋषि ऋण और समाज ऋण का ध्यान रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। परिवार और वैवाहिक जीवन की भारतीय प्रणाली समाज और आसपास के पारिस्थितिकी तंत्र और ब्रह्मांड के साथ जुड़ी हुई थी। काम साझा करना और शिशुओं का लालन-पालन और देखभाल करना, परिवार के स्वास्थ्य और अखंडता का मूल है। स्वाभाविक रूप से, “सभी के लिए एक, और एक के लिए सभी” पर आधारित प्रणाली भारतीय परिवारों में सफलता का चालक प्रतीत होती है।
पारिवारिक पारिस्थितिकी तंत्र ने सभी व्यक्तियों के लिए सुरक्षा और स्थिरता को बढ़ावा दिया। आज परिवार व्यवस्था में बहुत बदलाव आया है। आज अमेरिका में रहने वाले समकालीन हिंदू परिवारों के सामने कई चुनौतियाँ हैं। हम इन चुनौतियों का सामना कैसे करें और आधुनिक संदर्भ में परिवारों को कैसे खुश और स्वस्थ बनाएँ? क्या हम अपनी संस्कृति से संकेत लेकर उसे वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार ढालकर परिवारों को और मजबूत बना सकते हैं? क्या हम अपने रिश्तों में उतार-चढ़ाव से गुज़रने वाले स्त्री-पुरुषों की पीड़ा को कम करने के लिए विभिन्न स्तरों पर हस्तक्षेप कर सकते हैं? क्या हम दम्पति को उच्च उद्देश्य के बारे में सोचने और उच्च सामान्य भलाई के लिए खुद को समर्पित करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं? क्या हम बच्चों के बड़े होने और खिलने के लिए एक सुखद वातावरण प्रदान कर सकते हैं? ऐसे कई सवाल हैं जिन्हें उठाने, संबोधित करने और उत्तर खोजने की आवश्यकता है। इन मुद्दों पर चर्चा करने और कार्यान्वयन के लिए कार्ययोजना तैयार करने के लिए, यह परामर्श कार्यशाला आयोजित करणे और उनसे इन सभी समस्याओं का समाधान निकालने के लिए आज संघ प्रयासरत है।
3. पर्यावरण संरक्षण: पृथ्वी को माता मानकर पर्यावरण संरक्षण हेतु जीवनशैली में बदलाव करना और इसके लिए सामान्य जनमानस में विचार डालना हमको वेदों से प्राप्त शिक्षा के रूप में प्राप्त है। माता भूमि का मतलब है जन्म स्थान या अपना देश. भारतीय संस्कृति में जन्म भूमि को माता माना जाता है और उस पर बहुत सम्मान दिया जाता है. उक्त है: जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गाऽदपि गरियसी। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में भी भूमि को माता कहा गया है. वेद और पुराणों में भी पृथ्वी को माता का स्थान दिया गया है. अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में कहा गया है,
'माता
भूमिः
पुत्रोऽहं
पृथिव्याः' यानी धरती हमारी माता है और हम इसके पुत्र हैं. हिन्दू धर्म में भूमि को भूदेवी, धरणी, और वसुंधरा के नाम से भी जाना जाता है। हिन्दू धर्म शास्त्रों के मुताबिक, वास्तु देव भूमि के देवता हैं। प्रकृति की शुचिता और पवित्रता बनाए रखना हमारा संवैधानिक दायित्व है। संघ मत में ऐसा मानना है कि हम इसके संरक्षण हेतु कितने प्रकार से कार्य कर सकते है इसको ध्यान में रख कर आज शताब्दी वर्ष में कार्य करना और समाज को प्रेरणा देना है।
4. स्वदेशी और आत्मनिर्भरता: देश की स्वदेशी अर्थव्यवस्था और आत्मनिर्भरता पर जोर। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने 15
अगस्त 2020
को लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित करते हुए आत्मनिर्भर भारत पर जोर दिया और कहा कि आत्मनिर्भर भारत शब्द नहीं, 130 करोड़ देशवासियों के लिए मंत्र है। प्रधानमंत्री ने कहा कि आत्मनिर्भर भारत का आशय केवल आयात कम करना ही नहीं, हमारी क्षमता, रचनात्मकता और कौशल को भी बढ़ाना हैं। हमें मेक इन इण्डिया के साथ साथ मेक फॉर वर्ल्ड की व्यापक संकल्पना के साथ आगे बढ़ना होगा।भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में स्वदेशी की सोच ने ही स्वराज का पाठ प्रशस्त किया। स्वदेशी केवल आकथभक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहा यह आत्मनिर्भरता और स्वावलम्बन का सचूक बन गया। स्वदेश से तात्पर्य स्वदेशी वस्तुओं, स्वदेशी सरकार तथा स्वदेशी व्यवस्था की स्थापना से था। इसे ही आज संघ पुनः मंत्र रूप में लेकर स्वदेशी जागरण मंच के माध्यम से जन जन तक पहुँचने को संकल्पित है। आज की आवश्यकता अनुसार लोकल को वोकल करने की बात को कह रहा है । स्वामी विवेकानन्द ने विदेशों में भारतीय संस्कृति की महानता को, धर्म के विदेशी स्वरूप को स्पष्ट और तार्किक रूप में रखा। जिससे कि भारतीयों में अपने देश व संस्कृति को लेकर एक आत्मनिर्भरता की भावना विकसित और समद्धृ हुई। आज पुनः समाज को उसी दिशा की तरफ उन्मुख करने का प्रयत्न है ।
5.
नागरिक कर्तव्य : प्रत्येक नागरिक का धर्म है कि सामाजिक कर्तव्यों का निर्वहन करे और राष्ट्रहित में योगदान दें। नागरिक कर्तव्य, एक समृद्ध और लोकतांत्रिक समाज में रहने के लिए आवश्यक तत्त्व होते हैं. ये कर्तव्य, नागरिकों की ज़िम्मेदारियां और अधिकार होते हैं. नागरिक कर्तव्यों को पूरा करना एक प्रकार से सरकार और जनमानस के बीच होने वाले अनुबंध का सम्मान होता है. आज के संदर्भ में संवैधानिक कर्तव्यों को निम्न बिंदुओं के रूप में देखा जाता है, जिसके अनुपालन हेतु ही संघ का ऐसा आग्रह है। इनमें निम्न का ध्यान रखना चाहिए जो संविधान में वर्णित हैं:
i.
संविधान का पालन करना और उसके आदर्शों का सम्मान करना
ii.
राष्ट्रगान और राष्ट्रध्वज का सम्मान करना
iii.
देश की रक्षा करना और राष्ट्रीय सेवा देना
iv.
देश की एकता, अखंडता, और संप्रभुता को बनाए रखना
v.
धर्म, भाषा, और क्षेत्र के आधार पर भेदभाव को खत्म करना
vi.
पर्यावरण की रक्षा करना और प्राणियों के प्रति दया रखना
vii.
वैज्ञानिक सोच का विकास करना
viii.
सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना
ix.
हिंसा से दूर रहना
x.
6 से 14 साल के बच्चों को शिक्षा देना
अस्तु समाज के समस्त जन मानस तक पहुँच कर संघ अपने शताब्दी वर्ष में अपना शत प्रतिशत योगदान देते हुए, प्राकृत के साथ ही चेतनता को भी सजग और चैतन्य करने के लिए प्रयासरत है।
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