स्त्री-शिक्षा के मूल उत्थापक: भारतीय-शास्त्र

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  • Published on: 2024-09-09 03:23 pm

स्त्री-शिक्षा के मूल उत्थापक: भारतीय-शास्त्र

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निश्चित ही भारतीय संस्कृति और चिंतन परंपरा की जड़ें वटवृक्ष के सदृश व्यापक और सुदृढ़ हैं। इसके प्रत्येक अंग-उपांग, समता, समरसता और बिना भेद-भाव के सबको सम्यक रूप से देखते हैं। सबके सम्यक उन्नयन और विकास की बात करते हैं। इसके अंतर्गत ही मोक्ष जड़ चेतन के मध्य सबके उन्नयन और विकास के चरमोत्कर्ष पर स्वयं को ले जाने की प्रक्रिया है। इसे ही भारतीय परंपरा और शास्त्रों ने पुष्ट करने और मार्ग दिखाने का कार्य किया है। इनमें वेद अग्रगण्य हैं और वेद सभी मनुष्यों के लिये समान है। वेद स्वतः-प्रमाण और सर्वशक्तिमान ईश्वर की वाणी हैं। जैसे ईश्वर स्त्री पुरुष में कोई भेद नहीं करते वैसे ही वेदों के पाठ में भी लिंग भेद के आधार पर कोई बंधन प्राप्त नहीं होता हैं। जिस प्रकार पृथ्वीजलवायुसूर्यआकाश ईश्वर द्वारा बनाये गये हैं और सभी मनुष्यों के लिए हैंउसी प्रकार वेद भी सभी मनुष्यों के लिए है।यजुर्वेद में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि वेद सभी मनुष्यों के लिए हैं। यह कहता हैं- "यथेमां वाचं कल्याणीमवदानि जनेभ्यः"अर्थात "मैं मानवता के कल्याण के लिए इस नमस्कार भाषण (वेद) को संबोधित करता हूं।"

    वेद पुत्रों के समान ही विद्वान पुत्री की प्रशंसा करते हुए कहते हैं : कन्याओं की भी बड़े परिश्रम और देखभाल से पालन-पोषण और शिक्षा करानी चाहिए। अथर्ववेद में भी स्त्री की शिक्षा के महत्व पर विशेष बल दिया गया हैजिसमें उल्लिखित प्राप्त ऋचा है कि विवाहित जीवन में महिला की सफलता ब्रह्मचर्य के दौरान उसके उचित प्रशिक्षण पर निर्भर करती है। स्त्रियां उपनयन और वेदों का अध्ययन करने की अधिकारी थींबिलकुल बालकों की तरह उन्हें उपनयन के पश्चात वेदाध्ययन का अधिकार भी  प्राप्त था। गुरु के अधीन अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद स्त्रियां धार्मिक अनुष्ठान भी करती और कराती थीं। यमस्मृति में कहा गया है कि- प्राचीन काल में महिलाएं "उपनयन संस्कार" करती थीं और वे वेद का अध्ययन भी करती थीं। यम ने कहा कि:

पुराकल्ये कुमारीणां मौंजीबन्धनमिष्यते ।

अध्यापनं च वेदानां सावित्रीवाचनं तथा ॥

पिता पितृव्यो भ्राता वा नैनामध्यापयेत्परः ।

स्वगृहे चैव कन्याया भैक्षचर्या विधीयते ॥

वर्जयेदजिनचीरं, जटाधारणमेव च ॥ इति ॥

    हारीत धर्मसूत्र में महिलाओं को दो वर्गों में विभाजित होने का वर्णन मिलता है। कन्याओं के उपनयन और वेदाध्ययन के विषय में हारीत-धर्मसूत्र (२१।२०-२४) के वचन, जिनमें दो प्रकार की स्त्रियों का उल्लेख करते हुए कहा है: "द्विविधा स्त्रियो ब्रह्मवादिन्यः सद्योवध्वश्च। तत्र ब्रह्मवादिनीनामु- पनयनम्, अग्रीन्धनं वेदाध्ययनं स्वगृहे भिक्षाचर्या च। सद्योवधूनां तूपस्थिते विवाहकाले कथंचिदुपनयनं कृत्वा विवाहः कार्यः॥" अर्थात् ब्रह्मवादिनी और सद्योवधू ये दो प्रकार की स्त्रियाँ होती हैं। उनमें से ब्रह्मवादिनियों का उपनयन, अग्निहोत्र, वेदाध्ययन और अपने घर में ही भिक्षा ये सब नियम होते हैं। सद्योवधुओं के लिए भी उपनयन आवश्यक है, किन्तु वह विवाहकाल उपस्थित होने पर करा दिया जाता है। हारीत धर्मसूत्र में ही आगे वर्णन मिलता है: "तत्र ब्रह्मवादिनीनाम् उपनयनं अग्निबंधनं वेदाध्ययनं स्वगृहे भिक्षा इति", अर्थात् ब्रह्मवादिनी वह महिला थी जिसने यज्ञोपवीत संस्कार के बाद वेदों का अध्ययन किया और बाद में शादी कर ली या कुंआरी रही। ब्रह्मवादिनी का शाब्दिक अर्थ है 'वह महिला जो ब्रह्म के बारे में बात करती है'। ब्रह्मवादिनी जिनका उपनयन संस्कार किया गया हैउन्हें यज्ञ करनावेदों का अध्ययन करना और भिक्षा वृत्ति में आचरण करना आवश्यक है।याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी भी ब्रह्मवादिनी थीं। दूसरी और "सद्योबधूनां तु उपस्थिते विवाहे कथंचित् उपनयनं कृत्वा विवाहः कार्यः", अर्थात् सद्योवधु एक ऐसी महिला होतीं थी जिसने गुरुकुल में वैदिक शिक्षा प्राप्त किए बिनायौवन की प्राप्ति पर अपने उपनयन के तुरंत बाद विवाह कर ली या वधू बन गई। पाराशरस्मृति पर लिखित माधवसंहिता में कहा गया है: "योपानयनं कृत्वा पश्चाद् वेदमाधिते विवाहं करोति स ब्रह्मवादिनी। तथैव य प्रथममाता उपनयनं कृत्वा सद्य एव विवाहं विधया ततो वेदमाधिते स सद्योवधुः"। अर्थ है: "वह जो उपनयन के बाद वेदों का अध्ययन करती है और फिर विवाह करती है वह ब्रह्मवादिनी हैजो उपनयन के तुरंत बाद विवाह करती है और फिर वेदों का अध्ययन करती है वह सद्योवधु है।" शास्त्रों में महिलाओं के "पंडिता" होने का स्पष्ट उल्लेख महाभाष्य में मिलता है। जैसे इसका उल्लेख "इदशच"  के महाभाष्य में मिलता है (3 | 21): "उपेत्याधीयतेऽस्या उपाध्यायी उपाध्याया", अर्थात् जिसके पास आकर कन्याएँ वेद के एकदेश तथा वेदाङ्गों का अध्ययन करें वह उपाध्यायी वा उपाध्याया कहलाती हैं। उपाध्याया का लक्षण मनुजी ने किया है:

एकदेशं तु वेदस्य वेदाङ्गान्यपि वा पुनः

योऽध्यापयति वृत्त्यर्थमुपाध्यायः स उच्यते ॥

(मनुस्मृति २।१४१)

उक्त लक्षणयुक्त स्त्री उपाध्याया होती है। वैदिक ऋषिकाओं  की बातें करें तो एक लंबी सूची हम सभी को दिखतीं हैं। ऋषियों के समान ही ऋषिकाएँ भी मंत्रदृष्टा थीं। लोपामुद्रागार्गीमैत्रेयी आदि अनेक ऐतिहासिक प्रसिद्ध ऋषिकाएं हैं। इनमें लोपामुद्राविश्ववारासिकताघोषा और मैत्रेयी प्रमुख थीं। मैत्रेयी (याज्ञवल्क्य की पत्नी) को ऋग्वेद में लगभग दस ऋचाओं से मान्यता प्राप्त है। जिनमें उनका वर्णन या लिखित होने का प्रमाण प्राप्त होता है । लोपामुद्रा अगस्त्य ऋषि की पत्नी थीं। ऋग्वेद में एक सूक्त का श्रेय उन्हीं को दिया जाता है। ऋग्वेद के ऋषियों की सूची बृहद्देवता के 24वें अध्याय में मिलती है। जिनमें ऋषिकाओं का भी सम्यक वर्णन मिलता है:

घोषा गोधा विश्ववारा, अपालोपनिषन्त्रिषत् ।

ब्रह्मजाया जुहूनाम, अगस्त्यस्य स्वसादितिः ॥ 

इन्द्राणी चेन्द्रमाता च, सरमा रोमशोर्वशी ।

लोपामुद्रा च नद्यश्च, यमी नारी च शश्वती ॥

श्री लक्ष्मीः सार्पराज्ञी वाक्, श्रद्धा मेधा च दक्षिणा ।

रात्री सूर्या च सावित्री, ब्रह्मवादिन्य ईरिताः ॥

ब्रह्म अर्थात् वेद का प्रचार करने के कारण इन ‘ऋषिकाओं को ब्रह्मवादिनी के नाम से पुकारा जाता है और इनका नियमपूर्वक उपनयन, वेदाध्ययन, वेदाध्यापन, गायत्री मन्त्र का उपदेश पढ़ाना होता था। इस बात को हारीत धर्मसूत्र, यमस्मृति आदि में समान रूप से कहा गया है। भारतीय शास्त्रीय परंपरा के इतिहास ग्रंथों में भी इसके बारे में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि महिलाओं को अग्निहोत्र आदि करने की अनुमति प्राप्त थी। अर्थात उनका उपनयन होता था और उन्हें भी सम्यक प्रकार से वेदाध्ययन और यजन-याजन का अधिकार प्राप्त था। आर्ष ग्रंथों का अवलोकन करने पर निम्न निबंधन मिलता है कि:

i) वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में कौशल्या अग्निहोत्र करती थीं:

सा क्षौमवसना हृष्टा नित्यं व्रतपरायणा।

अग्निं जुहोति स्म तदा मंत्रवत्कृतमङ्गला॥

रामायण (2.20.15)

सर्वदा व्रतों के पालन में लगी रहने वालीकौशल्या (तत्कालीन) रेशमी कपड़े पहने हुएमंत्रों (वैदिक ऋचाओं) के अनुसार अग्निदेव को आहुतियाँ चढ़ाते हुएशुभ अनुष्ठान कर रही थी। उच्च विचारों वाली माता कौशल्या ने अपनी पीड़ा को शांत करते हुए आचमन संस्कार किया और स्वयं को शुद्ध कर राम के लिए शुभ अनुष्ठान किए:

साऽवनीय तमायासमुपस्पृश्य जलं शुचिः।

चकार माता रामस्य मंगलानि मनस्विनी।।

रामायण  (2.25.1)

ii) माता सीता के संध्या वंदन करने का प्रसंग भी सुंदरकांड में मिलता है। हनुमान जी जब लंका में सीता की खोज में अशोक वाटिका में गयेपरन्तु उन्हें सीता नहीं मिलीं। वहीं पास में हनुमान जी को एक पवित्र जल की नदी दिखाई दी। हनुमान जी को विश्वास था कि यदि सीता माता यहां होंगी तो संध्या वंदन-पूजन करने अवश्य इसके तट पर अवश्य आएगी:

संध्याकालमनाः श्यामा ध्रुवमेष्यति जानकी।
नदीं चेमां शुभजलां सन्ध्यार्थे वरवर्णिनी ॥

रामायण (5.14.49)

[अर्श्चय ही वह सुन्दर रूप वाली सुन्दरी जानकी इसी नदी पर आयेगी; शाम के अनुष्ठानों को करने के लिए पवित्र जल प्रवाहित करने।]

ऐसे ही महाभारत में भी नारियों के लिए बहुत से शब्द प्रयुक्त हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि  भारतीय या सनातनी परिवेश में पठन-पाठन हेतु स्त्री-पुरुष या कह सकते हैं कि  सम्पूर्ण मानव मात्र को ही समान रुप से शिक्षा के साथ ही यजन पूजन का भी अधिकार प्राप्त था। महाभारत में भी विदुषी नारियों का वर्णन मिलता है । जिनमें प्रमुखतः शिवासिद्धाश्रीमती और श्रुतावती नामक ब्राह्मणी का वर्णन निम्नलिखित शब्दों में प्राप्त है:

अत्र सिद्धा शिवा नाम ब्राह्मणी वेदपारगा।

अधीत्य सकलान् वेदान् लेभेऽसन्देहमक्षयम् ॥

महा० उद्योगपर्व (१०९।१८)

[ब्राह्मणी वेदों में पारङ्गता थी। उसने सब वेदों को पढ़कर सन्देहरहित होकर मोक्ष पद को प्राप्त किया।]

 पुनः 

अत्रैव ब्राह्मणी सिद्धा, कौमारब्रह्मचारिणी।

योगयुक्ता दिवं याता, तपः सिद्धा तपस्विनी ।।

महा० शल्यपर्व (४।६)

अर्थात् योग-सिद्धि को प्राप्त, कुमारावस्था से ही वेदाध्ययन करनेवाली तपस्विनी सिद्धा नाम की ब्राह्मणी (वेद-विदुषी) तप का पूर्णतया अनुष्ठान करके मोक्ष को प्राप्त हुई।

 पुनः

बभूव श्रीमति राजन्, शाण्डिल्यस्य महात्मनः ।

सुता धृतव्रता साध्वी नियता ब्रह्मचारिणी ।।

सा तु तप्ता तपो घोरं, दुश्चरं स्त्रीजनेन ह।

गता स्वर्ग महाभागा, देवब्राह्मणपूजिता ।।

(महा० शल्यपर्व अ० ५४।९)

अर्थात् महात्मा शाण्डिल्य की सुपुत्री ‘श्रीमति’ थी जिसने सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्यादि व्रतों को पूर्णतया धारण किया हुआ था और जो वेदाध्ययन में दिन-रात तत्पर थी। अत्यन्त कठिन तप करके और बड़े उच्चकोटि के सत्यनिष्ठ ब्राह्मणों द्वारा भी पूजित होकर वह मोक्षधाम को सिधारी।

  पुनः

भरद्वाजस्य दुहिता, रूपेणाप्रतिमा भुवि।

श्रुतावती नाम विभो, कुमारी ब्रह्मचारिणी ।।

 महा० शल्यपर्व (४८।२)

अर्थात् भरद्वाज की श्रुतावती नामवाली कुमारी थी; जो ब्रह्मचारिणी अर्थात् ब्रह्म-वेद का अच्छी प्रकार अध्ययन करने वाली थी। यहाँ कन्या के लिए ‘ब्रह्मचारिणी’ विशेषण के प्रयोग का केवल इतना ही तात्पर्य है कि वह उपस्थनिग्रहादियुक्ता है, तो उसका काम ‘कुमारी’ से चल सकता था, परंतु वह वेदाध्ययन करनेवाली है। अतः ब्रह्मचारिणी  का प्रयोग किया गया । उक्त विषय से स्पष्ट हो जाता है कि अधुना प्राप्त विमर्श जो भारतीय शास्त्रों को महिलाओं के लिए अपठनीय प्रस्तुत करता है वह निरर्थक और अनर्गल है। इसलिएमहिलाओं को वैदिक ज्ञानयज्ञोपवीत संस्कार और वेद अध्ययन के अधिकार से वंचित करना भी वस्तुतः गैर-वैदिक ही है। वेदों में एक भी ऐसा उल्लेख नहीं है जो महिलाओं को इन अधिकारों से वंचित करता हो। भारतीय शास्त्रों और नीति ग्रंथों में भी उक्त और वर्णित है कि: "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः"॥

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