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- Published on: 2024-08-31 03:31 pm
बांग्लादेशी तख्तापलट: सबक और सरोकार
किसी भी देश व समाज
में आराजक तत्त्वों को आराजकता फैलाने के लिए अवसर की तलाश रहती है। अवसर मिलते ही
वह विध्वंसक होकर अपने वर्चस्व को स्थापित कर लेता है। अभी हाल के बांग्लादेश की
घटना इस बात का प्रमाण है। इससे पहले हम अफगानिस्तान और श्रीलंका की विषम
परिस्थितियों से अवगत हो चुके हैं। इस तख्तापलट में अंतर्राष्ट्रीय हितसाधक समीकरण
राजनीतिक रूप से तो अनिवार्यतः काम करते ही हैं, साथ ही साथ यह धार्मिक उन्माद का रूप लेकर भीषण तांडव भी मचाते
हैं।
बांग्लादेश में 2018
में खत्म की गई आरक्षण व्यवस्था 1 जुलाई 2024 को पुनः बहाल की गई जिसके विरोध में आंदोलन शुरू
हुआ और वह उग्र होता चला गया। उग्रता पर काबू पाने के लिए 21 जुलाई को कर्फ्यू लगा
दिया गया। इस प्रकार, लोकतान्त्रिक बांग्लादेश में आरक्षण के नाम पर शुरू हुआ
आंदोलन इतना भीषण और वीभत्स रूप ले लिया कि 4 अगस्त 2024 को एक हिंसक हमले में 14
पुलिस कर्मी समेत 90 से अधिक लोग मारे गए और 300 सौ से अधिक घायल हुए। सोमवार 5
अगस्त 2024 को बांग्लादेश की पाँच बार प्रधानमंत्री रह चुकी शेख हसीना 45 मिनट की नोटिस
पर देश छोड़ने के लिए बाध्य हो गई। वह इसके लिए कई देशों से गुहार लगाई और अंत में
भारत पहुंचकर अपनी जान बचाई। उनके साथ सत्तारूढ़ पार्टी (अवामी लीग) के कई
मंत्रीगण जो वहाँ से पलायन करने में असफल रहे, उन्हें परिवार सहित मौत के घाट उतार
दिया गया। जब भक्षकों ने ताकतवर रक्षकों को एक झटके में समाप्त कर दिया तो उनके
संरक्षण में पोषित आम लोग विशेषकर हिन्दू कौम की दुर्गति तो निश्चित ही थी। वृहत
स्तर पर उन्होंने हिन्दूओं के घरों में लूट, आगजनी एवं बहन-बेटियों के साथ
बलात्कार व हत्या की घटनाओं को अंजाम देने से नहीं चुके।
केवल आरक्षण को लेकर
आंदोलन कर रहे छात्रों के माध्यम से तो ये सब कतई संभव नहीं था। फिर इतने बड़े
पैमाने पर आखिर यह सब कैसे घटित हुआ? छात्र आंदोलन की आड़ में वहाँ कौन-कौन से
असामाजिक तत्त्व विद्यमान थे? इन्हें प्रोत्साहन और सहयोग कहाँ से मिल रहा था? वे
सब लूटेरे कौन थे और कहाँ से आए थे जिन्होंने प्रधानमंत्री शेख हसीना के अन्तः
वस्त्रों को भी बेशर्मी से लूटते हुए हवा में लहरा रहे थे? आदि तमाम प्रश्न हमें
आक्रोशित व उद्वेलित करता है और घटना की तह में जाने के लिए मजबूर करता है। यह
मजबूरी तब और भी बढ़ जाती है जब ऐसी घटना क्रमिक रूप से (अफगानिस्तान, श्रीलंका और
बांग्लादेश) घट रही हो और आगे भी किसी देश में घटने की संभावना लिए हुए हों।
शेख हसीना
लोकतान्त्रिक तरीके से पाँचवीं बार बांग्लादेश की प्रधानमंत्री बनी थीं। हसीना की
इस जीत को वहाँ के बेगम खालिदा जिया की पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी
और बांग्लादेश के प्रतिबंधित संगठन जमात-उल-मुजाहिदीन, जमात-ए-इस्लामी
पचा नहीं पा रहे थे। ये सभी पार्टियां भारत के विरोधी हैं। इसलिए, भारत के साथ
बांग्लादेश की तरक्की सभी को आँखों का कांटा बनकर चुभ रहा था। यह चुभन केवल
बांग्लादेश की अंदरूनी पार्टियों तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसका विस्तार भारत के
धूर विरोधी पाकिस्तान और चीन के साथ अमेरिका तक था। जिसके परिणामस्वरूप शेख हसीना
जो ‘राष्ट्र-प्रथम’ के सिद्धांत के साथ अपने विकास पथ पर अग्रसर थी, उनके
विरोधियों ने बाहरी ताकतों के सहयोग से अलगाववाद, हिंसा, आराजकता के साथ सेना का सहारा
लेकर तख्तापलट दिया। यह स्पष्ट रूप से एक सुनियोजित योजना के तहत वर्तमान सेना
प्रमुख जनरल वकार-उज़-ज़मान के माध्यम से किया गया प्रतीत होता है।
अमेरिका को शेख हसीना
से नाराजगी का कारण अमेरिकी एयरबेस के लिए बांग्लादेश में जमीन का न मिलना था।
इसलिए जो अमेरिका सोच-समझकर लोकतंत्र की दुहाई देते हुए पाकिस्तान में चुनी हुई
इमरान सरकार को पराजित किया था और आर्मी की मदद से शाहबाज शरीफ की सरकार बनाने के
लिए आगे आया था वही अमेरिका को बांग्लादेश में शेख हसीना के चुनाव जीतने पर सबकुछ
अलोकतांत्रिक दिखाई दे रहा था।
दूसरे सुपर पावर चीन
के संदर्भ में विशेषज्ञों का मानना है कि बांग्लादेश के चटगांव बंदरगाह पर चीन
इसलिए नियंत्रण रखना चाहता है ताकि वह बांग्लादेश व पश्चिमी देशों के बीच हो रहे
आयात-निर्यात पर पैनी निगाह रख सके। अपने इस मंसूबे को अंजाम देने के लिए चीन
चटगांव में मेट्रो रेल एवं स्मार्ट सिटी का प्रस्ताव देकर बांग्लादेश को आकर्षित
करना चाहता था जो सफल नहीं हुआ। दूसरा चीन अपनी ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ नीति के तहत
बांग्लादेश पर हावी होने की कोशिश में है। इसके अलावा चीन को ‘बेल्ट एंड रोड
इनिश्यटिव (BRI)’ के लिए बांग्लादेश में जमीन चाहिए थी, हसीना इसके लिए भी
राजी नहीं हुई। हाल ही में शेख हसीना ने 7 जुलाई 2024 से चार दिनों के लिए चीन का
दौरा किया, परंतु वे शीघ्र ही 10 जुलाई को वापस लौट आई। इससे स्पष्ट था कि यात्रा
उनके उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। वह भारत से दूर होकर चीन के आर्थिक ऋण-जाल का
शिकार नहीं होना चाहती थी। इससे उनके चीन से लौटने के बाद विरोध प्रदर्शनों ने और
भी हिंसक रूप ले लिया।
बांग्लादेश में
पाकिस्तान समर्थित समूह भी आरंभ से सक्रिय है। साप्ताहिक राष्ट्रीय समाचारपत्र ‘पांचजन्य’ के अनुसार ‘पाक आईएसआई इस साल जनवरी में हुए चुनावों के बाद से बीएनपी
और जमात-ए-इस्लामी के तत्वों के साथ सहयोग कर रही है, जिसका विपक्षी दलों ने बहिष्कार किया था।
शेख हसीना सरकार की वैधता के बावजूद, सीआईए सहित बड़ी संख्या में विदेशी एजेंसियों ने बांग्लादेश
में शासन परिवर्तन की योजना बनाई हो सकती है।’
इधर भारत के साथ
बांग्लादेश का मधुर संबंध पिछले एक दशक से स्नेह-स्नेह आगे बढ़ता हुआ एक विश्वसनीय
सहयोगी बन चुका था। प्रधानमंत्री शेख हसीना ने 9 जून 2024 को मोदी सरकार के शपथ
ग्रहण समारोह में भी भाग ली थी और नई सरकार के साथ 21 से 22 जून 2024 को
द्विपक्षीय यात्रा के लिए भारत का दौरा करने वाली बांग्लादेश की पहली विदेशी नेता
बनी थी। इससे ‘तीस्ता नदी परियोजना’ में प्रगति के साथ दोनों देशों के बीच विशेष
संबंध मजबूत हुए। इतना ही नहीं, भारत की एक्ट ईस्ट पॉलिसी में बांग्लादेश एक प्रमुख
भागीदार और बिम्सटेक (बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग के लिए बंगाल की खाड़ी
में पहल) समूह में सबसे भरोसेमंद भागीदार था। ये सभी स्थितियाँ भारत-विरोधी या
भारत के साथ प्रतियोगी भावना रखने वाली ताकतों को असह्य लग रही थी। इस प्रकार,
विदेशी सुपर पावर की आँखों में खटकने के साथ ही हसीना घरेलू मोर्चे पर इस्लामिक
रेडिकलिज्म से भी घिर चुकी थी। इस्लामिक रेडिकलिज्म को दुश्मन देशों का
सहारा मिलने से बांग्लादेश का आरक्षण रूपी छात्र आंदोलन एक कट्टर इस्लामी ताकतों
का खतरनाक शक्ति प्रदर्शन के साथ भयानक नर-संहार में बदल गया।
बांग्लादेश
की संकट ने भारत की चिंता को बढ़ा दिया है। इन दोनों देशों के बीच पाँच राज्यों की
सीमाएं लगती है जिनकी कुल लंबाई लगभग 4,100 किलोमीटर है। इन दोनों देशों के संबंध
ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से जुड़े हुए हैं। शेख हसीना के कार्यकाल में
पिछले 15 वर्षों से सौहर्द और मैत्रीपूर्ण वातावरण में सारी समस्याएं सुलझती जा
रही थीं, परंतु अब उसके स्वरूप को लेकर संकट खड़ा हो गया है। इतना ही नहीं, यदि
बांग्लादेश एक बार फिर नॉर्थ-ईस्ट के उग्रवादी गुटों की शरणस्थली बन जाती है तो
भारत की सुरक्षा को लेकर एक नया खतरा पैदा हो जाएगा।
अभिव्यक्ति एवं
लोकतंत्र के नाम पर लगातार एक के बाद दूसरी तख्तापलट की घटनाओं (अफगानिस्तान,
श्रीलंका, बांग्लादेश) में दृष्टिगत पश्चिमी देशों का हस्तक्षेप भारत के लिए एक
गंभीर संकेत एवं चुनौती है। ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत के बड़े राजनीतिक
दलों के शीर्षस्थ नेताओं द्वारा देश के बाहर जाकर यह कहना कि भारत में लोकतंत्र की
रक्षा के लिए अमेरिका व अन्य पश्चिमी देशों को हस्तक्षेप करना चाहिए, यह अपने आप
में बड़ा संकेत है। इतना ही नहीं, उनका उद्देश्य हिन्दू बहुल भारत देश में केवल और
केवल हिंदुओं के बीच जातिवादी राजनीति कर अलगाव पैदा करना, भारत को विभाजित करने
वाली ताकतों को सहयोग करते हुए भारत पर एक अंतर्राष्ट्रीय दबाव बनाने का हर संभव
प्रयास करना, आदि तमाम कोशिशें उसी गंभीर खतरे का स्पष्ट संकेत है। अभी हाल के आम
चुनावों में कुछ पार्टियों ने ‘आरक्षण खत्म होगा’, ‘संविधान बदल जाएगा’ का डर
दिखाकर देश विरोधी माहौल पैदा करने की कोशिश की। यहाँ कुछ राजनीतिक पार्टियों का
काम धर्म के नाम पर अल्पसंख्यकों को डराना, बहुसंख्यकों के अंदर आरक्षण,
जाति-जनगणना और हिस्सेदारी के नाम पर फूट पैदा करना आदि बातों को फैलाना है जो
काफी गंभीर है।
अन्य
पड़ोसी देशों के साथ हाल के बांग्लादेशी समीकरण को भारत में देखें तो यहाँ पिछले एक
दशक में कई भारत विरोधी आंदोलन तैयार किए गए। इसके अंतर्गत CAA के नाम पर सड़कों को
घेरना (इसमें 50 से ज्यादा लोगों की जानें गई), शांतिपूर्ण किसान आंदोलन को समर्थन
देते हुए उसे उग्र रूप बना देना, देश की प्रतिष्ठित संस्थाओं को बदनाम करने की
कोशिश करना, इन संस्थाओं के प्रति आमजन के मन में भय पैदा करना, तिरंगे के साथ लाल
किले पर खालिस्तानी झण्डा फहराना आदि बातों में उन्हीं खतरों के स्वर सुनाई देते हैं।
इन तमाम बातों को भारतीय तख्तापलट की भूमिका के रूप में देखते हुए इसके उपचार के
लिए अभी से प्रतिबद्ध होने की जरूरत है।
बांग्लादेश में रह रहे
अप्रवासी भारतीय व पहले से वहाँ स्थापित हिन्दू समुदाय अपने दैनिक कार्यों को करते
हुए अत्यंत विषम परिस्थितियों में अपनी धार्मिकता बचाए हुए है। 2022 के आंकड़ों के
अनुसार वहाँ पर रह रहे हिंदुओं की आबादी कुल आबादी का लगभग 8% है। अर्थात, 17 करोड़
में से 1.3 करोड़ हिन्दू वहाँ सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में स्थापित है जो
इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा निशाने का शिकार है। भारत को इनकी सुरक्षा सुनिश्चित
करनी होगी। यह सुरक्षा चाहे अंतर्राष्ट्रीय पहलुओं से हो अथवा उन्हें शरणार्थियों
के रूप में भारत में शरण देकर। हालांकि, जिस प्रकार मोदी सरकर ने अपने दूसरे
कार्यकाल में नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) लाया और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि मजबूत की है इससे अप्रवासी
भारतीयों व हिन्दू शरणार्थियों की सुरक्षा, उपर्युक्त दोनों प्रकार से सुनिश्चत होती
दिखाई देती है। फिलहाल, हम उम्मीद
करते हैं कि भारत बांग्लादेश में सामान्य स्थिति लाने के लिए वह सब कुछ करेगा और
इस क्षेत्र में विकास के लिए बांग्लादेश के साथ संबंधों का पुनर्निर्माण करेगा।
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