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चतुर्विध अभिनय के सहायक नृत्य, गीत, वाद्य एवं गति, वृत्ति, प्रवृत्ति और आसन का अनुसंधान भी नाट्य के अंतर्गत है। इस प्रकार अभिनय के विविध अंग एवं उपांगों के स्वरूप और प्रयोग के आकारप्रकार का विवरण प्रस्तुत कर तत्संबंधी नियम तथा व्यवहार को निर्धारित करनेवाला शास्त्र ‘नाट्यशास्त्र’ है।

नाट्यशास्त्र का सामान्य परिचय

नाट्यशास्त्रमिदं रम्यं मृगवक्त्रं जटाधरम्।

अक्षसूत्रं त्रिशूलं च विभ्रार्णाच त्रिलोचनम्।

परंपरा के अनुसार नाट्यशास्त्र केप्रणेता ब्रह्मा  माने गए हैं और इसे ‘नाट्यवेद’ कहकर नाट्यकला को विशिष्ट सम्मान प्रदान किया गया है।यह न सिर्फ नाट्य संबंधी नियमों की संहिता का नामहै बल्किविविध मनोविज्ञान समेटे हुए है ।जिस प्रकार परम पुरुष के निःश्वास से आविर्भूत वेदराशि के द्रष्टा विविध ऋषि हैं उसी तरह शिव द्वारा प्रोक्त नाट्यवेद के द्रष्टा शिलाली, कृशाश्व और भरतमुनि माने गए हैं। शिलाली एवं कृशाश्व द्वारा संकलित नाट्यसंहिताएँ आज उपलब्ध नहीं है, केवल भरत मुनि द्वारा प्रणीत ग्रंथ ही उपलब्ध हुआ है जो ‘नाट्यशास्त्र’ के नाम से जाना जाता  है।भरतमुनि कृत  नाट्यशास्त्र का रस भावाध्याय भारतीय मनोविज्ञान का आधार ग्रंथ माना जा सकता  है। इसका प्रणयन संभवतः कश्मीर, भारत देश में हुआ।

नाट्यशास्त्र का रचनाकाल, निर्माणशैली तथा बहिःसाक्ष्य के आधार पर ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के लगभग स्थिर किया गया है जबकि कुछ विद्वान् इसे5वी शताब्दीईसापूर्व का मानते हैं इसकामूलग्रन्थ भी नाट्यशास्त्र के नाम से जाना जाता है जिसके रचयिता भरत मुनि थे। जिनका जीवनकाल 400-100ईसापूर्व के मध्य निर्धारित किया  जाता है।संगीत, नाटक और अभिनय के सम्पूर्ण ग्रंथ के रूप में भरतमुनि के नाट्य शास्त्र का आज भी बहुत सम्मान है। भरत मुनि मानते थे कि  नाट्य शास्त्र में केवल नाट्य रचना के नियमों का आकलन नहीं होता बल्कि अभिनेता, रंगमंच और प्रेक्षक इन तीनों तत्वों की पूर्ति के साधनों का विवेचन होता है। 36 अध्यायों में भरतमुनि ने रंगमंच, अभिनेता, अभिनय, नृत्यगीतवाद्य, दर्शक, दशरूपक और रस निष्पत्ति से सम्बन्धित सभी तथ्यों का विस्तृत विवेचन किया है।नाट्य शास्त्र के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि नाटक की सफलता केवल लेखक की प्रतिभा पर आधारित नहीं होती बल्कि विभिन्न कलाओं और कलाकारों के सम्यक के सहयोग से ही होती है।भारतीय शास्त्रीय नृत्य, नाट्यशास्त्र से प्रेरित हैं।

दृश्य काव्य के ये दो भेद हैं-

1-नाट्य-नट-नटी द्वारा किसी अवस्थाविशेष की अनुकृति नाट्य है – ‘नाट्यते अभिनयत्वेन रूप्यते- इति नाट्यम्’’

2- नृत्त-ताल और लय की संगति से अनुबद्ध अनुकृत को नृत्त कहते हैं

ये दोनों ही अभिनय के विषय हैं और ललित कला के अंतर्गत माने जाते हैं। नाट्य के प्रमुख अंग चार हैं – वाचिक, सात्विक, आंगिक और आहार्य

1-वाचिक-उक्ति-प्रत्युक्ति की यथावत् अनुकृति वाचिक अभिनय का विषय है।

2- सात्विक- भावों का यथावत् प्रदर्शन सात्विक अभिनय है।

3- आंगिक –भावप्रदर्शन के लिए हाथ, पैर, नेत्र, भ्रू, एवं कटि, मुख, मस्तक आदि अंगों की विविध चेष्टाओं की अनुकृति आंगिक अभिनय है।

4-आहार्य- देशविदेश के अनुरूप वेशभूषा, चालढाल, रहन सहन और बोली की अनुकृति आहार्य अभिनय का विषय है।

 चतुर्विध अभिनय के सहायक नृत्य, गीत, वाद्य एवं गति, वृत्ति, प्रवृत्ति और आसन का अनुसंधान भी नाट्य के अंतर्गत है। इस प्रकार अभिनय के विविध अंग एवं उपांगों के स्वरूप और प्रयोग के आकारप्रकार का विवरण प्रस्तुत कर तत्संबंधी नियम तथा व्यवहार को निर्धारित करनेवाला शास्त्र ‘नाट्यशास्त्र’ है। अभिनय के लिए निर्मित विशिष्ट स्थान को नाट्यगृह कहते हैं जिसके प्रकार, निर्माण एवं साजसज्जा के नियमों का प्रतिपादन भी नाट्यशास्त्र का ही विषय है। विविध श्रेणी के अभिनेता एवं अभिनेत्री के व्यवहार, परस्पर संलाप और अभिनय के निर्देशन एवं निर्देशक के कर्तव्यों का विवरण भी नाट्यशास्त्र की व्यापक परिधि में समाविष्ट है। इसका मुख्य उद्देश्य ऐहिक जीवन की नाना वेदनाओं से पीड़ित जन के दुःख को दूर करती है – यह देव, दानव एवं मानव समाज के लिए आमोद प्रमोद का सरल साधन है। यह नयनों की तृप्ति करनेवाला एवं भावोद्रेकका परिमार्जन कर प्रेक्षकवर्ग को आह्लादित करनेवाला मनोरम अनुसंधान है . यह जातिभेदएवं सामाजिक विभेदों से निरपेक्ष, भिन्न रुचि की जनता का समान रूप पोषण करता है। प्रजापति ने ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गीत, यजुर्वेद से अभिनय तथा अथर्वांगिरस से रस का परिग्रह कर सार्ववर्णिक पंचम वेद का प्रादुर्भाव किया। उमा-महादेव ने सुप्रीत हो लोकानुरंजन के हेतु लास्य एवं ताण्डव का सहयोग देकर इसे उपकृत किया है। वस्तुत: ऐसा कोई शास्त्र, कोई शिल्प, न कोई विद्या और न कोई कला ऐसी है जिसका प्रतिनिधित्व नाट्यशास्त्र में न हो।

नाट्यशास्त्र  में प्रत्यभिज्ञा दर्शन की छाप है। जिसमें स्वीकृत 36 मूल तत्वों के प्रतीक स्वरूप नाट्यशास्त्र में 36 अध्याय हैं। पहले अध्याय में नाट्योत्पत्ति, दूसरे में मण्डपविधान देने के पश्चात् अगले तीन अध्यायों में नाट्यारम्भ से पूर्व की प्रक्रिया का विधान वर्णित है। छठे और सातवें अध्याय में रसों और भावों का व्याख्यान है, जो भारतीय काव्यशास्त्र में व्याप्त रससिद्धान्त की आधारशिला है। आठवें और नवें अध्याय में उपांग एवं अंगों द्वारा प्रकल्पित अभिनय के स्वरूप की व्याख्या कर अगले चार अध्यायों में गति और करणों का उपन्यास किया है। अगले चार अध्यायों में छन्द और अलंकारों का स्वरूप तथा स्वरविधान बतालाया है। नाट्य के भेद तथा कलेवर का सांगोपांग विवरण 18वें और 19 वें अध्याय में देकर 20वेंअध्याय में वृत्ति विवेचन किया है। तत्पश्चात् 29वें अध्याय में विविध प्रकार के अभिनयों की विशेषताएँ दी गई हैं। 29से 34 अध्याय तक गीत वाद्य का विवरण देकर 35वें अध्याय में भूमिविकल्प की व्याख्या की है। अंतिम अध्याय उपसंहारात्मक है।

यह ग्रंथ मुख्यत: दो पाठान्तरों में उपलब्ध है-

1-उत्तरीय2-दक्षिणीय

पाण्डुलिपियों में एक और 37वाँ अध्याय भी कही-कही उपलब्ध होता है जिसका समावेश निर्णयसागरी संस्करण में संपादक ने किया है। इसके अतिरिक्त मूल मात्र ग्रंथ का प्रकाशन चौखंबा संस्कृत सीरीज, वाराणसी से भी हुआ है जिसका पाठ निर्णयसागरी पाठ से भिन्न है। अभिनव भारती टीका सहित नाट्यशास्त्र का संस्करण गायकवाड सीरीज़ के अंतर्गत बड़ौदा से प्रकाशित हुई है।

वस्तुतः यह ग्रन्थ नाट्यसंविधान तथा रससिद्धान्त की मौलिक संहिता है। इसकी मान्यता इतनी अधिक है कि इसके वाक्य ‘भरतसूत्र’ कहे जाते हैं। सदियों से इसे आर्ष ग्रन्थ सा सम्मान प्राप्त है। इस ग्रंथ में मूलत:12000 पद्यांश तथा कुछ गद्यांश भी था, इसी कारण इसे ‘द्वादशसाहस्री संहिता’ कहा जाता है। परन्तु कालक्रमानुसार इसका संक्षिप्त संस्करण प्रचलित हो गया जिसका आयाम छह हजार पद्यों का रहा और यह संक्षिप्त संहिता ‘षटसाहस्री’ कहलाई। भरतमुनि उभय संहिता के प्रणेता माने जाते हैं और प्राचीन टीकाकारों द्वारा उनका ‘द्वादश साहस्रीकार’ तथा ‘षट्साहस्रीकार’ की उपाधि से मण्डितकियाहै। जिस तरह आज उपलब्ध चाणक्य नीति का आधार वृद्ध चाणक्य और स्मृतियों का आधार क्रमशः वृद्ध वसिष्ठ, वृद्ध मनु आदि माना जाता है, उसी तरह वृद्ध भरत का भी उल्लेख मिलता है। इसका यह तात्पर्य नहीं कि वसिष्ठ, मनु, चाणक्य, भरत आदि दो व्यक्ति हो गए, परन्तु इस सन्दर्भ में ‘वृद्ध’ का तात्पर्य परिपूर्ण संहिताकार से है।नाट्यशास्त्र पर अनेक व्याख्याएँ लिखी गईं और भरतसूत्रों के व्याख्याता अपने अपने सिद्धान्त के प्रतिष्ठापक आचार्य माने गए जिनके मत काव्यशास्त्र सम्बंधी विविध वाद के रूप में प्रचलित हुए। ऐसे आचार्यों में उल्लेखनीय नाट्यशास्त्र के व्याख्याता हैं- रीतिवादी भट्ट उद्भट, पुष्टिवादी भट्ट लोल्लट, अनुमितिवादी शंकुक, मुक्तिवादी भट्ट नायक और अभिव्यक्तिवादी अभिनव गुप्त। इनके अतिरिक्त नखकुट्ट, मातृगुप्त, राहुलक, कीर्तिधर, थकलीगर्भ, हर्षदेव तथा श्रीपादशिष्य ने भी नाट्यशास्त्र पर अपनी अपनी व्याख्याएँ प्रस्तुत की थीं। इनमें से ‘श्रीपादशिष्यकृत’ ‘भरततिलक’ नाम की टीका सर्वप्राचीन प्रतीत होती है। अभिनवगुप्त द्वारा रचित अभिनवभारती, नाट्यशास्त्र पर सर्वाधिक प्रचलित भाष्य है। अभिनवगुप्त ने नाट्यशास्त्र को ‘नाट्यवेद’ भी कहा है।नाट्यशास्त्र में प्रतिपादित संगीताध्याय के व्याख्याता अनेक हो गए हैं। जिनमें प्रमुख भट्ट सुमनस्, भट्टवृद्धि, भट्टयंत्र और भट्ट गोपाल हैं। इनके अतिरिक्त भरतमुनि के प्रधान शिष्य मातंग, दत्तिल एवं कोहल नाट्यशास्त्र के आधार पर संगीतपरक स्वतंत्र ग्रंथ, सदाशिव और रंदिकेश्वर ने नृत्य पर तथा भट्ट तौत प्रभृति ने रसमीमांसा पर रचे हैं।

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