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तंत्र ४ – तंत्र के बारे में भ्रांतियाँ
पश्चिम में ही नहीं, भारत में भी, तंत्र के बारे में बहुत सी भ्रांतियाँ फैली हुई हैं| उनमें से सबसे बड़ी यह है कि इसमें कई प्रकार की दुष क्रियाएं होती है और इसका सम्बन्ध केवल उन्मुक्त काम से ही है| रजनीश मिश्र हमें बताते हैं कि तंत्र वास्तव में है क्या और इसका सम्बन्ध योग ध्यान आदि से क्या है| वे हमें यह भी बताते है कि तंत्र के सम्बन्ध में प्रमुख भ्रांतियाँ क्या क्या है और ऐसी भ्रांतियाँ क्यों फैलीं
आगम या तंत्र किस रूप में हमारे सामने हैं? और यह जो आजकल की अवधारणा जो बनी है जिसके लिए बहुत सारे मिथ इसके चतुर्दिक गढ़ लिए गए हैं या जमा हो गए हैं कालांतर में उसके कारणों पर जरा हम दृष्टिपात करें तो ये पायेंगे कि कुछ साधना पद्धतियाँ वेदानुकूल हैं और कुछ साधन पद्धतियाँ वेदबाह्य हैं|
तो वेदबाह्य कहने का शायद बड़ा कारण है वामाचार| उस वामाचार के कारण क्यूंकि उसके सांकेतित अर्थ, जो पंचमकार की चर्चा आती है, उसके सांकेतित अर्थ विस्मृत कर दिए गए और स्थूल अर्थ रह गया| मांस, मदिरा आदि ये सब जो पञ्च मकार हैं उसके जो सांकेतिक अर्थ अपने ही आगमों में वर्णित हैं वह सांकेतिक अर्थ लुप्त हो गया और उसका जो स्थूल अर्थ है वही हम संजो कर रखे रह गए हैं| या फिर प्रचार उसी का हुआ क्यूंकि वो सरल भी है| क्यूंकि उससे निश्रेयास न हो सही लेकिन अभुदय तो शायद हो जाता है| अभुदय प्रत्यक्ष में दिखता है| निश्रेयस तो पता नहीं कब जाकर फलेगा कितने जन्म-जन्मान्तर के बाद|
कूर्म पुराण का उल्लेख करते हुए ऐसा कहा जाता है कि जो जिन लोगों ने वेदाध्यन का अधिकार खो दिया था, किसी कारण से, उनके द्वारा ही प्रवर्तित यह तंत्र है| सत्यता इसमें आंशिक होगी या कितनी होगी मैं नहीं इस पर टिपण्णी करना चाहता, लेकिन एक धारा यह इस प्रकार की चली आ रही है अपने यहाँ| तो इसके कारण से भी उसका महत्त्व शायद कम कर के आँका गया होगा|
और जैसा मैंने बताया की वामाचार का स्थूल अर्थ ले लिया गया है और शटकर्म प्रधान जो अर्थ है जो – मारण, वशीकरण, उच्चाटन, मोहन, आदि सम्मोहन इन सब क्रियाओं को ही इसमें प्राथमिकता दे गयी है| और अभ्युदय केन्द्रित है इस कारण से यह अर्थ रूढ़ हो गया है|
तीसरा जो कारण है इस मिथ का वो यह है कि हमने तांत्रिकों, जो उपलब्ध हमारे आस-पास जो तांत्रिक रहे हैं, हमने उनको मानक बनाकर उनको आदर्श बनाकर तंत्र को समझना चाहा कि तंत्र का स्वरुप ही यही है जो यह व्यवहार में दिखा रहे हैं| ऐसा था नहीं| आज यह विश्वास दिलाना शायद कठिन होगा कि स्वयं आचार्य शंकर, नागार्जुन, बौद्धाचार्य, भर्तहरी अभिनव गुप्त तंत्र के शिखर पर पहुंचे हुए साधक थे| ये वो आदर्श हैं यदि हम अपने सामने रखें तो शायद तंत्र का एक दूसरा ही पक्ष हमारे सामने उद्घाटित होगा|
चौथा कारण है जिसके लिए हमने भाषा विज्ञान की चर्चा की थे अर्थाप्कर्ष की| तंत्र के कई व्यापक अर्थ थे जिसमें से एक अर्थ सिर्फ जो वामाचार और उसमें भी जो स्थूल पूजा है वह स्थूल साधना है वह अर्थ रूढ़ हो गया| बहुत सारे शब्दों के साथ यह घटना घटती है कालांतर में| जैसे गौ शब्द है| आज इसका अर्थ केवल गाया रह गया है| जबकि इसके कई अर्थ रहे हैं| सूर्य की रश्मि को पृथ्वी को इन सबको गौ कहते हैं| इतने सारे अर्थ नौवी शताब्दी ईसवी पूर्व में प्रयोग हुए हैं| तो ये अर्थ अपकर्ष का उदाहरण है जिसके कारण तंत्र का अर्थ काफी संकुचित हुआ है|
पांचवा कारण हो सकता है उसका आत्म-गोपन या रहस्यात्मक साधना के कारण| क्यूंकि वह एक मास प्रैक्टिस या पब्लिक प्रैक्टिस का कोई फॉर्म नहीं है| वह साधना अन्तरंग साधना है| बहिरंग साधना नहीं है| गुरु शिष्य के अंतर्गत उस परम्परा में होने वाली साधना है और उसकी उपलब्धि भी कुछ ऐसी नहीं है जिसका प्रचार किया जा सके| तो इसके कारण से भी वह आत्म केन्द्रित रहा है|
और इसको कहा गया है कि इसका अधिकारी कोई बहुत ही विरल व्यक्ति हो पाता है| और इसके लिए तुलना की गयी है जैसे तलवार की धार पर चलना हो| क्यूंकि जिन पंचमकारों की हमने चर्चा की है उसी का निषेध करते हुए आगम सार और तंत्र कहता है कि यदि मद्यपान से मुक्ति हो सकती थी तो मद्य तो कबका मुक्त हो गया होता| शराबी कब का मुक्त हो गया होता| तो उसके कुछ सांकेतिक अर्थ हैं वहाँ जिसको ग्रहण किया गया है|
और अंत में एक जो मैं बात कहना चाहता हूँ वह यह है कि शायद जो इस कल्चर का मॉस स्केल पर de-intellectualization हुआ है वह भी इसका सबसे बड़ा कारण है| क्यूंकि हमारे पास अब वो स्पेस नहीं है जिसमें हम अपने शास्त्रों को समझ सकें और उसको हृदयंगम कर सकें|
हम अपने बौद्धिक वातावरण के सन्दर्भ में अपने शास्त्रों की रचना करते हैं साहित्य की रचना करते हैं साहित्य को समझते रहे हैं उपासना पद्धतियों को आत्मसात करते रहे हैं| वह स्पेस धीरे धीरे संकुचित होता जा रहा है या ख़त्म होता जा रहा है या दूसरे अर्थों का आधिपत्य उस पर होता जा रहा है| तो इस स्थिति में शायद हम अभिशप्त हैं इस कारण से भी कि हम अपनी ही ज्ञान परंपरा या ऐसी चीजों को हम साथ लेकर के चलने की स्थिति में नहीं हैं अथवा इनकी व्याख्या के लिए हम प्रामाणिकता पश्चिम की तरफ से ढूढने का प्रयास करते हैं|
आज कहीं भी ये हम चर्चा करते हैं इन विषयों पर विश्वविद्यालयों में भी तो ये प्रश्न आता है कि इस शोध की प्रासंगिकता क्या है| अब प्रासंगिकता तय करने के लिए आप विवश हैं की पश्चिम के किसी विद्वान को आप उद्दृत करें या पश्चिम का मत इस पर क्या है यह आप तय करें| तो पश्चिम सदैव प्रासंगिक हैं, हम हमेशा ही आउटडेटिड हैं, यह एक विचित्र प्रकार का सम्बन्ध या संवाद हमारा पश्चिम के साथ है जो चल रहा है| अकादमिक जो डिस्कोर्स हमारे देश में चलता है इससे मुक्त होने की बहुत जरुरत है|
अंत में मैं यह कहूँगा कि सरस्वती अन्तः सलिला हो गयी ज्ञान वापी का जल हम पी नहीं सकते| तो यह टिपपणी हमारे अपने अतीत के प्रति जो संवेदनहीनता है उसके प्रति भी है और शायद अतीत के प्रति जो हमारी समझ है उसके लिए भी है| और यह टिपण्णी शायद सबसे तीखी टिपण्णी हमारे अपने वर्तमान पर है जिसके कारण यह सब कुछ हो रहा है|
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