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- Published on: 2025-07-31 03:40 pm
रामभक्त कवि शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदासजी: व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कबीर, सूर आदि अन्य मध्ययुगीन कवियों की भाँति हिंदी जगत् में और विशेषकर उत्तर भारत में सूर्य की आभा के सामान चमकने तथा सभी को अपनी रचनाधर्मिता से आप्लावित करनेवाले रामभक्त कवि शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास का भी जीवन-वृत्त दिलचस्प रहा है। हालाँकि, उन्होंने अपनी रचनाओं में अपने जीवन के सम्बन्ध में कोई विशेष उल्लेख नहीं किया है। हाँ, उनके सम्बन्ध में उनकी कृतियों के अंतः एवं बहिर्साक्ष्य के आधार पर आगे हम कुछ जान पाते हैं।
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इन साक्ष्यों के तहत तुलसीदास के शिष्य बेनी माधवदास कृत 'मूल गोसाईं-चरित' और महात्मा रधुवरदास रचित 'तुलसी चरित्र' में तुलसीदासजी (रामबोला दुबे) का जन्म हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार श्रावण महीने (जुलाई-अगस्त) के शुक्ल पक्ष की सप्तमी (11 अगस्त, 1497) को हुआ था। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार इस वर्ष यह तिथि 31 जुलाई, 2025 को है। उनके पिता आत्माराम दुबे और माता हुलसी थी। कवि रहीम के शब्दों में 'गोद लिए हुलसी फिरे, तुलसी सो सुत होय'। जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म अभुक्तमूल नक्षत्र में होने के कारण अपने माता-पिता द्वारा त्याग दिए गए थे और पांच वर्षों तक मुनिया नामक दासी ने इनका लालन-पालन किया था। इनका विवाह दीनबंधु पाठक की पुत्री रत्नावली से हुई थी। पत्नी से अत्यधिक प्रेमाशक्ति के दौरान उनका एक दिन मोह-भंग हो गया जब रत्नावली कहती हैं ‘अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति, नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत'। अर्थात, हड्डी और मांस से बने इस शरीर से इतना प्रेम है तो यही प्रेम राम से हो तो संसार के भय से मुक्ति मिल जाय। कहा जाता है कि इसके बाद से तुलसीदासजी प्रयाग आकर भगवान् राम की उपासना में लीन हो गए।
वाराणसी में बाबा नरहरिदास इनके दीक्षा गुरु हुए और वहीं उन्होंने 16-17 वर्षों तक शेषसनातन के पास वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, भागवत आदि का अध्ययन किया और अंत में कई रचनाओं का प्रणयन भी किया।
अपनी नैसर्गिक कवि प्रतिभा से भगवान् राम की ब्रज एवं अवधी भाषा की शब्द सुमनों के साथ भावप्रवण होकर उपासना करने वाले तुलसीदासजी के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में आधुनिक विद्वानों ने अपना निम्न मत प्रस्तुत किया है:
डॉ. भगीरथ मिश्र के शब्दों में, "गोस्वामी जी रस-सिद्ध कवि हैं। लोकमानस का उन्हें यथार्थ ज्ञान है। वे समन्वयवादी थे। वे अपने युग के प्रतिनिधि उतने नहीं, जितने वे युग-निर्माता तथा युग के संस्कारक हैं।”
डॉ. माताप्रसाद गुप्त लिखते हैं कि "रामचरितमानस हिन्दी साहित्य का सर्वोत्कृष्ठ महाकाव्य है।"
डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार- "तुलसीदास का मूल संदेश यही है कि मनुष्य बड़ा होता है अपनी मनुष्यता से, न कि जाति और पद से।"
तुलसीदास की सबसे प्रसिद्ध रचना रामचरितमानस है जो उत्तर भारत के जनसमुदाय में अविच्छिन्न रूप से समाहित है। इसकी रचना सवत् 1631 में की गयी है। दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था। उस दिन प्रातःकाल तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रन्थ सम्पन्न हुआ। सम्वत् 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये। इस महाकाव्य की भाषा अवधी है।
विद्वानों का मानना है कि किसी ने तुलसी के समकालीन कवि 'केशव' से पूछा था कि ‘आपकी कविता बढ़िया है या तुलसीदास जी की? इस पर वे बोले कि ‘कविता तो मेरी ही बढ़िया है।’ तब पूछने वाले ने कहा कि गोस्वामी तुलसीदास जी की रामचरितमानस काव्य को क्या दर्जा दिया जाय? इस पर वे बोले ‘ रामचरितमानस कोई कविता थोड़ी ही है, वह तो मंत्र रूप है! यह पूरा काव्य ही मंत्र मय है!’ कई विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए श्रीरामचरितमानस को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में 46वाँ स्थान दिया गया है।
गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं की संख्या को लेकर विद्वानों ने अपने-अपने मत दिए हैं। जहाँ शिवसिंह सेंगर ने इनके ग्रंथों की संख्या 18 मानी है वहीं जॉर्ज ग्रियर्सन ने अपने शोध प्रबंध "Notes on Tulsidas" में 21 ग्रंथों का उल्लेख किया है, लेकिन बाद में उन्होंने ही इसकी संख्या 12 बताई और उसे दो भागों में बांटा:
बड़े ग्रंथ- 1. रामचरितमानस, 2. दोहावली, 3. कृष्ण गीतावली, 4. गीतावली, 5. कवितावली
छोटे ग्रंथ – 1. रामललानहछू, 2. वैराग्य संदीपिनी, 3. बरवै रामायण, 4. जानकी मंगल, 5. पार्वती मंगल, 6. रामाज्ञा प्रश्न, 7. विनय पत्रिका
काशी नागरी प्रचारिणी सभा एवं आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी अपने इतिहास में उपर्युक्त 12 ग्रंथों को ही महत्त्व दिया है।
हमें उनके ग्रंथों के कुछ लोकप्रिय पदों को इस जन्म-जयंती के उपलक्ष्य में अवश्य स्मरण करना चाहिए। तुलसीदास की सबसे प्रसिद्ध रचना 'रामचरितमानस' है। यह दोहा-चौपाई शैली में है। इसके कथा का आधार वाल्मीकि रामायण है। इसमें कुल सात काण्ड हैं - बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किंधाकाण्ड, सुंदरकांड, लंकाकाण्ड तथा उत्तरकाण्ड।
इस महाकाव्य के पात्रों की स्वाभाविकता, मनोवैज्ञानिकता एवं दिव्यता पाठकों को सहज ही आकर्षित करती है। 'मानस' के संवाद जैसे परशुराम-लक्ष्मण संवाद, मंथरा-कैकयी संवाद, अंगद-रावण संवाद अत्यंत नाटकीय, स्वाभाविक और रोचक है। इसमें सभी रसों तथा भावों का प्रसंगानुसार समावेश हुआ है, परंतु इसका अंगी रस शांत है। मानवह्रदय की विभिन्न भावानुभूतियों के चित्रण में तुलसी अत्यंत सफल रहे हैं। 'रामचरितमानस' भावपक्ष की दृष्टि से जितना उदात्त है कलापक्ष की दृष्टि से उतना ही भव्य है। इसका मूल कारण तुलसी की स्वाभाविक भाव-प्रवण विशिष्ट अभिव्यक्ति है।
स्वान्त: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा।
भाषानिबंधमति मंजुलमातनोति।।
महाकवि तुलसीदास ने ‘स्वान्त: सुखाय’ की संकल्पना पर आधारित राम की गाथा को लोक कल्याण हेतु आख्यान के रूप में अभव्यंजित किया है। सम्पूर्ण संसार को ही ‘सियाराममय सब जग जानी। करउं प्रणाम जोरि जुग पानी।।’ की भावना से काव्य को दिशा दी है। तुलसी का सम्पूर्ण काव्य राममय है। यह राम की भक्ति उनके कथ्य में शुचिता, सदाशयता और समर्पण की भावना से ओतप्रोत है।
हमारे जीवन में गुरु का अत्यंत महत्व होता है। उनके बिना संसार-सागर से पार उतरना कठिन होता है। इसलिए वे इनके महत्त्व के सम्बन्ध में कहते हैं:
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥
अर्थात, मैं गुरु के चरण कमल के रज की वन्दना करता हूँ, जो स्वाद, सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से परिपूर्ण है। वह संजीवनी जड़ी का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों का नाश करने वाला है।
इसी प्रकार से एक दोहा जो भगवान् राम एवं गुरु के प्रति समर्पित है वह हमें तुलसीदास की रचना 'हनुमान चालीसा' में दिखाई देती है:
श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु, जो दायक फल चारि।
अर्थात, मैं अपने गुरु के चरण कमलों की धूल से अपने मन रूपी दर्पण को पवित्र करके श्री रघुवीर के निर्मल यश का गान करता हूं, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों फलों को देने वाला है।
कई कवि अपने काव्य-प्रणयन के पश्चात् आत्ममुग्ध हो जाते हैं। 'निज कवित केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका' अर्थात, वे कहते हैं कि अपनी लिखी हुई कविता सभी को अच्छी लगती है चाहे सरस हो या फीकी।
ज्ञानी साधकों को उनके ज्ञान की अवस्था में अज्ञानता का एहसास होता है। वे अपने काव्य प्रणयन के बाद भी स्वयं को उससे हीन मानते हैं और इन सब का श्रेय वे ईश्वर को देते हैं। 'कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू'।।
ऐसे ही एक और पद है जहां कवि स्वयं की आज्ञनता की सत्यता प्रकट करते हैं: ‘कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे’।। कवि शब्द एवं अर्थ की अविच्छिन्नता एवं परब्रह्म के स्वरूप का दर्शन खंड-खंड रूपों में न मानकर एक ही मानते हैं। इसलिए वे कहते हैं ‘गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न। बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥ अर्थात, जैसे वाणी और उसके अर्थ तथा जल और उसके लहर एक समान हैं और कहने में अलग-अलग हैं, वैसे ही सीता और रामजी हैं जिनके चरणों की मैं वंदना करता हूँ, जिन्हें दीन-दुःखी बहुत ही प्रिय हैं।
तुलसीदास जी कहते हैं कि यश, वाणी, धन-संपत्ति आदि वही श्रेष्ठ मानी जाती है जो गंगा नदी के समान सभी का कल्याण करे। यथा: कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहं हित होई।।
भक्त कवि तुलसीदासजी की रचनाओं में ज्ञान, सदाचार और समन्वय दिखाई देता है। उन्होंने मित्रता के सम्बन्ध में बड़ी अच्छी बात है की जो अच्छे मित्र होते हैं वो अपने मित्र के दुःख को देखकर बहुत दुखी होते हैं, स्वयं के पर्वत के सामान दुःख को धूलि के सामान और मित्र के धूलि के सामान दुःख को पर्वत के समान समझते हुए उसके निवारण हेतु सदैव तत्पर रहते हैं। उन्हें कुमार्ग से सुमार्ग पर तथा अवगुण की जगह उनके गुणों को प्रकट करते हैं। उनके साथ लेन-देन के विषय में कुछ सोचे बिना हमेशा अपने क्षमतानुरूप तन, मन एवं धन के साथ उनका कल्याण करने की सोचते हैं।
तुलसीदास जी समन्वय की विराट चेष्टा लेकर आये थे। उन्होंने अपने समय में निर्गुण-सगुन, शैव-वैष्णव आदि प्रवृत्तियों के समन्वय का अद्भुत प्रयास किया है। इस सम्बन्ध में भगवान् राम द्वारा एक सुन्दर कथन मानस में द्रष्टव्य है: शिव द्रोही मम दास कहावा। सो नर मोहि सपनेहु नहि पावा।। अर्थात, जो शिव का अनादर करके (या शिव से बैर रखकर) मुझे (भगवान राम को) अपना दास या भक्त बताता है, वह मुझे सपने में भी नहीं पा सकता।
गीतिकाव्य की दृष्टि से तुलसीदास की विनयपत्रिका अद्वितीय है। इसमें भगवान् राम के रूपों के चित्रण से पाठकों का ह्रदय भाव-विभोर हो जाता है। इसका प्रभाव इतना ज्यादा रहा है कि यह उत्तर भारत के राम भक्तों के लिए कंठहार बन गया है।
श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणम् ।
नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर-कंज, पद-कंजारुणं ।।
तुलसीदासजी की आरंभिक और प्रामाणिक कृतियों में 'रामललानहछू' है जिसमें भगवान् राम के विवाह का वर्णन है। पार्वती मंगल में भगवान् शिव और पार्वती का आख्यान है जो रामचरितमानस के बाल-काण्ड में वर्णित शिव पुराण का न होकर कालिदास के ‘कुमारसम्भवं’ पर आधारित है। इसमें माँ पार्वती के जन्म, तपश्चर्या एवं विवाह के बारे में बताया गया है। जानकी मंगल में माँ सीता के पुष्पवाटिका प्रसंग, विवाह एवं उस विवाह में भगवान् परशुराम के आगमन का चित्रण है। इसमें लोक संस्कृति के अंतर्गत तत्कालीन सामाजिक प्रथाओं, विश्वासों का निरूपण है। रामकथा का गुणगान तुलसीदास जी ने 'गीतावली' में भी किया है। इसमें राम का आविर्भाव, सीता-निर्वासन एवं लव-कुश के बालचरित्र को दिखाया गया है। सात कांडों में रचित इस काव्य में सभी रसों का परिपाक है। श्रीमद्भागवत् से कृष्ण के स्वभाव को उकेरने वाले तुलसी की कृष्ण गीतावली में कृष्ण की बालकथा के साथ उद्धव-गोपी संवाद की सुन्दर छटा देखने को मिलती है।
भगवान् राम के सम्मुख हनुमान द्वारा प्रस्तुत की गयी 'विनयपत्रिका' में भगवान् राम के अलावा गणेश, सूर्य, शंकर, दुर्गा, गंगा, यमुना एवं हनुमान जी की स्तुति की गयी है। ज्ञान, भक्ति एवं वैराग्य से सम्पूरित यह रचना अत्यंत मार्मिक है। इसमें कवि का पांडित्य, वाक्-चातुर्य एवं उक्ति वैचित्र्य की प्रौढ़ता दृष्टिगोचर होती है। आम तौर पर साधु एवं सन्यासियों के लिए लिखी माने जाने वाली रचना 'वैराग्य-सांदीपनि' में राम-महिमा, संत-स्वभाव, ज्ञान-वैराग्य के माध्यम से भक्तिभाव को स्फुरित करने का वर्णन है। भगवान् राम एवं -सीता के प्रेम का प्रगाढ़ वर्णन हमें बरवै रामायण में दिखाई देता है। इसमें राम में सौंदर्य के साथ शील एवं शक्ति तथा सीता का सौंदर्य एवं उनका विरह वर्णन आदि इसकी मुख्य विशेषताएं हैं। ज्योतिष के प्रभाव, शुभाशुभ शकुनों पर विचार, दिवस व तिथि की दृष्टि से प्रमुख देवी-देवताओं की पूजा आदि का वर्णन रामाज्ञाप्रश्न में है। 14 वर्षों बाद राम का राज्याभिषेक से प्रजा के सुख व शांति का सन्देश इसमें मिलता है। मुक्तक शैली में रचित दोहावली के चमत्कारिक दोहों में राम-महिमा, राम नाम का माहात्म्य एवं तुलसी के भक्ति का सबसे बड़ा आदर्श चातक पक्षी को माना गया है। इसमें वे कहते हैं - 'एक आस विश्वास हित चातक तुलसीदास।' विविध छंद युक्त कवितावली में राम कथा को मानस की तरह सात कांडों में कही गयी है। इसमें तुलसी की आत्मचरितात्मक उक्ति, युगीन-परिस्थितियों के वर्णन के साथ नौ रसों का रसायन भी शामिल है।
इस प्रकार तुलसीदास के व्यक्तित्व व कृतित्व को देखकर यह यह स्पष्ट महसूस होता है कि तुलसीदासजी अपने समय के महान भक्त, कवि व दार्शनिक थे। उनके इसी व्यक्तित्व को लेकर हिंदी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि "तुलसी का व्यक्तित्व उनके ग्रंथों में बहुत स्पष्ट होकर प्रकट हुआ है। अत्यंत विनम्र भाव, अनुभूति के साथ अपने आराध्य पर अटूट विश्वास और इतनी अखण्ड आस्था संसार के इतिहास में दुर्लभ है।"
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