पद्म पुराण में ब्रह्म-भक्ति का निरूपण

  • Visitor:9
  • Published on: 2024-09-25 10:58 am

पद्म पुराण में ब्रह्म-भक्ति का निरूपण

भक्ति तीन प्रकार की कही गयी है – मानस, वाचिक और कायिक। इसके सिवा भक्ति के तीन भेद और हैं – लौकिक, वैदिक और आध्यात्मिक।

  • Share on:

    वेदों की भांति पुराण भी हमारे यहाँ अनादि माने गए हैं। पद्म पुराण के अनुसार – ‘पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम्।’ अर्थात, सृष्टि रचयिता ब्रह्माजी ने सभी शास्त्रों में सर्वप्रथम पुराण का स्मरण किया। इनमें श्लोकों की संख्या सौ करोड़ (एक अरब) है जो स्वर्गलोक में अभी भी सुरक्षित माना गया है। इस संदर्भ में यह कहा गया है कि समय के परिवर्तन से जब मनुष्य की आयु कम हो जाती है और इतने बड़े पुराणों का श्रवण और पठन एक जीवन में मनुष्यों के लिए असंभव हो जाता है तब उनका संक्षेप करने के लिए स्वयं भगवान् प्रत्येक द्वापर युग में व्यास रूप से अवतरित होते हैं और उन्हें अठारह भागों में बांटकर चार लाख श्लोकों में सीमित कर देते हैं। पुराणों का यह संक्षिप्त संस्करण ही भूलोक में प्रकाशित होता है। 

    पुराण वेदों का ही उपवृहण है। शास्त्रों में जिस प्रकार वेदों का नियमित अध्ययन त्रेवर्णिकों के लिए अनिवार्य है उसी प्रकार ‘पुराणं शृणुयान्नित्यम्’ कहकर पुराणों का अध्ययन-श्रवण भी सभी के लिए नित्य करने का विधान है। क्योंकि मनुष्य के कुशल जीवन-निर्वहन की व्यवस्था को ध्यान में रखकर जो पुरुषार्थ चतुष्टय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष है उसका समुचित उल्लेख के साथ एक दूसरे के बीच सुंदर सामंजस्य को अच्छी तरह से पुराणों में समझाया गया है। इसके साथ ही जितने भोगों से जीवन-निर्वाह हो जाए उतने ही भोग हमारे लिए पर्याप्त है। इस पर्याप्तता के साथ पुराणों के अध्ययन श्रवण से मनुष्य को चरम लक्ष्य अर्थात, वास्तविक तत्त्व (भगवत्-तत्त्व) को जानना व प्राप्त करना आसान हो जाता है।       

    पद्म पुराण को वैष्णव पुराण माना गया है। पद्म का अर्थ ‘कमल का फूल’ होता है। ऐसी मान्यता है कि भगवान् विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न होकर ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की है। विशालता की दृष्टि से यह पुराण स्कन्द पुराण के बाद दूसरा स्थान रखता है। गीताप्रेस (गोरखपुर) से प्रकाशित पद्म पुराण में पाँच खंड (सृष्टिखंड, भूमिखण्ड, स्वर्गखंड, पातालखंड और उत्तरखंड) एवं दो सौ छियासठ अध्याय हैं। यहाँ प्रथमखंड के चौदहवें अध्याय में भीष्मजी एवं पुलस्त्यजी के बीच संवाद में ब्रह्म जी की भक्ति का वर्णन है जिसका कुछ अंश निम्नवत् है:

    भीष्मजी ने पूछा – ब्राह्मण! क्या करने से मनुष्य इस लोक में ब्रह्माजी का भक्त कहलाता है? मनुष्यों में कैसे लोग ब्रह्मभक्त माने गए हैं? यह मुझे बताइए।

    पुलस्त्यजी बोले – राजन्! भक्ति तीन प्रकार की कही गयी है – मानस, वाचिक और कायिक। इसके सिवा भक्ति के तीन भेद और हैं – लौकिक, वैदिक और आध्यात्मिक।

    ध्यान-धारणा पूर्वक बुद्धि के द्वारा वेदार्थ का जो विचार किया जाता है, उसे मानस भक्ति कहते हैं। यह ब्रह्माजी की प्रसन्नता बढ़ाने वाली है।

    मंत्र-जप, वेदपाठ तथा आरण्यकों के जप से होने वाली भक्ति वाचिक कहलाती है।

    मन और इंद्रियों को रोकने वाले व्रत, उपवास, नियम, कृच्छ, सांतपन, तथा चांद्रायण आदि भिन्न-भिन्न व्रतों से, ब्रह्मकृच्छ नामक उपवास से एवं अन्यान्य शुभ नियमों के अनुष्ठान से जो भगवान् की आराधना की जाती है, उसको कायिक भक्ति कहते हैं। यह द्विजातियों की त्रिविध भक्ति बताई गयी।

    गाय के घी, दूध और दही, रत्न, दीप, कुश, जल, चंदन, माला, विविध धातुओं तथा पदार्थ; काले अगर की सुगंध से युक्त एवं घी और गूगल से बने हुए धूप, आभूषण, सुवर्ण और रत्न आदि से निर्मित विचित्र-विचित्र हार, नृत्य, वाद्य, संगीत, सब प्रकार के जंगली फल-मूलों के उपहार तथा भक्ष्य-भोज्य आदि नैवेद्य अर्पण करके मनुष्य ब्रह्माजी के उद्देश्य से जो पूजा करते हैं, वह लौकिक भक्ति मानी गयी है।

    ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद के मंत्रों का जप और संहिताओं का अध्यापन आदि कर्म यदि ब्रह्माजी के उद्देश्य से किए जाते हैं, तो वह वैदिक भक्ति कहलाती है। वेद मंत्रों की उच्चारण पूर्वक हविष्य की आहुति देकर जो क्रिया सम्पन्न की जाती है वह भी वैदिक भक्ति मानी गयी है। अमावस्या अथवा पूर्णिमा को जो अग्निहोत्र किया जाता है, यज्ञों में जो उत्तम दक्षिणा दी जाती है तथा देवताओं को जो पुरोडाश और चरु अर्पण किए जाते हैं – ये सब वैदिक भक्ति के अंतर्गत हैं। इष्टि, धृति, यज्ञ-संबंधी सोमपान तथा अग्नि, पृथ्वी, वायु, आकाश, चंद्रमा, मेघ और सूर्य के उद्देश्य से किए हुए जितने कर्म हैं, उन सब के देवता ब्रह्माजी ही हैं।

    राजन्! ब्रह्माजी की आध्यात्मिक भक्ति दो प्रकार की मानी गई है – एक सांख्यज और दूसरी योगज। इन दोनों के भेद सुनो। प्रधान (मूल प्रकृति) आदि प्राकृत तत्त्व संख्या में चौबीस हैं। वे सब के सब जड़ एवं भोग्य हैं। उनका भोक्ता पुरुष पचीसवाँ तत्त्व है, वह चेतन है। इस प्रकार संख्या पूर्वक प्रकृति और पुरुष के तत्त्व को ठीक-ठीक जानना सांख्यज भक्ति है। इसे सत्पुरुषों ने सांख्य शास्त्र के अनुसार आध्यात्मिक भक्ति माना है।

    अब ब्रह्माजी की योगज भक्ति का वर्णन सुनो। प्रतिदिन प्राणायाम पूर्वक ध्यान लगाये, इंद्रियों का संयम करे और समस्त इंद्रियों को विषयों की ओर से खींचकर हृदय में धारण करके प्रजानाथ ब्रह्माजी का इस प्रकार ध्यान करे। हृदय के भीतर कमल है, उसकी कर्णिका पर ब्रह्माजी विराजमान हैं। वे रक्त वस्त्र धारण किए हुए हैं, उनके नेत्र सुंदर हैं। सब ओर उनके मुख प्रकाशित हो रहे हैं। ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवीत) कमर के ऊपर तक लटका हुआ है, उनके शरीर का वर्ण लाल है, चार भुजाएं शोभा पा रही हैं तथा हाथों में वरद और अभय की मुद्राएं हैं। इस प्रकार के ध्यान की स्थिरता योगजन्य मानस सिद्धि है; यही ब्रह्माजी के प्रति होने वाली पराभक्ति मानी गई है। जो भगवान् ब्रह्माजी में ऐसी भक्ति रखता है, वह ब्रह्मभक्त कहलाता हैं।”  

[उत्स्य: संक्षिप्त पद्मपुराण (हिन्दी), गीतप्रेस, गोरखपुर, पृष्ठ-58]

  • 4 min read
  • 0
  • 0