
सारांश-
इन्टरनेट के प्रवेश के साथ-साथ हमारे जीवन में अनेक परिवर्तन दिखाई पड़ते है। इस परिवर्तन से हमारे निर्णय की स्वतंत्रता,नैतिकता और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को लेकर नयी बहस हेतु वातावरण बनता है। यह आलेख मुख्य रूप से “तकनीकीय-नियतिवाद”की सम्भावना पर विचार करता है, जिसका होना ना सिर्फ छद्म लोकतांत्रिक सरकार का कारक बनता है बल्कि सामान्य मानवीय मूल्य और स्वतंत्रता को कम्पनीज और राजनीतिज्ञों की रूचि द्वारा परिभाषित करने की शक्ति प्रदान करता है।
मुख्य शब्द – फ्री-विल,स्वतंत्रता,तकनीकीय-नियतिवाद,चुनाव,नैतिकता,इन्टरनेट,लोकतंत्र
शोध पत्र का उद्देश्य- यह शोध पत्र मुख्य रूप से इंटरनेट तकनीकी द्वारा मानव के जीवन को नियंत्रित करने के क्रम में समाज में लोकतांत्रिक मूल्यों एवं नैतिकता की पड़ताल करता है तथा तकनीकीय- नियतिवाद की संभावना को देखता है।
प्रस्तावना-
‘हमारी सोच’ क्या सच मे हमारी है या फिर यह किन्ही अचेतन सामाजिक शक्तियों की अंतर-क्रिया का फल है जिसके निर्माण मे हमारे शास्त्र,आकाशीय पुस्तके,व्यापार, साहित्य,सिनेमा और कानून की बड़ी भूमिका रही है। इन शक्तियों को व्यवस्था की निर्मात्री शक्तियों के रूप में भी समझा जा सकता है या पुरानी भाषा में कहा जाए तो यही ईश्वर है।पूरी दुनिया के चिंतन का बड़ा हिस्सा इसी ईश्वर के ही इर्द-गिर्द घूमता रहा है।कथायें मानव को ईश्वर की कृति के रूप में स्वीकार करती रही हैं यद्यपि भारत में चार्वाक और ग्रीक दार्शनिक जेनो सरीखे कुछ लोग ईश्वर को मनुष्य की कृति मानते हैं । जेनो कहते हैं “यदि शेर और चीते अपने देवताओ की तस्वीरे बना सकते तो उनके देवता शेर या चीते जैसे होते” चिंतन ग्रीक दार्शनिको के स्वर्णिम काल से ईसाइयत के धर्मभीरु चिंतन को पार करके बुद्धिवाद और विज्ञानवाद का आलंबन ले परम्पराओ से मोह और विद्रोह को भी देख चुका।दुनिया मे नीत्शे के घोषणा के साथ ही विश्व ने ईश्वर से मुक्ति मे स्वतन्त्रता का गहन स्वाद अनुभव किया।यह पश्चिमी परंपरा और उसके अनुगामी विश्व के लिए अतीत के मानसिक बोझ से ना सिर्फ छुटकारा था बल्कि यह मुक्ति मनुष्य के स्वतंत्र विचार के आकाश में एक बड़ी उड़ान थी। वर्त्तमान मनुष्य परम्पराओ को आधुनिकता के आलोक से देखते हुए स्वयं को तसल्ली देता नजर आता है।
इंटरनेट, मुक्त निर्णय और लोकतंत्र –
लोकतांत्रिक मूल्य मनुष्य की गरिमा,सार्वभौम नैतिक मूल्यों की मूर्त स्थापना और चुनने की स्वतंत्रता में निहित हैं यह एक ऐसा मूल्य है जो ब्यक्ति और समाज के संतुलन पर टिका है ।चुनने की स्वतंत्रता में लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया और स्वविवेक से अपने कल्याण हेतु लिए गए निर्णय
शामिल होते है किन्तु जब इस विवेक को आकार दिया जा सके और चुनाव कुछ लोगो के स्वार्थ के द्वारा निर्मित किये जाये तो इस चुनाव को अपना चुनाव कहना बेमानी होगा एक समय तक यह कुछ सिद्धांतो पर आधारित थी किन्तु जब ये सिद्धांत कम्पनीज के लाभ और सत्ता के शाश्वतता पर बुने जाने लगे और इन्ही के आधार पर लोगो के चेतना गढ़ी जाने लगे तो इससे स्वतन्त्रता का छद्म मूल्य ही बचता है।
जब कही से गुजरते हुए अपना फ़ोन देखते हुए जब आपको मन को मोहने वाले खाने की फोटो और उसका नजदीकी स्थान दिखाई दे तो आप आराम से खा कर इस घटना को भूल जाते हैं किन्तु अगली बार का आपका निर्णय कितना आपका होगा,यह प्रश्न आपके विमर्श के दायरे में भी नहीं आता है ।तकनीकि हमारे जीवन में जैसे-जैसे प्रवेश करती जा रही है वैसे ही हमारे निर्णय हमारे न होकर इंटरनेट तकनीकि से संचालित होते जा रहे हैं।हमारी रूचि,हमारा भोजन, हमारे कपडे तय करने का अधिकार जाने कब हमारे जेब में रखा हुआ मोबाइल फ़ोन हस्तांतरित करता जा रहा है।यह सिर्फ यही तक सीमित नहीं है बल्कि नायक-खलनायक और नैरेटिव गढ़ने में भूमिका निभा रहा है। ऐसे में हमारे निर्णय कहने भर को हमारे होते है।
ऑनलाइन गढ़े गए आतकंवादी अपने कार्य के लिए स्वतःकितने जिम्मेदार हैं?दंड व्यवस्था तभी अस्तित्ववान होनी चाहिए जबकि मनुष्य के पास मुक्त इच्छा (फ्री विल) हो। आज इ-तकनीकि के हावी होने के साथ-साथ नैतिकता और कानून व्यवस्था का एक बड़ा संकट खड़ा होता है जैसे यदि कोई यदि किसी रोबोट को डिजाईन करे तो उस रोबोट के द्वारा किये गए कृत्य की जिम्मेदारी उसी पर होती है ।तकनीकि का प्रयोग जब किसी कंपनी और राजनैतिक व्यवस्था को लाभ पहुचाने के इरादे से होती है ऐसे में क्या नैतिकता लिए बनाये गए उपयोगितावादी(अधिकतम लोगो का कल्याण )माडल की व्यावहारिकता संदेहास्पद नहीं हो जाती।
दंड और नैतिकता का बदलता स्वरुप
दण्ड के सम्बन्ध में मुख्यतया यह धारणा प्रचलित है कि जान-बूझ कर अपराध करने वाले, नियम का उल्लंघन करने वाले, और कानून तोड़ने वाले को नियमतः जो शारीरिक, मानसिक या आर्थिक कष्ट दिया जाता है वह दण्ड है। अरस्तू से लेकर कान्ट, हेगेल और ब्रेडले जैसे आधुनिक दार्शनिकों ने दण्ड की अनिवार्यता का प्रतिपादन किया है। अरस्तू और हेगेल ने दण्ड को परिभाषित करते हुये इसे निषेधात्मक पुरस्कार या ऋणात्मक पुरस्कार कहा है। दण्ड व्यक्ति का पारितोषिक है जो उसे मिलना चाहिये।
इसको कहने में हमें संकोच नहीं होना चाहिए कि जब हमारे निर्णय का ताना-बाना किसी कंपनी के लाभ के लिए बुना गया हो । ऐसे में नैतिकता और कानून द्वारा दिए जाने वाले दंड की भूमिका पर सवाल खड़ा होता है । जिन लोगो के जीवन में यह बाद में आई है,उनके पास तो फिर भी तकनीकि से पूर्व चुनाव की स्वतंत्रता और तकनीकि के बाद की स्वतंत्रता में भेद करने का अनुभव है किन्तु जिनका जीवन तकनीकि में ही शुरु हुआ उनके लिए उनके चुनाव जैसी घटना का अनुभव ही नहीं होगा।क्या हम तकनीकी के कारागार में बंद कैदी है? जब भोजन कपडे तय करने का अधिकार हम खोते जा रहे हो तो ऐसे में हमारे राजनैतिक अधिकार का क्या कहना है?लोकतंत्र में तकनीकि जहा एक ओर लोगो को जागरूक करती दिखाई पड़ती है वही दूसरी ओर सच और झूठ का ऐसा काकटेल तैयार करती है। जिसका स्वाद चखने के बाद हमारे व्यवहार किसी यंत्र मानव जैसे हो जाते है। ऐसे में हमारे द्वारा किये गये कृत्यों के लिए किसे दोष दिया जाए?कुछ साल पहले आई एक पुस्तक फ्री विल में लेखक दो अपराधियो के विवरण के आधार पर किसी भी मुक्त इच्छा को नकारते है 1।मुक्त इच्छा(फ्रीविल) को नकारने का अर्थ होगा एक नए प्रकार की सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना जिसमे शायद वर्तमान कानून के लिए कोई जगह न होगी। ब्रेडले के शब्दों में, “हम दण्ड किसी दूसरे कारण से नहीं बल्कि इसलिए भुगतते हैं कि हम उसके योग्य हैं और यदि किसी अशुभ कर्म के फल होने के अतिरिक्त किसी अन्य कारण से दण्ड दिया जाता है तो वह विशुद्ध अनैतिकता है, एक स्पष्ट अन्याय है, दण्ड दण्ड के लिए दिया जाता है।” जेम्स स्टीफेन के अनुसार , “दण्ड, विधान और प्रतिकार का वही सम्बन्ध है जो विवाह और प्रेम का है।ऐसे में तकनीकि द्वारा संचालित निर्णय के लिए दंड विधान की पुरानी व्यवस्था बिलकुल ही असंगत हो जाएगी जबकि हेगेल की धारणा के अनुसार दण्ड मनुष्य के अपराध का स्वाभाविक प्रतिफल है। दण्ड का मूल स्वयं मनुष्य की आत्मग्लानि और प्रायश्चित के व्यवहार में है। कभी-कभी हम स्वयं गलती करने के पश्चात दुःखी होते हैं, पश्चाताप करते हैं और कभी-कभी स्वयं को शारीरिक दण्ड भी देते हैं, उसी प्रकार राज्य अपराधियों को दण्ड देने का ‘अधिकार रखता है।किन्तु जब राज्य तकनीकि के माध्यम से लोगो के चेतना को निर्मित और चालित करने लगे ऐसे में हेगल का यह राज्य को समाज की आत्मा या एकता का प्रतीक माना जाता है, दण्ड देने का नैतिक एवं कानूनी अधिकार खो देता है।
छद्म लोकतंत्र के निर्माण में इन्टरनेट की भूमिका –
कुछ वर्ष पूर्व ब्लू व्हेल नामक एक इन्टरनेट गेम ने यह स्पष्ट कर दिया है।दूर बैठे हुए कुछ अनजान लोग ना सिर्फ व्यक्ति के निर्णय को बदल सकते है अपितु मनुष्य को गढ़ने में भी सक्षम है। ऐसे में लोकतान्त्रिक रीति से चुनी हुई सरकार और इन्टरनेट से बनाये हुए ओपिनियन से बनी सरकार के बीच अंतर करना मुश्किल होता जाएगा। तकनीकि कम्पनीज और सरकार के बीच तालमेल से व्यक्ति के निर्णय लेने की स्वतन्त्रता ना सिर्फ कही और से संचालित होगी बल्कि एक प्रकार का तकनीकीय-नियतवाद विश्व में व्याप्त हो जाएगा।नियतिवादी मनुष्य को उसके कर्मो के लिए उत्तरदायी नहीं मानते 2।कर्म और फल के अनिवार्य सिद्धांत को मानने के कारण जब हम कर्म को पहले मान लेते हैं और फिर फल, तब यह दृष्टि बनती है कि मनुष्य अपना भाग्य नियंता स्वयं है किन्तु यह प्रश्न सदैव अनुत्तरित रह जाता है और इनमे से पहले किसे रखा जाए,यह चक्रीय दोष बना रहता है।आज जहा हम तकनीकि के द्वारा मानव की चेतना को गढ़ते है यानि उसके सॉफ्टवेर का निर्माण करते हैं ऐसे में उसके द्वारा किये गये किये गये कृत्यों के लिए सिर्फ उसे सजा देना अथवा उसके द्वारा चुने हुए को वैयक्तिक चुनाव मानना कितना उपयुक्त है । एक दृष्टिकोण में, प्रौद्योगिकी अपने आप में एक सक्रिय जीवन लेती है और इसे सामाजिक घटनाओं के चालक के रूप में देखा जाता है। इनिस का मानना था कि प्रत्येक ऐतिहासिक काल के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक विकास सीधे उस काल के जन संचार के साधनों की तकनीक से संबंधित हो सकते हैं. फ्रेंकस्टीन के अनुसार , प्रौद्योगिकी स्वयं जीवित प्रतीत होती है, या कम से कम मानव व्यवहार को आकार देने में सक्षम है 3।ऐसे में आकार ग्रहण किये लोगो के चेतना,स्वतंत्रता और चुनाव किसी गुलाम के चुनाव से ज्यादा नहीं प्रतीत होते .
तकनीकि के प्रवेश के साथ-साथ नैतिकता का स्वरुप क्या होगा यह एक प्रश्न हमारे सामने खड़ा है वर्तमान में यह संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार की घोषणा संचालित होता है4 जो कि व्यवहारिक तौर पर ये कम्पनीज के हानि लाभ के अनुरूप चलता है।
निष्कर्ष-
तकनीकी ने जहां मनुष्य को निर्बाध स्वतंत्रता और वैश्विक सुगमता का आभास दिया है ,वहीँ इसके केंद्र में बैठे हुए लोगों द्वारा इसका प्रयोग करके ना सिर्फ बड़े पैमाने पर व्यक्ति के चुनाव की स्वतंत्रता को किन्ही कंपनियों या राज व्यवस्थाओं के हाथ की कठपुतली बनाता है बल्कि सदैव के लिए इंटरनेट की तकनीकी द्वारा लाया गया नियतिवाद स्थापित हो सकता है इस क्रम में मनुष्य के मूल मूल्यों को आहरित करके राजव्यवस्था अथवा आर्थिक शक्तियों द्वारा परिभाषित किया जा सकता है और इससे मनुष्य जाति की एक शाश्वत गुलामी की परंपरा निर्मित होगी ।
सन्दर्भ –
1-Haris ,Sam,Free Will,Free Press New York, Page 5
2-https://www.britannica.com/topic/determinism
3-https://www.academia.edu/1789051/One_tweet_does_not_a_revolution_make_Technological_determinism_media_and_social_change
4-https://www.un.org/en/about-us/universal-declaration-of-human-rights
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