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राजनीति का विषय-वस्तु Discussion Forum

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About this Course

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं को कहते हैं ‘नीतिरस्मि जिगीषताम’ अर्थात विजय की इच्छा रखने वालों के लिए मैं नीतिस्वरूप हूँI श्रीकृष्ण का यह कथन नीति के महत्व को दर्शाता हैI धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष- इन चार पुरुषार्थों को प्राप्त करने के उपायों का निर्देश जिसके द्वारा अथवा जिसमें होता है, उसे नीतिशास्त्र कहते हैंI ॠग़वेद में एक श्लोक है ‘ॠजुनीति नो वरुणो मित्रो नयतु विद्वान्’ इसमें मित्र और वरुण से प्रार्थना की जा रही है कि हमें ॠजु अर्थात सरल अथवा अकुटिल नीति से अभीष्ट की सिद्धि करायेंI वस्तुतः नीतिशास्त्र का अर्थ है ‘कर्माकर्मविवेक’I समाज में व्यक्ति, परिवार, जाति, वर्ग, राष्ट्र आदि को परस्पर कैसा व्यवहार करना चाहिये, कैसे रहना चाहिये? इस संबंध में कुछ नियम होते हैं, जिन्हें ‘नीतिशास्त्र’ कहते हैंI राज्य के सर्वविध अभ्युदय के लिए राजनीति, धार्मिक अभ्युदय की प्राप्ति के लिए धर्मनीति और जीवन के विविध क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करने के लिए व्यवहारनीति, समृद्धि के लिए अर्थनीति, इसी प्रकार प्रबल आततायी तथा धूर्त शत्रु पर विजय पाने के लिए कूटनीति का उल्लेख हैI इस पाठ्यक्रम का मुख्य विषय शास्त्रीय तथा प्राचीन भारत में राजनीति तथा कूटनीति है, जिसमें धर्म तथा अर्थ भी परिलक्षित होंगेI
शास्त्रों का कहना है कि जैसे पैर से सिर तक जितने भी अंग हैं सभी मिलकर शरीर कहलाते हैं, वैसे ही मंत्री, राष्ट्र, दुर्ग, कोश, बल और मित्र, इनका समुच्चय ही राज्य कहलाता हैI कामंदकनीतिसार कहता है ‘स्वाम्यमात्याश्च राष्ट्रं च दुर्गं कोशो बलं सुहृदI एतावदुच्यते राज्यं सत्वबुद्धिव्यपाश्रयम II शासक या राजा स्वतंत्र न होकर राज्य का ही अंग माना जाता हैI शासक को प्रजा में अपना वर्चस्व रखने के लिए साम, दान, दंड, भेद- इन चार नीतियों का निर्दोष रूप से पालन करना ही चाहिएI आचार्य चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में राजधर्म, मंत्रिपरिषद, राजव्यवस्था, राज्य के लिए अर्थ की व्यवस्था, न्याय, वैदेशिक नीति आदि विषयों पर विस्तार से लिखा हैI राजा से यह अपेक्षा की जाती है कि वह विद्या की मात्रा, इच्छा शक्ति की सीमा, मानसिक प्रयास की दुरिता और अपने लोगों के शारीरिक प्रयास की क्षमता का ज्ञान प्राप्त करे और इस प्रकार उन सभी के पुरुषार्थ चतुष्टय की सीमा का निर्धारण करेI प्राचीन भारत में शासन कला को भिन्न-भिन्न शब्दों से संबोधित किया जाता था, जैसे- राजधर्म, दंडनीति, नीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, आदिI प्रारम्भ में इसे राजधर्म की संज्ञा दी गई थी लेकिन अनेक ग्रंथों में दंडनीति शब्द के संकेत के लिए पर्याप्त विवरण उपलब्ध हैं, जो वस्तुतः राजधर्म का ही वर्णन करता हैI

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