शक्ति साधना के चार महोत्सव (नवरात्रि)

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  • Published on: 2025-09-25 04:14 pm

शक्ति साधना के चार महोत्सव (नवरात्रि)

भारत की पहचान प्राचीन काल से धर्म एवं संस्कृति को लेकर अप्रतिम रही है। ज्ञान की साधना का प्रस्फुटन और उनके विस्तार की यह धरती भारत है। हमारे वेद की ऋचाएं और पुराण की गाथाएं इसका प्रमाण है। ब्रह्मांड में सृष्टि और जीवन से संबंधित जितनी भी संकल्पनाएं हुई हैं अथवा हो सकती हैं वो सभी इनमें व्याप्त है। अर्थात्, इससे इतर कुछ भी शेष नहीं है। ब्रह्मांड के हर एक पदार्थ व जीव में निहित ऊर्जा अपने मूल रूप में शक्ति का स्वरूप है। सुप्त रूप में यही शक्तियां उसे अपने जीवन में गतिमान बनाए रखती है। हमारे वेद और पुराण भी इन शक्तियों की आराधना मातृ देवी के रूप में करती आ रही है।

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    हमारे वेदों में देवी की चर्चा और पूजन का विशेष उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के दसवें मण्डल में ‘देवी सूक्त’ एवं ‘रात्रि सूक्त’ के माध्यम से मातृ-शक्ति को ‘अदिति’ तथा ‘वाक्’ के रूप में मानकर उसकी उपासना और स्तुति की गई है। इस शक्ति को ब्रह्मांड की अधीश्वरी, सर्वेश्वरी तथा सर्वसृष्टा बताया गया है। अथर्ववेद में वेदमाता गायत्री का उल्लेख है। अर्थात्, माँ गायत्री वेद के साथ समस्त मंत्रों की जननी है। श्वेताश्वतर और केन उपनिषदों में भी ज्ञान और क्रिया की देवी के रूप में इस पराशक्ति की आराधना है। इस शक्ति की चर्चा हमारे पुराणों में भी की गई है। हमारे यहाँ कुल अट्ठारह पुराण हैं। इनमें मुख्य रूप से देवी की आराधना को समर्पित पुराण ‘देवी भागवत’ पुराण है। यह पुराण आदिशक्ति माँ दुर्गा के पर केंद्रित है। इसके अलावा मार्कन्डेय पुराण है। इसमें दुर्गा सप्तसती (चंडी पाठ) के माध्यम से देवी की आराधना की गई है। इसके अलावा लिंग पुराण, शिव पुराण, स्कन्द आदि महापुराणों में देवी की शक्ति के रूप में वंदना की गई है। इस देवी की पूजा का माहात्म्य वर्णन सिक्खों के पवित्र धर्म ग्रंथ ‘गुरु ग्रंथ साहब’ में भी मिलता है। स्वयं गुरु अंगद देव जी देवी दुर्गा के परम भक्त थे। विद्वान मानते हैं कि सिक्खों में शक्ति के प्रति जो श्रद्धा का भाव है, वह हिंदुओं की शाक्त परंपरा का अभिन्न अंग है। 

    शाक्त संप्रदाय हिन्दू धर्म के चार प्रमुख संप्रदायों में से एक है। वास्तव में, शक्ति की उपासना करने वाला शाक्त कहा जाता है। इसके केंद्र में देवियों की पूजा व आराधना है। शाक्त, शक्ति उपासना के साथ उसके आविर्भाव को मानव शरीर एवं जीवित ब्रह्माण्ड की शक्ति या ऊर्जा में संवर्धित, नियंत्रित एवं रूपान्तरित करने का प्रयास करते हैं। ऐसा माना जाता है कि शक्ति, कुंडलिनी के रूप में मानव शरीर के गुदा आधार तक स्थित होती है जिसे जटिल ध्यान एवं यौन-यौगिक अनुष्ठानों के ज़रिये जागृत किया जा सकता है। इस क्रम में यह सूक्ष्म शरीर की सुषुम्ना से ऊपर की ओर उठती है। मार्ग में कई चक्रों को भेदती हुई आगे बढ़ती है और सिर के शीर्ष में अन्तिम चक्र में प्रवेश करती है और वहाँ पर अपने पति-प्रियतम शिव के साथ हर्षोन्मादित होकर मिलती है। इस प्रकार, भगवती एवं भगवान के पौराणिक संयोजन का अनुभव हर्षोन्मादी, रहस्यात्मक समाधि के रूप में दैहिक रूप से करते हैं। ‘श्रीदुर्गा भागवत पुराण’ इसका प्रमुख ग्रंथ है जो ‘दुर्गा चरित्र’ एवं ‘दुर्गा सप्तसती’ के लिए प्रसिद्ध है।     

    नवरात्र का अर्थ ‘नौ रातों का समय’ माना गया है। इन नौ रात व दस दिनों में शक्ति स्वरूपा देवी के नौ रूपों की आराधना की जाती है जिसे नवदुर्गा भी कहा जाता है। उनके नौ रूपों में शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघण्टा, कूष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री हैं। भारत में शक्ति स्वरूपा देवी की आराधना वर्ष में चार बार होती है, जिसमें दो प्रमुख रूप से एवं दो गौण रूप से मनाया जाता है। चैत्र नवरात्रि एवं शारदीय नवरात्रि को जहां भारत में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है, वहीं आषाढ़ एवं माघ नवरात्रि कुछ क्षेत्रों में बहुत ही सीमित रूप से मनाया जाता है। हम यहाँ प्रमुख एवं गौण रूप से मनाए जाने वाले चारों प्रकार के नवरात्रि की चर्चा करने का प्रयास करेंगे। 

    नवरात्रि पूजन की तिथियाँ भारतीय कैलंडर के पारंपरिक हिन्दू पंचांग पर आधारित है जो सूर्य एवं चंद्र के साथ ग्रहों एवं नक्षत्रों की दिशा एवं दशा को रेखांकित करती है। हिन्दू पंचांग में कुल बारह महीने, चैत्र, बैशाख, जेष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्र, आश्विन, कार्तिक, अगहन, पौष, माघ एवं फाल्गुन और छः ऋतुएं, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शीत और वसंत हैं। मास एवं ऋतुओं के अनुरूप चारों नवरात्रि का समय निम्न प्रकार से देखा जा सकता है।  

  • चैत्र नवरात्रि, वसंत ऋतु (मार्च-अप्रैल) 

  • आषाढ़ नवरात्रि, वर्षा ऋतु (जून-जुलाई)  

  • शारदीय नवरात्रि, शरद ऋतु (सितंबर-अक्टूबर) 

  • माघ नवरात्रि, वसंत ऋतु (जनवरी-फरवरी)     

चैत्र नवरात्रि, वसंत ऋतु (मार्च-अप्रैल)  

    चैत्र नवरात्रि, जिसे कई जगहों पर चैती दुर्गा के नाम से भी जानते हैं, भारतीय पंचांग के अनुसार हिन्दू नववर्ष का आरंभ है। भारत के कई राज्यों में इस नववर्ष को अलग-अलग नामों से जानते हैं। महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में उगादी, कश्मीरी पंडितों द्वारा नवरेह आदि नामों से जानते हैं। इन दिनों व्रत, उपवास, भजन-कीर्तन, आत्मचिंतन आदि का विधान है।  

    यह उत्सव चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिप्रदा तिथि से नवमी तक मनाई जाती है। नौवें दिन राम नवमी होती है, जो भगवान राम के जन्मोत्सव का भी दिन है। वैसे यह पर्व माँ दुर्गा को समर्पित है। एक पौराणिक कथा के अनुसार, महिषासुर नामक असुर के आतंक से देवता भयभीत हो गए थे। महिषासुर को वरदान था कि उसे कोई देवता या दानव पराजित नहीं कर सकता। तब सभी देवताओं ने मिलकर माता पार्वती की आराधना की और उनसे विनती की। माता ने अपने अंश से नौ रूप प्रकट किए, जिन्हें हम नवदुर्गा कहते हैं। इन सभी रूपों को देवताओं ने अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र देकर अद्भुत शक्ति प्रदान की। चैत्र माह के प्रतिपदा से नवरात्र तक इन रूपों की आराधना की गई। माँ दुर्गा ने महाशक्ति रूप में महिषासुर का संहार किया और पुनः धर्म की स्थापना की। तभी से इन नौ दिनों को चैत्र नवरात्रि के रूप में मनाया जाने लगा। इस प्रकार यह पर्व देवी शक्ति की साधना और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जन्मोत्सव दोनों का संगम माना जाता है।

    पुराणों के अनुसार, नवरात्र के दिनों में मां दुर्गा पृथ्वी पर अवतरित हो अपने भक्तों के घर आती हैं और उनके कष्टों का निवारण करती हैं। भक्तजन व्रत, उपवास और पूजा-अर्चना करके मां से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। ऐसा माना जाता है कि नवरात्र में साधना और उपासना करने से मानसिक शांति के साथ-साथ जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। चैत्र नवरात्र में कलश स्थापना का विशेष महत्व है। पहले दिन कलश स्थापित कर उसमें अखंड ज्योति प्रज्वलित की जाती है। गेहूं या जौ के बीज बोकर जवारे उगाए जाते हैं, जिनका अंकुरण शुभ माना जाता है। प्रत्येक दिन भक्तजन दुर्गा के नौ रूपों की पूजा, अर्चना और उपवास आदि रखते हैं। 

    इस प्रकार, चैत्र नवरात्र केवल पूजा अनुष्ठान का पर्व नहीं, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक विरासत, वैज्ञानिक दृष्टि, सामाजिक सामंजस्य और आध्यात्मिक साधना का उत्कृष्ट संगम है। इस समय मौसम परिवर्तनशील होता है, ऐसे में हल्का और सात्त्विक भोजन शरीर को स्वस्थ रखने में सहायक होता है। उपवास केवल शारीरिक संयम ही नहीं, बल्कि मानसिक और आत्मिक शुद्धि का माध्यम भी है। ध्यान, जप और साधना से व्यक्ति अपने भीतर धैर्य, अनुशासन और पवित्रता का अनुभव करता है। यह पर्व यह सिखाता है कि अनुशासन, शक्ति की उपासना और सामाजिक सौहार्द से ही न केवल निजी उन्नति संभव है, बल्कि सम्पूर्ण समाज में खुशहाली और समृद्धि आती है।     

आषाढ़ नवरात्रि, वर्षा ऋतु (जून-जुलाई)

    आषाढ़ नवरात्रि का पर्व भारतीय संस्कृति और अध्यात्म में अत्यंत गूढ़ है। यह वर्षा ऋतु के आरंभ में आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से नवमी तक (जून-जुलाई) मनाई जाती है। इसे ‘गुप्त नवरात्रि’ भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें मुख्यत: साधक, योगी व तांत्रिक गुप्त साधनाएँ करते हैं, लेकिन साधारण भक्त भी मां दुर्गा के विभिन्न रूपों का आह्वान करके व्रत, उपवास, और जप-तप करते हैं। कृषि प्रधान भारत में यह मास स्वयं में किसान और ग्रामीण समाज के लिए संजीवनी है। लू का अंत, बादलों का गर्जन, वर्षा की झड़ी और हवाओं के परिवर्तन के साथ ही नई फसल चक्र का आरंभ होता है। आषाढ़ मास का नाम भी चंद्र के ‘पूर्वाषाढ़’ और ‘उत्तराषाढ़’ नक्षत्रों पर पड़ने से पड़ा है। इसकी पूर्णिमा ‘गुरु पूर्णिमा’ मानी जाती है, जो ज्ञान, शिष्यत्व और साधना का संदेश देती है और भारतीय संस्कृति की गुरु-परंपरा और ब्रह्मज्ञान की प्रतिष्ठा को पुनर्जीवित करती है।

    यह नवरात्रि प्रकृति के बदलाव, मानसून की आहट और संक्रमण का काल है। इससे बचाव और शांति के लिए शक्ति की उपासना एवं तंत्र साधना अत्यंत फलदायी मानी गई है। विशेषरूप से तांत्रिक, योग साधकों और आध्यात्मिक जागरण चाहने वालों के लिए स्त्री-शक्ति जागरण, आत्मरक्षा, सिद्धि, और नकारात्मक ऊर्जा से मुक्ति के लिए सर्वोत्तम काल है। इस समय साधनाएं तेजी से फल देने वाली मानी जाती हैं। यह मां दुर्गा के दस महाविद्याओं-काली, तारा, त्रिपुरा सुंदरी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला की साधना के लिए अनुकूल समय है।

    गुप्त नवरात्रि की शुरुआत घटस्थापना (कलश स्थापना) और घी के दीप प्रज्वलन से की जाती है। महाविद्याओं की विशेष साधना में दुर्गा सप्तशती, श्रीसूक्त, गायत्री पाठ आदि की जाती है। साधक तांत्रिक अनुष्ठान, मन्त्र-जप, यंत्र-पूजन और गुप्त विधियों से यह साधना करते हैं। सामान्य भक्त भी व्रत रखते, फलाहार करते और नवदुर्गाओं की आराधना करते हैं। इस मास में आंवला, छाता, खड़ाऊँ, नमक जैसी वस्तुओं का दान करना पुण्यकारी माना गया है।

    इस प्रकार, आषाढ़ मास की यह गुप्त नवरात्रि केवल तांत्रिक साधना अथवा गूढ़ उपासना का पर्व नहीं है, बल्कि यह स्वस्थ, संतुलित, अनुशासित और ऊर्जा से भरपूर समाज के लिए आवश्यक मौसमी, आध्यात्मिक और जैविक संतुलन का अद्भुत साधन है। वर्षा ऋतु का यह काल जीवन में शुद्धता, शक्ति, और नवचेतना लाता है। 

शारदीय नवरात्रि, शरद ऋतु (सितंबर-अक्टूबर)

    शारदीय नवरात्रि का समय शरद ऋतु के आगमन का प्रतीक है, जब वर्षा के बाद वातावरण स्वच्छ, निर्मल व ऊर्जा से संपन्न रहता है और प्रकृति का संतुलन नए रंग-रूप से जागृत होता है। यह काल कृषि के लिए प्रधान माना जाता है। बदलती ऋतु का प्रभाव मन-मिजाज, स्वास्थ्य और आहार-विहार पर भी पड़ता है। यह नवरात्रि हर साल अश्विन मास (सितंबर-अक्टूबर) के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से दशमी तक मनाई जाती है। वर्ष 2025 में यह पर्व 22 सितंबर से 2 अक्टूबर तक मनाया जा रहा है। वर्ष में चार नवरात्रि - चैत्र, आषाढ़, माघ (गुप्त) और अश्विन (शारदीय) आती हैं जिनमें चैत्र और शारदीय नवरात्र भारत में व्यापक रूप से मनाई जाती हैं। 

    शारदीय नवरात्रि में मां दुर्गा के नौ रूपों (नवदुर्गा) शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री की उपासना होती है। इस दौरान भक्ति, व्रत, जप-तप, कथा-पाठ, आरती, कन्या-पूजन और हवन की विशेष परंपरा है। पूजन में कलश (घट) स्थापना, अखंड दीप, देवी की मूर्ति/चित्र स्थापना, दुर्गा सप्तशती पाठ, सप्तश्लोकी दुर्गा, देवी कवच, आरती, भजन-कीर्तन, नौ दिन व्रत और नवमी/अष्टमी पर कन्या पूजन की विधि सबसे प्रमुख है। व्रत में फलाहार, दूध, सूखे मेवे, कुट्टू के आटे से बने व्यंजन प्रमुख होते हैं। मांसाहार, तामसिक भोजन, मद्यपान, नशा आदि वर्जित हैं।

    शारदीय नवरात्रि भारतीय संस्कृति व एकता का ज्वलंत उत्सव है। भारत के हर प्रांत में इसके अनगिनत रूप और परंपराएं हैं: पश्चिम बंगाल, बिहार आदि कुछ पूर्वोत्तर क्षत्रों में 'दुर्गापूजा', जिसमें मां दुर्गा की शिल्पगत प्रतिमाओं की स्थापना, सांस्कृतिक आयोजन और विसर्जन की परंपरा है। गुजरात और महाराष्ट्र में गरबा-डांडिया की भव्यता है, जिसमें संगीतमय नृत्य व लोकमंगल के दृश्य उपस्थित होते हैं। उत्तर भारत में रामलीला, कथा, भजन, संध्या आदि का प्रदर्शन होता है। गांव से शहर तक मंदिरों, पूजा-पंडालों व घर-आंगनों तक माँ दुर्गा का जयघोष गुंजायमान रहता है।

    यह उत्सव भारतीय समाज में शक्ति, विजय और आत्मशुद्धि का प्रतीक माना जाता है। मां दुर्गा तथा उनकी नौ शक्तियों का सम्मान करने के साथ-साथ अच्छाई पर बुराई की विजय, सामाजिक समरसता, प्रकृति के परिवर्तन और लोकमानस के भावनात्मक संतुलन का उत्सव भी है। यह पर्व नारी शक्ति की प्रतिष्ठा, संस्कृतियों के संगम, प्रकृति के अनुरूप जीवन, साधना और सामाजिक समरसता का अमिट संदेश देता है। वर्ष के इस संधिकाल में शक्ति आराधना हर भक्त को नूतन प्रेरणा, आत्मबल, अनुशासन और विजय का अहसास कराती है—यही शारदीय नवरात्रि की सनातन महिमा है।

माघ नवरात्रि, वसंत ऋतु (जनवरी-फरवरी)

    माघ नवरात्रि वसंत ऋतु (जनवरी-फरवरी) के दौरान मनाई जाने वाली एक अत्यंत महत्वपूर्ण, किंतु अपेक्षाकृत कम प्रसिद्ध गुप्त साधना का पर्व है। यह हिन्दू पंचांग के अनुसार माघ मास (जनवरी-फरवरी) के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से नवमी तक मनाई जाती है। गुप्त साधना से तात्पर्य है - ऐसी साधना जिसमें पूजा, तांत्रिक साधना एवं तप का स्वरूप सामान्य जनजीवन से गुप्त रखा जाता है। यह पर्व मुख्यत: साधक, तांत्रिक, योगी और आत्मिक साधना करने वालों के लिए उपयुक्त है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, माघ नवरात्रि में देवी दुर्गा के नौ स्वरूपों एवं दस महाविद्याओं की विशेष पूजा की जाती है। इन दिनों में साधना करने वाले को मानसिक, आत्मिक और भौतिक समस्याओं से निजात मिलने की आशा रहती है।

    वसंत ऋतु भारतीय जीवन का सबसे सुंदर, उत्साहवर्धक और चेतना जगाने वाला प्राकृतिक काल है। पौष-माघ माह के अंतिम दिनों में ठंड का प्रकोप घटता है, वातावरण में मृदुता आती है, खेतों में सरसों, गेहूं, चना, मसूर के फूल खिलते हैं, पक्षियों की चहचहाहट बढ़ जाती है, और नई फसलों के आगमन की तैयारी शुरू हो जाती है। विभिन्न प्रकार के रंग-बिरंगी शाक-सब्जियां देखने को मिलते हैं। यह समय नए जीवन, नई ऊर्जा और प्राकृतिक परिवर्तन का परिचायक है। माघ नवरात्रि के 9 दिन हमारे जीवन में रचनात्मकता, चैतन्यता, ऊर्जा और आत्मशुद्धि का संचार करते हैं। 

    माघ नवरात्रि गूढ़ तांत्रिक साधनाओं के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। देवी के दस महाविद्याओं, काली, तारा, त्रिपुरा सुंदरी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला—की उपासना मुख्यतः साधक गुप्त रूप से करते हैं। मंत्र जाप, यंत्र पूजन, तन-मन की शुद्धि, तन्त्र क्रियाएँ और ध्यान के माध्यम से साधक विशेष सिद्धि, आत्मबल और सुरक्षा प्राप्त करता है। देवी दुर्गा के नौ स्वरूपों की भी पूजा की जाती है, ताकि साधक व परिवार को संकट, बाधा, रोग आदि से मुक्ति मिले और मनोकामना पूर्ण हो सके।

    इस प्रकार, वर्ष में चार बार नौ दिनों तक मनाया जाने वाला यह पर्व भारत की सांस्कृतिक एकजुटता, शक्ति एवं समृद्धि का परिचायक है। इस नवरात्र के दौरान जो विधियाँ, संयम, आहार-व्यवहार व मानसिक साधनाएं सम्पन्न की जाती हैं, वह ज्योतिष, योग एवं आयुर्वेद की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि यह न केवल हमारे स्वास्थ्य, बल्कि पारिस्थितिकीय संतुलन की दृष्टि से हमारे जीवन को स्वच्छ, सुंदर और उत्साह से भर देता है। यहाँ तक कि इस ब्रह्मांड में जो ऊर्जा पदार्थ के अंदर और बाहर विद्यमान है, जिसे हम सकारात्मक (सूर) व नकारात्मक (सूर) ऊर्जा के रूप में देखते हैं, उनके संचालन और नियंत्रण की पद्धति के लघु रूप का निदर्शन भी विराट शक्ति तत्व की स्तुति व वंदना से संभव हो जाता है।     

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