
भारत में चिंतन मनन और परस्पर संवाद की सुदीर्घ परंपरा भारतवर्ष में वेद के साथ ही शुरु होती हैं। वेद अपने सम्पूर्ण रूप में हर प्रकार की दार्शनिक परम्परा के बीज को छिपाए हुए हैं। भारत में द्वैतवाद का इतिहास काफी पुराना है । वेदों में इसकी आंशिक झलक भी प्राप्त होती है किन्तु व्यवस्थित रूप से सांख्य सूत्रों के रूप में यह स्थापित होता है । शंकराचार्य ने सांख्य को
उसकी द्वैतवादी प्रकृति के कारण प्रधान्मल्ल कहा और उसका खंडन किया. द्वैतवाद के अनुसार सम्पूर्ण सृष्टि के अन्तिम सत् दो तत्व हैं। इसका एकत्वाद या अद्वैतवाद के सिद्धान्त से मतभेद है जो केवल एक ही सत् की बात स्वीकारता है। द्वैतवाद में जीव, जगत्, तथा ब्रह्म को परस्पर भिन्न माना जाता है। कहीं कहीं दो से अधिक सत् वाले बहुत्ववाद के अर्थ में भी द्वैतवाद का प्रयोग मिलता है। यह वेदान्त है क्योंकि इसे श्रुति, स्मृति, एवं ब्रह्मसूत्र के प्रमाण मान्य हैं। ब्रह्म को प्राप्त करना इसका लक्ष्य है, इसलिए यह ब्रह्मवाद है। 13वीं शताब्दी में मध्वाचार्य ने अद्वैतवाद के बुनियादी सिद्धांतो को चुनौती देते हुए श्रुति तथा तर्क के आधार पर
सिद्ध किया कि संसार मिथ्या नहीं है, जीव ब्रह्म का आभास नहीं है, और ब्रह्म ही एकमात्र सत्न हीं है। उन्होंने इस प्रकार अद्वैतवाद का खण्डन किया तथा पाँच नित्य भेदों को मण्डित किया। इस कारण उनके इस सिद्धान्त को ‘पंचभेद सिद्धान्त’ भी कहा जाता है।
पाँच भेद ये हैं –
१-ईश्वर का जीव से नित्य भेद है। २- ईश्वर का जड़ पदार्थ से नित्य भेद है। ३- जीव का जड़ पदार्थ ने नित्य भेद है।४-एक जीव का दूसरे जीव से नित्य भेद है। ५- एक जड़ पदार्थ का दूसरे जड़ पदार्थ से नित्य भेद है।
मध्वाचार्य के द्वैतवाद में कुल दस पदार्थ माने गये हैं – द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, विशिष्ट, अंशी, शक्ति, सादृश्य, तथा अभाव। प्रथम पांच तथा अन्तिम अभाव नामक पदार्थ वैशेषिक दर्शन से लिया गया है। विशिष्ट अंशी शक्ति तथा सादृश्य को जोड़ देना ही मध्व मत की वैशेषिक मत से विशिष्टता है। न्याय –वैशेषिक की भांति मध्वाचार्य ने अपने दर्शन को विकसित
करने में कई तत्वमीमांसीय पदार्थो का सहारा लिया है.
उनके इस मत में द्रव्य बीस हैं – परमात्मा, लक्ष्मी, जीव, अव्याकृत, आकाश, प्रकृति, गुणत्रय, अहंकारतत्त्व, बुद्धि, मन, इन्द्रिय, मात्रा, भूत, ब्रह्माण्ड, अविद्या, वर्ण, अन्धकार, वासना, काल, तथा प्रतिबिम्ब।
द्वैतवाद और अद्वैतवाद का परस्पर खण्डन-मण्डन
द्वैतवाद के खण्डन के लिए अद्वैतवादी मधुसूदन सरस्वती ने अद्वैतसिद्धि जैसे ग्रन्थों की रचना की। इसी तरह अद्वैतवाद के खण्डन के लिए जयतीर्थ ने बादावली तथा व्यासतीर्थ ने न्यायामृत नामक ग्रंथों की रचना की थी। रामाचार्य ने न्यायामृत की टीका तरंगिणी नाम से लिखी तथा अद्वैतवाद का खण्डन कर द्वैतवाद की पुनर्स्थापना की। फिर तरंगिणी की आलोचना
में ब्रह्मानन्द सरस्वती ने गुरुचन्द्रिका तथा लघुचंद्रिका नामक ग्रन्थ लिखे। इन ग्रन्थों को गौड़-ब्रह्मानन्दी भी कहा जाता है। अप्पय दीक्षित ने मध्वमतमुखमर्दन नामक ग्रन्थ लिखा तथा द्वैतवाद का खण्डन किया। वनमाली ने गौड़-ब्रह्मानन्दी तथा मध्वमुखमर्दन का खण्डन किया तथा द्वैतवाद को अद्वैतवाद के खण्डनों से बचाया।इस प्रकार के खण्डन-मण्डन के आधार उपनिषदों की भिन्न व्याख्याएं रही हैं। उदाहरण के लिए, ‘तत्त्वमसि’ का अर्थ अद्वैतवादियों ने ‘वह, तू है’ किया जबकि मध्वाचार्य ने इसका अर्थ निकाला ‘तू, उसका है’। इसी प्रकार ‘अयम्आत्मा ब्रह्म’ का अद्वैतवादियों ने अर्थ निकाला, ‘यह आत्मा ब्रह्म है’, तथा द्वैतवादियों ने अर्थ निकाला – ‘यह आत्मा वर्धनशील है’। इस प्रकार व्याख्याएं भिन्न होने से मत भी भिन्न हो गया।
इस प्रकार हम देखते है कि विचार और संवाद कि परंपरा निरंतर चलती रही है कही पर अद्वैतियो के तर्क पुष्ट मालूम होते है तो कही द्वैतवादियों ने उसके जबाब में महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए है इन प्रश्नोत्तरों से ना सिर्फ समाज की मेधा का पता चलता है अपितु आगे विकास के नए कीर्तिमान स्थापित होते जाते हैं।
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