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तंत्र ३ – आगम : शिव पार्वती का संवाद

August 31, 2020 Authored by: Rajnish Mishra

आगम उपदिष्ट हैं – अर्थात शिव और पार्वती के संवाद के रूप में हैंकाव्य के ग्रंथों में आचार्य अभिनव गुप्त ने जब सहृदय की परिभाषा दी अपनी टीका मेंतो इसी को हृदय संवाद कहा| अर्थात शिव और पार्वती का संवाद कोई दो व्यक्तियों के बीच का संवाद नहीं है| यह संवाद है हृदय काहृदय का ही एक पक्ष प्रश्न करता है| दूसरा उसको समझता हैउत्तर देता है| इस तरह का एक एकत्व का संवाद है यह|

जो वैदिक ज्ञान है, जो निगम मूलक ज्ञान है वह दृष्टि ज्ञान है| पाणिनि ने एक सूत्र लिखा है – यह जो वेद आदि हैं वो दृष्ट हैं| आगम उपदिष्ट हैं शिव पार्वती के संवाद के रूप में| और ऐसा नहीं कि हर बार शिव ही उत्तर देते हैं सिर्फ पार्वती सिर्फ प्रश्न करती हैं| कई बार शिव भी प्रश्न पूछते है और पार्वती उसका उत्तर देती हैं और इस रूप में यह शास्त्र वर्णित है|

आगम का कश्मीर परंपरा में और कई और प्रदेशों में प्रयोग मिलता है | देवी या शिव के द्वारा जो प्रोक्त है उसी विशिष्ट शास्त्र का नाम आगम या तंत्र हैऔर भगवान् विष्णु के द्वारा जो प्रोक्त है उसको पांच रात्र आगम कहते हैं|

तो तंत्र और आगम ऐसा नहीं कि शैव और शाक्तों में ही है| आगम सौर तंत्र के रूप में सौर परंपरा में अथवा गणपति परंपरा में भी उपस्थित हैं| जैन आगम भी प्रसिद्द हैं| आगम एक सामान्य सा विधान है| आगे चल कर के ज्ञान परंपरा में हम देखते हैं कि निगम शब्द का प्रयोग धीरे धीर कम होता गया आगम शब्द का प्रयोग बाहुल्य से मिलता है|

और आगम शब्द का प्रयोग जैसे भर्तहरी आदि करते हैं उसमें वेद और तंत्र दोनों ही सम्मिलित हैं| क्यूंकि भर्तहरी उस परंपरा से आ रहे हैं जो आगम और निगम दोनों की सम्मिल्लित परंपरा है| और स्वछन्न तंत्र में आगम के बारे में कहा गया – जो शिव के मुख से निकला हो| पार्वती ने जिसको ग्रहण किया और वही आगे चल कर के कृष्ण के द्वारा प्रोक्त हुआ क्यूंकि कृष्ण की बड़ी प्रसिद्धि है आगमों में|

ऐसा कहा जाता है आचार्य अभिनव गुप्त ने ही अपने तन्त्रालोक में यह कहा है कि ऋषि दुर्वाषा से उनको आगमों का ज्ञान प्राप्त हुआ था| और शायद यही कारण है कि भगवद गीता की बड़ी प्रतिष्ठा है शैव परंपरा में| और उस पर स्वयं आचार्य अभिनव गुप्त ने ही अपनी टीका लिखी है जिसका नाम है भगवद गीता अर्थ संग्रह| और इस टीका का जो प्रयोजन वो बताते हैं वह बड़ा महत्वपूर्ण हैं| वे कहते हैं यह गूढार्थ प्रकाशिका टीका है| गूढ़ अर्थ को प्रकाशित करने वाली टीका है| सभी श्लोकों पर उन्होंने टीका नहीं लिखी है| केवल उन श्लोकों पर जिनका तांत्रिक दृष्टि से आगम की दृष्टि से कुछ अतिरिक्त अर्थ आता हो या उस परंपरा से वो श्लोक कहे गए हों उन पर वह विशेष रूप से वहाँ प्रकाश डालते हैं|

तो आगम के और जो समानार्थी शब्द अपने शास्त्रों में उपलब्ध हैं वो हैं प्रसिद्धि शास्त्र| शास्त्र एक बड़ा टेक्निकल शब्द है| कश्मीरी आचार्यों ने जब अपना ग्रन्थ लिखा – इश्वर प्रतिभिग्या विमर्शिनी – यहाँ इश्वर का अर्थ है शिव की प्रतिभिग्या| शिव का पुनः ज्ञान प्राप्त करना| शिव रूप तो हम हैं ही| किसी कारण से विस्मृत वो रूप है| उस रूप को पुनः पा लेना जो उस पर आवरण चढ़ा है विस्मृति का या अन्य कारणों से उस आवरण को दूर करते ही हम अपने स्वरुप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं|

तंत्र में जो योग है उसका भी एक भेद हमें परिलक्षित होता है| हमारे सामने दो योग की परमपरा रख लें तो हम ये बात स्पष्टता से समझ सकते हैं| जैसे एक पातंजल योग है जिसको हम ‘आष्टांगिक योग’ कहते हैं – यमनियमआसनधारणासमाधि आदि तो ये आठ अंग इसके हैं| आप जरा इसकी तुलना बौद्ध धर्म के जो आष्टांगिक मार्ग हैं उनसे करेंगे तो बड़ा रोचक निष्कर्ष आएगा|

एक तो यह आगम हैं जो पतंजलि के द्वारा प्रणीत योग सूत्र है| योग की परिभाषा देते हुए पतंजलि कहते हैं – योग क्या है? चित्त वृत्तियों का निरोध हैं| तो एक परंपरा योग की है| आष्टांगिक योग की|

दूसरी परम्परा जो आगमों की है जिसका बड़ा प्रसिद्ध ग्रन्थ है – विज्ञान भैरव – वो अद्वैतवादी आगम ग्रन्थ है जिसमें शिव वो कहते हैं कि – जहाँ जहाँ मन तो संतुष्टि मिल जाए मन को वहीँ धारण कर लोकोई निषेधनिरोध की आवश्यकता नहीं| क्यूंकि उस इश्वर से उस परम शक्ति से वंचित कुछ भी नहीं है| यह सब कुछ जो भी हमारे दृश्य रूप में या जड़ चेतन में जो कुछ भी व्याप्त होता है या जो अज्ञात रह जाता है वह सब कुछ उसी का वाचक है| तो जहां भी मन को धारण कर लोगे, वहीँ से शक्ति अपने को प्रकाशित कर देगी| तो ये दो प्रस्थान भेद सिर्फ योग के हैं| एक निव्रत्तिमूलक हैपातंजल योग| और शैव योग, विज्ञान भैरव या शाक्त योग है वह प्रवृत्ति मूलक है| इसमें प्रवृत्ति को ही प्रधानता दे कर अपनी बात कही जाती हैतो ये प्रस्थान भेद इसके आगे आते हैं|

Read the first part of the series here:

तंत्र १ : भारत – एक आध्यात्मिक संस्कृति

तंत्र २ – तंत्र की अवधारणा

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