
तंत्र का विषय कई प्रकार की भ्रांतियों का शिकार है| कुछ भ्रांतियां अभी के समय की हैं, और कुछ शायद हमारी अपनी परंपरा से भी उस विषय के साथ जुडी हुई चली आ रही हैं| इस लेख में हम तंत्र, प्रकृति, प्रस्थान एवं परिणति के बारे में बात करेंगे|
इस विषय पर भ्रान्ति के दो बड़े कारण हैं| एक कारण तो है तंत्र की कम समझ| और दूसरा कि वो भ्रामक समझ है| क्यूंकि तंत्र शब्द का सही अर्थ उसका निषेध करता है जिस रूप में उसका अर्थ आजकल प्रचारित हुआ है|
प्रत्येक दर्शन के साथ भी साधना पद्धति जुडी हुई है| साधना पद्धति दो प्रकार की है| एक में प्रमुखता अन्तरंग साधना की है और इसी की व्याख्या तंत्र है| तंत्र सर्व जन सुलभ है, इसमें कोई वर्ण आदि का बंधन नहीं है| कोई भी इसका आचार कर सकता है| कोई भी इसमें दीक्षित हो सकता है| लेकिन प्रश्न केवल सामाजिकता की बात का नहीं है|
प्रत्येक शास्त्र में एक अधिकारी की अवधारणा रखी गयी है कि कौनसा व्यक्ति किस शास्त्र का अधिकारी हो सकता है या अधिकारित्व प्राप्त करने के लिए उसको क्या क्या उद्योग करने चाहिए| यह शब्द भी आजकल इंडस्ट्री का अर्थ देता है, उद्योग का अर्थ है ‘उत + योग’ – ऐसा योग जो हमें ऊपर उठाता हो| समष्टि मूलक बनाता हो| ऐसा यह शब्द है|
आधे से अधिक प्रवाद फैला हुआ है इस गलत अनुवाद के कारण | अपनी ज्ञान मूलक संस्कृति को हम इसीलिए हृदयंगम नहीं कर पा रहे हैं कि पिछली कई शताब्दियों से अपनी शब्दावली का हमें अभ्यास नहीं है| हम शब्द भले ही अपने प्रयोग में ले आते हों पर अर्थ उनका दूसरा है| यह एक बड़ी समस्या है|
साधना का दूसरा पक्ष भी है जिसको बहिरंग साधना कहते हैं| और वह वर्णित है वेद आदि ग्रंथों में| कामिक आगम एक ग्रन्थ है| तंत्र का ग्रन्थ है| मैंने अभी कहा कि आगम और तंत्र पर्यायवाची शब्द हैं| वहां तंत्र शब्द की व्युत्पत्ति बतायी जाती है| कामिक आगम तंत्र में और दो धातुओं से वर्ड रूट जिसको संस्कृत में कहते हैं – धातु – से इस तंत्र शब्द की व्युत्पत्ति बताई जाती है| यह ध्यान देने योग्य है|
एक धातु है, त्रय, जिसका अर्थ होता है रक्षा करना और दूसरा धातु है, तन, जिसका मतलब है विस्तार करना| तन्यते| त्रायती| रक्षा करना और विस्तार करना| तो इस अर्थ को ध्यान में रखते हुए कामिक आगम कहता है कि तंत्र उसको कहते हैं जो हमारा विस्तार करता है और रक्षा करता है| दो स्तरों पर एक ज्ञान का ज्ञान की रक्षा और ज्ञान का विस्तार गुरु शिष्य परंपरा में और दूसरा उस व्यक्ति का भी विस्तार उसका स्व व्यापक हो| उसका अस्तित्व सुनिश्चित हो और उसका स्व व्यापक हो| समष्टिमूलक बने वह| इस रूप में तंत्र हमारे लिए उपयोगी है|
मोक्ष की जहां चर्चा आती है आचार्य अभिनव गुप्त का ही ग्रन्थ है – तंत्र सार| इसमें बढ़ी स्पष्टता से तंत्र की परिभाषा देते हुए वे कहते हैं कि मोक्ष कुछ अतिरिक्त नहीं है अपने स्वरुप का विस्तार मात्र है| अपने स्वरुप का प्रथम विस्तार, इसी को मोक्ष कहते हैं| व्यक्ति भाव से समष्टि भाव में स्थित होना ही मोक्ष कहलाता है|
तो ऐसी स्थिति में तंत्र शब्द का प्रयोग दूसरी विधाओं के लिए भी किया गया है जैसे न्याय, धर्मशास्त्र, योग, स्मृति इन सबके के लिए भी तंत्र का प्रयोग हमें मिलता है और इस अर्थ में हम देखते है कि यह सिस्टम जैसा कुछ अर्थ देता है जिस अर्थ में आज हम राजतंत्र, गणतंत्र आदि समझते हैं|
लेकिन तंत्र का अर्थ जो परिसीमित हुआ है वह एक भाषावैज्ञानिक घटना भी है जिसमें अर्थ परिवर्तन की कई दिशायें होती हैं, कई स्तर होते हैं| अर्थ संकोच, अर्थ विस्तार, अर्थ प्रतीक उल्टा ही अर्थ हो जाता है| तो इन सब कारों से भी इसके अर्थ में संकुचन हुआ है |
तंत्र आगम का दूसा नाम है| वाचस्पति मिश्र एक बहुत बड़े संस्कृत विद्वान हुए हैं और पतंजलि के योग सूत्र पर उनकी व्याख्या है जिसको – तत्व वैशारदी – कहते हैं| इसमें तंत्र आगम शब्द पर विचार करते हुए उन्होंने कहा है जिससे बुद्धि में अभ्युदय और निश्रेयस के उपाय आते हैं| मतलब ऐसा आगम वह शास्त्र है जो हमारे अभ्युदय, जो हमारा लौकिक स्वरुप है और जो आत्मसाक्षरात्मक रूप है उस दोनों को जहां हम प्राप्त करते हैं इसको यह सुनिश्चित करता है| अर्थात लौकिक उन्नति और मोक्ष के उपाय इन दोनों के लिए यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है|
आगम साधनभूत उपायों की चर्चा करता है| साधना परक है क्रिया परक है| और दूसरा एक ग्रन्थ है – वाराही तंत्र – जिसमें आगम के सात लक्षण बताये गए हैं| मैं केवल वो लक्षण बता देता हूँ| श्रृष्टि, परलय, देवार्चन, सर्व साधन, पुरश्चरण, शटकर्म और ध्यान योग| इन्ही लक्षणों से आगम के ग्रन्थ युक्त होते हैं| और इसमें साधना का स्वरुप जो बताया जाता है वह प्रायोगिक है और गुरु शिष्य परम्परा के अंतर्गत है| आगम या तंत्र आत्मगोपन की प्रक्रिया है, प्रकाशन के लिए|
कैसे कई जगह आगम ग्रंथों को आप पढेंगे, उनका अध्ययन करेंगे तो पायेंगे कि कई जगह स्वयं आचार्य कहता है – जैसे आचार्य अभिनव गुप्त अपने तन्त्रालोक कहते हैं कि इस सीमा के बाद मैं इसकी व्याख्या नहीं कर सकता, क्यूंकि इसका स्वरुप उद्घाटित हो जाएगा, जिसकी अनुमित गुरु परम्परा से नहीं है| स्वरुप उद्घाटित होने का क्या अर्थ है, यह नहीं कि वो बताना नहीं चाहते हैं, या उस पर कोई आवरण डालना चाहते हैं| क्यूंकि वह अनुभूति गम्य विषय है| उसकी जहां तक भाषा से व्याख्या हो सकती है वहाँ तक व्याख्या करते हैं| उसके बाद का जो स्वरुप उसका है वह अनुभूति गम्य है| इसीलिए वहाँ शाब्दिक व्याख्या भाषित अथवा व्याख्या उपयुक्त नहीं है| इसीलिए गुरू परंपरा से वह मना किया गया है, निषेध है|
अधिकारी की अपेक्षा इस शास्त्र में और सभी शास्त्रों में है और इसीलिए महानिर्वाण तंत्र कहता है कि बिना इस व्याग मार्ग के यज्ञ मार्ग के या साधना मार्ग के इसमें कोई गति नहीं है| तंत्र में या इस प्रक्रिया में|
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